1 मार्च को राहुल गांधी ने हमें सूचना दी कि वह अपनी 93 साल की नानी के साथ होली खेलने इस हफ्ते के अंत में इटली जा रहे हैं. यह उस शख्स के लिए एक नई पहल थी, जो बिना किसी को खबर किए ही विदेश चले जाते हैं. यह सौम्य पहल थी, लेकिन मोटे तौर पर यह भी बता देती है कि बीजेपी क्यों जीतती है और कांग्रेस क्यों नहीं. यह तड़प का मामला है.
नेतृत्व का मतलब सिर्फ रैलियां करना, मंदिर-मंदिर दौड़ना, ट्विटर पर प्रतिद्वंद्वियों पर टिप्पणी करना और मीडिया को बयान देना नहीं होता. यह हार के बाद कैमरे का सामना करना, हार की जिम्मेदारी लेना, जनमत को समझना, पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ बैठना और अगली चुनौतियों के लिए तैयारी करना है. हर बार जीतने के लिए एक नई लड़ाई होती है. हार ना सिर्फ एक नेता की हिम्मत का इम्तेहान लेती है, बल्कि यह नेता को गढ़ती भी है.
राहुल कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर एक खेदजनक रूप दिखाते हैं, जो कि ठीक उस समय छुट्टियां मना रहे थे, जब पार्टी को उनकी मौजूदगी की जरूरत थी. कांग्रेस ने उत्तर पूर्व के अपने परंपरागत गढ़ में बुरी तरह मात खाई है, और राहुल ने सभी सवालों का जवाब देने का जिम्मा अपने सहयोगियों के गले डाल दिया.
पार्टी का त्रिपुरा और नागालैंड में पूरी तरह सफाया हो गया है, जहां पुश्तों से इसकी गहरी जड़ें और वोट बैंक रहा है. यह मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी सरकार बनाने में नाकाम रही. सवालों का सामना करने के बजाय राहुल ने चुनावी राजनीति की निष्ठुरता और तपिश से दूर यूरोप के सुहाने मौसम में दोस्तों और परिवार के साथ वक्त बिताना बेहतर समझा.
राहुल शायद इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं कि उनका अपना राजनीतिक भविष्य उनकी मनमर्जी नहीं रह गया है. एक पार्टी अध्यक्ष फ्रीलांसर की तरह बर्ताव नहीं कर सकता. राहुल की गतिविधियां ऐसा संदेश देती हैं कि वह पलायनवादी हैं, जो सच्चाइयों का सामना नहीं करना चाहते और अपनी जिम्मेदारियों का बोझ उठा पाने में असमर्थ हैं.
नॉर्थ ईस्ट में हार पर क्या बोले राहुल गांधी
कोई शख्स जो प्रधानमंत्री के पद का दावेदार है, उसका ऐसा बर्ताव भरोसा नहीं जगाता. उत्तर पूर्व की हार पर प्रतिक्रिया आखिरकार सोमवार की दोपहर, 48 घंटे बाद आई.
उन्होंने कहा, कांग्रेस पार्टी त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के लोगों के जनमत का सम्मान करती है. हम फिर से लोगों का भरोसा जीतने के लिए अपनी पार्टी को पूरे उत्तर पूर्व में मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. मैं पार्टी के लिए कड़ी मेहनत करने वाले हर एक कांग्रेस कार्यकर्ता का हार्दिक धन्यवाद अदा करता हूं.
राहुल गांधी की ठंडी प्रतिक्रिया पश्चिम बंगाल की दमदार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया से एकदम उलट है, जिन्होंने बीजेपी की जीत को “महत्वहीन” बताते हुए खारिज कर दिया और माणिक सरकार की सरकार को टक्कर नहीं दे पाने के लिए जिम्मेदार ठहराया. घर के पिछवाड़े बीजेपी की आहट पाकर ममता ने लाल किले पर निशाना साधा और 2019 में नरेंद्र मोदी को उखाड़ फेंकने का दावा किया.
ममता के शब्द सिर्फ तेवर दिखाने वाले लग सकते हैं, लेकिन यहीं पूरा खेल है. बीजेपी की त्रिपुरा में जीत से, जहां बड़ी संख्या में बंगाली रहते हैं, पश्चिम बंगाल में टीएमसी को पेश की जा रही चुनौती में एक नया पहलू जुड़ जाता है. पश्चिम बंगाल में बीजेपी धीरे-धीरे मुख्य विपक्षी पार्टी की जगह ले चुकी है. इस तरह ममता की कोशिश बीजेपी की एक महत्वपूर्ण जीत से मनोवैज्ञानिक बढ़त को नकार देने और अपने पार्टी कार्यकर्ताओं में भरोसा जगाने की है.
भगवा हल्लाबोल का सामना कर रही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने बीजेपी को बता दिया है कि वह उनके लिए एक इंच भी जगह नहीं छोड़ेंगी. यह तड़प ममता बनर्जी को परिभाषित करती है. यही बात उन्हें बीजेपी की सबसे मजबूत प्रतिद्वंद्वी बनाती है.
कांग्रेस की रणनीति में थी कमी
कांग्रेस में तड़प का अभाव इसके अपनी लड़ाइयों के चयन में भी दिखता है. उत्तर पूर्व में चुनावी बिगुल बज जाने के बाद भी राहुल के निशाने पर कर्नाटक ही रहा. मेघालय में एक नाच गाने के शो में शामिल होने को छोड़ दें तो, पार्टी अध्यक्ष ज्यादातर अदृश्य ही रहे.
कर्नाटक में अप्रैल-मई तक चुनाव नहीं होने वाले हैं, फिर भी राहुल तीन उत्तर पूर्वी राज्यों (खासकर त्रिपुरा में, जहां इसका प्रभावी आधार है) के बजाय कर्नाटक में मंदिरों के चक्कर लगाते रहे और रैलियां करते रहे.
इससे यह अहसास पैदा हुआ कि कांग्रेस के लिए कर्नाटक उत्तर पूर्व से ज्यादा महत्वपूर्ण है. यह ना सिर्फ गलत प्राथमिकताओं का चुनाव था, बल्कि खासकर उत्तर पूर्व को लेकर- इससे एक बड़ी सांकेतिक चूक भी हो गई. इससे लगा कि नए अध्यक्ष के आ जाने के बाद भी कांग्रेस के हर चुनाव को गंभीरता से नहीं लेने और सभी राज्यों को बराबरी की नजर से नहीं देखने के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है. कांग्रेस ने इस बेरुखी की भारी कीमत चुकाई. यह नागालैंड और त्रिपुरा में सिर्फ शून्य पर सिमट जाने का मामला नहीं था, बल्कि इसने वह मोमेंटम (जोश) बीजेपी को वापिस सौंप दिया है, जो उसने गुजरात में कमजोर प्रदर्शन और उपचुनावों में हार से गंवा दिया था.
नॉर्थ ईस्ट में जीत से बीजेपी की राहें होंगी आसान
राजनीति में मोमेंटम का बहुत महत्व होता है. खासकर बीजेपी जैसी भीमकाय पार्टी के लिए और ज्यादा. उत्तर पूर्व में जीत से, जहां बीजेपी पहली बार सत्ता में आई है, पार्टी कार्यकर्ताओं को ऊर्जा मिलेगी और कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में कड़ी टक्कर देंगे. इसने एनडीए को लेकर उन चर्चाओं को भी विराम दे दिया है कि मोदी मैजिक खत्म हो रहा है. इस जीत ने इसको राष्ट्रस्तरीय पार्टी का खिताब दे दिया जिसका भारत की पूरी लंबाई और चौड़ाई में विस्तार है, जो नामुमकिन सहयोगियों से भी तालमेल कर सकती है. जिसे उन समुदायों और धर्मों से भी वोट मिलता है, जिनके बीच पहले इसकी मौजूदगी नहीं थी.
बीजेपी अब पूरी वैधता से भारत की ‘स्वाभाविक’ सत्तारूढ़ पार्टी के सिंहासन का दावा कर सकती है, जो ना सिर्फ जीत हासिल करती है, बल्कि उलटी हवा में भी टिकी रहती है. यह ऐसा इसलिए कर पा रही है क्योंकि नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी अमित शाह ने अपने कार्यकर्ताओं में एक तड़प जगा दी है, जिसकी पहले कमी थी.
उदाहरण के लिए त्रिपुरा में बीजेपी और आरएसएस ने सब्र के साथ पार्टी को खाली जमीन पर ईंट-दर-ईंट खड़ा किया. राजनीतिक मुकाम हासिल करने के लिए इसने वामपंथी दल के खिलाफ रक्तरंजित युद्ध लड़ा, जो कि वैचारिक और राजनीतिक विरोध को खत्म करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं. बीजेपी यह सब कर पाने में कामयाब रही. इसकी अहम वजह थी 21 राज्यों में सत्ता में होने के बाद भी पार्टी के मन में तड़प का होना.
यही तड़प थी, जिसके चलते बीजेपी को गुजरात में सत्ता-विरोधी लहर, कारोबारियों का गुस्सा, किसानों के विरोध और जातीय आंदोलनों की अड़चनों को भी पार करते हुए जीत मिली. उस जीत के मायने को अभी तक ठीक से समझा नहीं गया है. यह तड़प बीजेपी को हर चुनाव इस तरह लड़ने की ताकत देती है, मानो इसका अस्तित्व सिर्फ इसी पर निर्भर करता है. तड़प के इस खेल में राहुल कहीं नहीं ठहरते.