लखनऊ । उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के घमासान को थामने के मकसद से पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि उनके जीते जी यह पार्टी एक बनी रहेगी. इस एक वाक्य में पार्टी के ताज़ा घटनाक्रम का सार छिपा है. पार्टी अध्यक्ष दरअसल यह कह रहे हैं कि उनके रहते पार्टी का कमान उनके हाथ में ही है और अपने बाद का बंदोबस्त वो बहुत ही समझदारी से करते जा रहे हैं.
मुलायम ने स्पष्ट कर दिया है कि अखिलेश उनके उत्तराधिकारी हैं, पार्टी का भविष्य हैं, निर्बाध हैं और किसी भी नियंत्रण या दबाव से मुक्त हैं. यह पहला मौका था जब अखिलेश ने कोई फैसला इतना कड़ा लिया कि जो परिवार और पार्टी के एक सबसे अहम व्यक्ति से संबंधित था. मुलायम ने उसे पलटने के बजाय अपने बेटे के निर्णय की मर्यादा रख ली है. अब अखिलेश पार्टी में अपने पिता के अलावा किसी के प्रति जबावदेह नहीं हैं.
इससे पहले का दांव सपा प्रमुख ने 2012 के विधानसभा चुनाव के पहले खेला था. उन्होंने पार्टी के युवा चेहरे के तौर पर अखिलेश यादव को प्रदेशभर में मायावती के खिलाफ यात्रा निकालने और जनमत तैयार करने के लिए कहा. अखिलेश ने यह ज़िम्मेदारी निभाई और चुनाव में सपा को स्पष्ट जनादेश मिला.
इस जनादेश की गद्दी पर सवार अखिलेश कब अपने पिता की पीढ़ी के लोगों से आगे निकल गए, इसका बहुतों को अंदाज़ा तक नहीं लग सका. बहुजन समाज पार्टी से खिन्नता का जनादेश अखिलेश को मिले जनादेश के तौर पर बताया गया. अखिलेश के चाचाओं और मामाओं की जमात इस फैसले के आगे नतमस्तक होने के लिए बाध्य हुई और अखिलेश देश के सबसे बड़े राजनीतिक सूबे के मुख्यमंत्री बन गए.
खुद मुलायम द्वारा मुख्यमंत्री पद का त्याग बाकी लोगों के लिए उदाहरण बना रहा और अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के फैसले को लेकर न चाहते हुए भी कितने ही वरिष्ठों के मुंह बंद ही रहे. यह मुलायम का पहला दांव था. अब आइए दूसरे पर.
संकट या ड्रामा
समाजवादी पार्टी का ताज़ा राजनीतिक संकट मुलायम सिंह यादव के इसी राजनीतिक ड्रामे का सीक्व्ल है. सरकार चलाते समय कुनबे और पार्टी के अन्य वरिष्ठ चेहरे बगावत न करें, इसके लिए ज़रूरी था कि उन्हें उनके मन मुताबिक मंत्रालय मिलें और अपने तरीके से काम करने की आज़ादी. मुलायम इस तरह पार्टी को भी साधते रहे और अखिलेश को भी संभावित खतरों से बचाते रहे.
लेकिन चुनाव की दहलीज पर खड़ी पार्टी में अब कुनबा अपना हिस्सा मांग रहा है. सबको टिकटों के बंटवारे में अपना अपना हिस्सा चाहिए. टिकट बंटवारे के आर्थिक पहलू भी होते हैं और अपने खेमे की ताकत बढ़ाने की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी. इससे निपटना एक खासा कठिन काम है.
दूसरा यह कि पार्टी और मुलायम सिंह यादव को अच्छे से पता है कि अपनी अपनी दिशाओं में भागते 10 सिरों वाली राज्य सरकार का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि हर व्यक्ति मुख्यमंत्री के रूप में एक मजबूत और प्रभुत्व संपन्न अखिलेश के बजाय एक पूरे कुनबे को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर सवार देखते हैं. इससे अखिलेश की छवि कमज़ोर पड़ी है.
इस संकट को खत्म करने और भविष्य के लिए पार्टी में स्पष्ट संदेश देने के लिए मुलायम सिंह ने पार्टी के सबसे मज़बूत सेनापति की वीरगति को अपनी रणनीति की स्क्रिप्ट का रावण बनाया. शिवपाल को मुलायम सिंह ने प्रदेश अध्यक्ष बनाया. इस तिलमिलाहट में अखिलेश ने उनके मंत्रालय छीने. पार्टी को सबसे निचले स्तर तक पकड़कर रखने वाले शिवपाल आखिर में एक असहाय सेनापति बनकर सामने आए जिसे अखिलेश के आगे घुटने टेकने पड़े.
अखिलेश शायद पहली बार इतने मजबूत और अडिग नजर आ रहे हैं और वो भी एक बहुत ही अहम और मज़बूत आदमी के खिलाफ़ जो खुद उनके कुनबे से आता है. यह संदेश बाकी पार्टी के लिए और सूबे के लिए साफ है. राम गोपाल इसके बाद अखिलेश की शरण में जा चुके हैं. मुलायम सिंह ने समझौते का फार्मूला निकालते हुए प्रजापति की वापसी की घोषणा कर दी है. लेकिन टिकटों के बंटवारे में शिवपाल और बाकी नेताओं के लिए स्पष्ट कर दिया गया है कि चलेगी तो सिर्फ अखिलेश की.
संदेश साफ है. इस ड्रामे के सूत्रधार मुलायम सिंह यादव और नायक अखिलेश यादव अब अजेय योद्धा हैं. उनकी पार्टी और परिवार के लोग अखिलेश के आगे अब छोटे किए जा चुके हैं. अखिलेश अब पार्टी का भविष्य भी हैं और सत्ता के शीर्ष भी.
एक बात और, राहुल गांधी की किसान यात्रा से जो धूल सूबे के आसमान में जम रही थी, उसे मुलायम सिंह की पटकथा ने मीडिया और खबरों के प्रथम पृष्ठ से हटाकर अंदर ठेल दिया है. पहली बार इतनी बड़ी यात्रा पर गए राहुल गांधी अखबारों में जगह के लिए संघर्ष कर रहे हैं और मुलायम सिंह यादव बिना किसी हलचल के पहली खबर बने हुए हैं.