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कर्नाटक में जो हो रहा है वह ‘ऑपरेशन कमल’ ही है या कुछ और भी?

नीलेश द्विवेदी

यह 2008 की बात है. तब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी पहली बार राज्य में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी. पर उसकी सीटें बहुमत से तीन कम रह गईं. राज्य की 224 सदस्यों वाली विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 113 विधायकों का समर्थन चाहिए था. लेकिन भाजपा को 110 ही मिलीं.

तब भाजपा के एक असरदार नेता, खनन कारोबारी और पूर्व मंत्री जी जनार्दन रेड्‌डी (इन्हें खनन माफ़िया भी कहा जाता है) ने पूरा गुणा-गणित बिठाया. कहते हैं कि रेड्‌डी के रुतबे, रसूख़ और रुपए की ताक़त ने कांग्रेस के तीन और जेडीएस (जनता दल-सेकुलर) के चार विधायकों को इस्तीफ़ा देने के लिए राज़ी कर लिया. सदन की सदस्य संख्या घटकर 217 रह गई. सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा 209 हो गया, जिससे एक ज़्यादा सीट भाजपा के पास पहले से थी.

सो इस तरह दक्षिण में पहली बार ‘कमल खिला’ और बिना किसी सहयोग के भाजपा सरकार बनी. बाद में इस्तीफ़ा देने वाले सातों विधायकों को भाजपा के टिकट पर उपचुनाव लड़ाया गया. इनमें से पांच फिर जीतकर सदन में लौटे और भाजपा की सदस्य संख्या अब 115 हो गई, जो सामान्य स्थिति में भी बहुमत के लिए पर्याप्त थी. जनार्दन रेड्‌डी की इस पूरी कारग़ुज़ारी को कर्नाटक की राजनीति में ‘ऑपरेशन कमल’ कहा जाता है.

अब ताज़ा हालात पर आते हैं. लगभग वैसी ही स्थिति कर्नाटक विधानसभा में 2018 भी बनी. भाजपा इस बार भी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी मगर सिर्फ़ 104 सीटें जीतकर. यह आंकड़ा बहुमत से कुछ ज़्यादा दूर रह गया. इसके बावज़ूद भाजपा के नेता बीएस येद्दियुरप्पा मुख्यमंत्री बने. दो दिन इस पद पर रहे भी. बताते हैं कि ‘ऑपरेशन कमल’ दोहराने की कोशिश तब भी हुई पर, कांग्रेस और जेडीएस दोनों सतर्क थीं इसलिए ये कोशिश सफल नहीं हुईं. येद्दियुरप्पा को ‘दो दिन के मुख्यमंत्री’ का अनचाहा तमगा लेकर विदा लेनी पड़ी.

लेकिन उस टीस को वे शायद अब तक भुला नहीं पाए हैं. लिहाज़ा जैसी कि बीते दो-तीन दिन से ख़बरें आ रही हैं, अब एक बार फिर वैसी ही कोशिशें हो रही हैं. अलबत्ता इस बार के ‘ऑपरेशन कमल’ के साथ कुछ और पहलू भी नत्थी नज़र आ रहे हैं जिनके बारे जानना दिलचस्प हो सकता है.

इस बार का मामला क्या है?

कर्नाटक में इस बार हलचल तब सामने आई जब 13 जनवरी को कांग्रेस नेता और राज्य के वरिष्ठ मंत्री डीके शिवकुमार ने दावा किया कि मुंबई में ‘तीन कांग्रेसी विधायकों ने भाजपा नेताओं से मुलाकात की है. भाजपा फिर ‘ऑपरेशन कमल’ पर काम कर रही है.’ उन्होंने मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी पर भी आरोप लगाया कि वे ‘भाजपा के प्रति कुछ ज़्यादा उदार हैं. सभी विधायक मुख्यमंत्री को भाजपा की साजिश की जानकारी दे चुके. लेकिन मुख्यमंत्री ‘इंतज़ार करो और देखो’ की नीति अपना रहे हैं.’ यानी शिवकुमार सिर्फ़ भाजपा से परेशान नहीं दिखे बल्कि मुख्यमंत्री के रवैये से भी असहज लगे. जबकि इन्हीं डीके शिवकुमार ने बीते साल कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस-जेडीएस की गठबंधन सरकार में सबसे अहम या कहें कि मुख्य भूमिका निभाई थी.

शिवकुमार के इस आरोप के बाद मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी भी सामने आए लेकिन, वे पूरी तरह आश्वस्त दिखे. हालांकि उन्होंने यह माना कि भाजपा ने उनकी सरकार गिराने की कोशिश फिर शुरू की है. उन्होंने यह भी दावा किया कि भाजपा नेता ‘जगदीश शेट्टार, सीएन अश्वथनारायण और अरविंद लिंबावली उनके विधायकाें को 50 करोड़ रुपए नगद, मंत्री का पद और दोबारा चुनाव लड़ने के लिए 30 करोड़ रुपए देने की पेशकश कर रहे हैं.’ लेकिन साथ में पूरी तसल्ली के साथ यह भी जोड़ा कि भाजपा की कोशिश ‘इस बार भी सफल नहीं होगी. हमारे जो विधायक मुंबई में हैं, वे अपने निजी काम से वहां गए हैं. मुझे बताकर गए हैं.’

इस तरह कुमारस्वामी की बातों से यह ठीक-ठीक समझ नहीं आया कि इस मसले पर उनका रुख़ क्या है. फिर उनका बयान आने के तुरंत बाद ही भाजपा के बीएस येद्दियुरप्पा ने उलट आरोप लगा दिए. उनका कहना था, ‘पहले उन्होंने (जेडीएस) पैसे और ताकत का इस्तेमाल कर हमारे विधायकों को ख़रीदने की कोशिश की. कलबुर्गी सीट से हमारे एक विधायक को खुद कुमारस्वामी ने मंत्री पद देने की पेशकश की है. लेकिन हमारे सभी विधायक एकजुट हैं.’ इसके बाद तेजी से बदले घटनाक्रम के तहत भाजपा के सभी 104 विधायकाें को गुरुग्राम, हरियाणा के एक होटल में लाकर ठहरा दिया गया. यहां वे अब तक जमे हुए हैं.

इससे एकबारगी लगा कि संभव है, भाजपा विधायकाें पर ही ख़तरा हो. लेकिन जल्द ही यह संभावना सिर के बल खड़ी दिखी जब भाजपा सूत्रों के हवाले से ख़बर आ गईं कि, ‘कांग्रेस के चार विधायक जल्द ही इस्तीफ़ा देने वाले हैं और मकर संक्रांति के बाद राज्य में भाजपा की सरकार बन सकती है.’ फिर मकर संक्रांति के दिन दो निर्दलीय विधायकों- एच नागेश और आर शंकर ने कुमारस्वामी सरकार से समर्थन वापसी का ऐलान भी कर दिया. हालांकि कहा यह भी जा रहा है कि आर शंकर अब भी भाजपा-कांग्रेस के बीच झूल रहे हैं. लेकिन भाजपा के वरिष्ठ विधायक उमेश कट्‌टी का दावा है कि कांग्रेस के 15 विधायक उनके संपर्क में हैं और वे किसी भी वक़्त इस्तीफ़ा दे सकते हैं.’

इस सबकी जड़ में क्या है?

यानी एक बात बहुत स्पष्ट है कि कर्नाटक में इस वक़्त सरकार गिराने-बचाने-बनाने का खेल खुलकर खेला जा रहा है. इसमें तीनों प्रमुख पार्टियां- भाजपा, कांग्रेस और जेडीएस शामिल मानी जा सकती हैं. सो, ऐसे में यह सवाल भी हो सकता है कि जब लोक सभा चुनाव को महज़ तीन महीने बचे हैं तो अचानक ऐसा क्या हुआ कि ये पार्टियां अपनी अगली तैयारी छोड़कर इस खेल में उलझ गईं?

इसका ज़वाब जानने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. दरअसल, बीते साल जब से जेडीएस-कांग्रेस की सरकार अस्तित्व में आई है तभी से इन दोनों पार्टियों के आपसी संबंध बहुत सहज नहीं हैं. गठबंधन में कांग्रेस 78 सीटों के साथ बड़ी पार्टी है. लेकिन उसने मुख्यमंत्री पद 37 सदस्यों वाली जेडीएस को दे रखा है. तिस पर दोनों पार्टियों की समन्वय समिति के मुखिया कांग्रेस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हैं, जिनके एचडी कुमारस्वामी और उनके पिता से संबंध अब तक सहज नहीं हो पाए हैं. यानी इन दलों का गठबंधन अब भी ‘सहज और स्वाभाविक’ नहीं हो पाया है.

जानकारों के मुताबिक इसके दो उदाहरण हैं. पहला अभी एक महीने पहले ही राज्य मंत्रिमंडल के विस्तार में सिद्धारमैया ने कुमारस्वामी सरकार पर दबाव डालकर अपने समर्थक एमबी पाटिल को गृह मंत्री बनवा दिया. पहले यह मंत्रालय उपमुख्यमंत्री जी परमेश्वरा के पास था, जो ख़ुद सिद्धारमैया के प्रतिद्वंद्वी माने जाते हैं. यही नहीं, अभी दो दिन पहले ही सिद्धारमैया ने मौज़ूदा राजनीतिक हालात का फ़ायदा उठाकर अपने एक अन्य समर्थक कांग्रेसी विधायक वी मुनियप्पा को मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी का राजनैतिक सलाहकार बनवा दिया है. संभवत: यही वे स्थितियां भी हैं जिनके चलते कुमारस्वामी के बड़े भाई और राज्य सरकार में वरिष्ठ मंत्री एचडी रेवन्ना ने चेताया भी था. उन्होंने पिछले महीने कहा था, ‘कुमारस्वामी तभी तक इन चीजों काे बर्दाश्त करेंगे, जब तक कर पाएंगे.’

दूसरी तरफ कांग्रेस के भीतर ही डीके शिवकुमार और जरकीहोली (रमेश और सतीश) भाइयों का आपसी टकराव है. दोनों भाई उत्तर कर्नाटक के बेलगावी जिले के कद्दावर नेता हैं. जबकि शिवकुमार इस जिले के प्रभारी मंत्री होने के नाते यहां अपना असर बढ़ा रहे हैं. यही इनके टकराव का कारण है. तिस पर दोनों भाई मंत्री पद भी चाहते थे. लेकिन इनमें पहले बड़े भाई रमेश को मंत्री बनाया गया तो सतीश को छोड़ दिया गया. बाद में दिसंबर में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में रमेश को हटाकर सतीश को मंत्री बना दिया गया. सो अब नाराज़ रमेश ख़ुद कांग्रेस छोड़ने के मूड में तो हैं ही, भाजपा के साथ मिलकर अपने समर्थक विधायकों को भी इस्तीफ़ा देने के लिए राज़ी करने में लगे हैं. वहीं डीके शिवकुमार यह खेल बिगाड़ने की कोशिश में लगे हैं. इसके पीछे उनका अपना गणित है.

इसके अलावा लोक सभा चुनाव में सीट बंटवारे का मसला भी है. राज्य की 28 सीटों में से जेडीएस कम से कम 12 सीटों पर अपनी दावेदारी जता रही है. लेकिन कांग्रेस उसे चार या अधिक से अधिक छह सीटें देने के मूड में है. यह भी एक पहलू है जो मौज़ूदा सियासी उठापटक और उसमें भी मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की ‘निश्चिंतता’ में अपनी भूमिका निभा रहा है.

इस उठापटक से कौन-क्या हासिल करना चाहता है?

यानी ज़ाहिर तौर पर इस सियासी उठापटक में सबके अपने-अपने मतलब हैं. तीनों पार्टियां, उनके नेताओं के निजी हित और आगामी लाेक सभा चुनाव की रणनीति भी. इनमें सबसे पहले कांग्रेस की बात. पिछले साल कांग्रेस ने अपने से आधे से भी कम सीटों वाली जेडीएस को मुख्यमंत्री पद सौंप दिया था. ताकि भाजपा को सत्ता से बाहर रखा जा सके और लोक सभा चुनाव के लिए एक साझीदार जुटाकर उसे चुनौती दी जा सके. तब डीके शिवकुमार ने कांग्रेस का यह मंसूबा पूरा करने में मुख्य भूमिका निभाई थी क्योंकि वे ख़ुद मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री बनना चाहते थे. हालांकि बने नहीं पर उनके लिए संभावनाएं ख़त्म नहीं हुई हैं. चूंकि कांग्रेस लोक सभा चुनाव तक तो जेडीएस को साथ रखने के मूड में दिख ही रही है, इसलिए वह शिवकुमार की मदद से सरकार बचाने में जुटी है. शिवकुमार भी इस तरह अपनी स्थिति मज़बूत करने में लगे हैं.

वहीं जेडीएस एक मौकापरस्त पार्टी की तरह व्यवहार करती दिख रही है. जेडीएस नेता कुमारस्वामी पहले भी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने के इच्छुक नहीं थे. लेकिन उन्हें पिता एचडी देवेगौड़ा के दबाव के आगे झुकना पड़ा. पर उनकी नरमदिली भाजपा की तरफ़ अब भी ज़्यादा दिखती है. यह डीके शिवकुमार के बयान (ऊपर) से भी साफ है. ख़ुद कुमारस्वामी भी कहते हैं, ‘भाजपा के सभी 104 विधायक मेरे मित्र हैं.’ जानकारों की मानें तो अभी जेडीएस के दोनों हाथों में लड्‌डू हैं. अगर सरकार गिरी तो वह सुहानुभूति बटोरने की कोशिश करेगी. कुमारस्वामी पहले भी ख़ुद को कांग्रेस के कुछ नेताओं से पीड़ित की तरह पेश कर चुके हैं. सरकार गिरने पर वे प्रचारित कर सकते हैं कि कांग्रेस और भाजपा ने उन्हें मोहरा बनाकर उनका राजनीतिक शिकार किया. और अगर सरकार बच भी गई तो इस उथल-पुथल के बीच ही वे कांग्रेस से जेडीएस के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोक सभा सीटें हासिल करने की कोशिश कर सकते हैं.

दूसरी तरफ़ भाजपा है. जानकारों की मानें तो इस बार बीएस येद्दियुरप्पा और उनके रणनीतिकार पार्टी नेतृत्व को यह समझाने में सफल हो गए हैं कि कर्नाटक की सरकार गिराना लोक सभा चुनाव के लिहाज़ से फ़ायदेमंद है, इसलिए कोशिश करनी चाहिए. इसके पीछे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच हुए गठबंधन का उदाहरण दिया गया. नेतृत्व को यह बताया गया कि कांग्रेस-जेडीएस अगर कर्नाटक में एक होकर चुनाव लड़ी तो उत्तर प्रदेश की तरह यहां भी भाजपा को मुश्किल हो सकती है. लिहाज़ा कुमारस्वामी सरकार गिराने की कोशिश करनी चाहिए. येद्दियुरप्पा के रणनीतिकारों के मुताबिक इससे दो संभावनाएं बनेंगी. पहली- अगर भाजपा के पक्ष में समर्थन जुट गया तो वह सरकार बना लेगी. दूसरी समर्थन नहीं भी जुटा तो राज्य में विधानसभा चुनाव की स्थिति निर्मित हो जाएगी. वह भी भाजपा के लिए फ़ायदे की स्थिति होगी.

सो अब देखने वाली बात होगी कि आने कुछ दिनों में किसके समीकरण, किस तरह, किसे नफ़ा-नुकसान देकर जाते हैं.