www.puriduniya.com नई दिल्ली। भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर रविवार को एक सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में भावुक हो गए और ‘मुकदमों की भारी बाढ़’ से निपटने के लिए जजों की संख्या को मौजूदा 21 हजार से 40 हजार किए जाने की दिशा में सरकार की ‘निष्क्रियता’ पर अफसोस जताते हुए कहा, ‘आप सारा बोझ न्यायपालिका पर नहीं डाल सकते।’
विधि मंत्रालय की ओर से तय किए गए कार्यक्रम के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी को इस सम्मेलन में बोलना नहीं था, लेकिन इसके बाद भी मोदी ने कहा, ‘मैं उनका (सीजेआई का) दर्द समझ सकता हूं क्योंकि 1987 के बाद से अब तक काफी वक्त बीत चुका है। चाहे जो भी मजबूरियां रहीं हो, लेकिन कभी नहीं से बेहतर है कि ये कुछ देर से ही हो। हम भविष्य में बेहतर करेंगे। आइए देखें कि अतीत के बोझ को कम करने के लिए कैसे आगे बढ़ा जा सकता है।’
उन्होंने कहा कि यदि संवैधानिक सीमाएं कोई समस्या पैदा नहीं करें तो शीर्ष मंत्री और उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ जज बंद कमरे में एक साथ बैठकर इस मुद्दे पर कोई समाधान निकाल सकते हैं। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि यह तय करना सभी की जिम्मेदारी है कि आम आदमी का न्यायपालिका में भरोसा बना रहे और उनकी सरकार जिम्मेदारी को पूरा करेगी तथा आम आदमी की जिंदगी को सुगम बनाने में मदद करने से पीछे नहीं हटेगी। सीजेआई की ओर से उठाए गए मुद्दों पर मोदी ने कहा, ‘जब जागो तब सवेरा।’
न्यायमूर्ति ठाकुर ने कहा कि विधि आयोग की सिफारिशों के बाद उच्चतम न्यायालय ने 2002 में न्यायपालिका की संख्या में वृद्धि का समर्थन किया था। प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली विधि विभाग संबंधी संसद की एक स्थायी समिति ने भी जजों की संख्या और आबादी के अनुपात को 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी।
इस समय लोगों और जजों के अनुपात की बात करें तो यह प्रति दस लाख लोगों पर 15 है जो कि अमेरिका, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और कनाडा से काफी कम है। सीजेआई ने धन के आवंटन, बुनियादी संरचना और अन्य मुद्दों पर केंद्र एवं राज्यों के बीच चलने वाली ‘रस्साकशी’ का भी जिक्र किया। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि केंद्र सरकार कहती है कि वह न्यायपालिका की मदद के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन न्यायपालिका की बुनियादी संरचना में सुधार लाना और जजों एवं अन्य कर्मियों की संख्या बढ़ाना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है।
उन्होंने कहा कि राज्य सरकारें चाहती हैं कि केंद्र सरकार इसके लिए धन आवंटित करे।
सीजेआई ने कहा, ‘ये रस्साकशी चलती रहती है, लेकिन जजों की संख्या जस की तस बनी हुई है…पांच करोड़ मामलों की सुनवाई हुई और दो करोड़ निपटाए गए। लेकिन जजों के काम करने की क्षमता की एक सीमा है।’ लंबित मुकदमों के अंबार के कारण बार-बार सुनवाइयों के टलने और मुकदमा लड़ने का खर्च बढ़ते चले जाने के कारण अदालतों को काफी आलोचना का सामना करना पड़ता है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘1987 में 40 हजार जजों की जरूरत थी। 1987 से लेकर आज तक आबादी में 25 करोड़ लोग जुड़ गए हैं। हम दुनिया की सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गए हैं। हम देश में विदेशी निवेश आमंत्रित कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि लोग भारत आएं और ‘मेक इन इंडिया’ को अपनायें। हम चाहते हैं कि लोग भारत में आकर निवेश करें।’
उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति ठाकुर ने मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ और ‘कारोबार करने में सहूलियत’ मुहिमों का जिक्र करते हुए कहा, ‘जिन्हें हम आमंत्रित कर रहे हैं वे भी इस प्रकार के निवेशों से पैदा होने वाले मामलों और विवादों से निपटने में देश की न्यायिक व्यवस्था की क्षमता के बारे में चिंतित हैं। न्यायिक व्यवस्था की दक्षता महत्वपूर्ण रूप से विकास से जुड़ी हुई है।’
प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर ऐसे ही एक सम्मेलन में भाग लेने की घटना को याद करते हुए कहा कि उन्होंने उस वक्त अदालतों में छुट्टियां कम करने, सुबह और शाम के समय अदालतें लगाने का सुझाव दिया था लेकिन सम्मेलन में भोजनावकाश के दौरान कुछ जजों ने उनके इस विचार पर सवाल उठा दिए थे। न्यायमूर्ति ठाकुर ने कहा कि भारत में एक मुंसिफ से लेकर उच्चतम न्यायालय तक के एक जज तक हर साल औसतन 2600 मामले निपटाए जाते हैं जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा प्रति वर्ष 81 का है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘नई बोतल में पुरानी शराब डालने से मकसद हल नहीं होगा।’ उन्होंने कहा कि हो सकता है उनकी ओर से की गई ‘भावुक’ अपील काम कर जाए और सरकार न्यायपालिका के समक्ष पेश आ रही समस्याओं का संज्ञान ले। आंकड़े पेश करते हुए न्यायमूर्ति ठाकुर ने बताया कि 1950 में जब उच्चतम न्यायालय अस्तित्व में आया था तो इस शीर्ष अदालत में सीजेआई समेत आठ जज थे और 1215 मामले लंबित थे। उस समय प्रति जज 100 मामले लंबित थे।
उन्होंने कहा कि 1960 में जजों की संख्या 14 हो गई और लंबित मामले बढ़कर 3,247 हो गए। साल 1977 में जजों की संख्या 18 और मामलों की संख्या 14,501 हो गई। साल 2009 आते-आते शीर्ष अदालत में जजों की संख्या 31 हुई और लंबित मामले 77,181 हो गए।
सीजेआई ने कहा कि 2014 में मामलों की संख्या 81,582 थी जिसे 60,260 किया गया। दो दिसंबर को जब मैंने सीजेआई का पदभार संभाला तो तब से लेकर अब तक 17,482 मामले दाखिल किए गए जिसमें 16,474 मामले निपटाए गए। लंबित मुकदमों की संख्या में बढ़ोत्तरी का हवाला देते हुए सीजेआई ने कहा कि उच्च न्यायालयों में 38 लाख से ज्यादा मामलों को निपटाना बाकी है और यह संख्या बढ़ती चली जा रही है। कानून मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, अधीनस्थ न्यायपालिका में जजों के स्वीकृत पदों की संख्या 20,214 है जबकि इसमें 4,580 पद खाली हैं। देश के 24 उच्च न्यायालयों में जजों के स्वीकृत पदों की संख्या 1,056 है जबकि इस साल एक मार्च तक इसमें से 458 पद खाली हैं।
उच्चतम न्यायालय में सीजेआई सहित कुल 31 जज होने चाहिए जबकि इसमें छह पद खाली पड़े हैं ।