21 मार्च 1977 को भारत में सबसे ऐतिहासिक चुनावों में से एक का नतीजा आया था. इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का सफाया हो गया था. चुनावों में जीतकर जनता पार्टी की सरकार बनी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. इंदिरा भी हार गईं, संजय गांधी भी हार गए. उस दौर में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह गाय और बछड़ा हुआ करता था. नारा लगा गैया भी हारी, हां भैया! बछड़ा भी हारा, हां भैया!
1971 की लड़ाई जीतकर जो इंदिरा गांधी देश की नेता, दुर्गा, इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा थीं वो इमरजेंसी के बाद सत्ता से बाहर हो गईं. हालांकि ये दूरी ज्यादा समय तक नहीं चली. जनता पार्टी के टुकड़े हजार हो गए. समाजवाद के तमाम सोशलिस्ट सोल्जर जाति की राजनीति के क्षेत्रीय क्षत्रप बन गए.
पत्रकारों, नेताओं की एक पूरी पीढ़ी पैदा करने वाले इस चुनाव और आंदोलन से जुड़े कई किस्से हैं. मसलन, इंदिरा गांधी सरकार चुनाव की घोषणा पर विचार कर रही थीं और खबर बड़े रोचक ढंग से बाहर आ गई.
पत्रकार कुलदीप नैयर से किसी पार्टी में एक आईबी अधिकारी ने पूछा कि देश में अगर चुनाव हों तो कौन जीतेगा. कुलदीप नैयर को कुछ अंदेशा हुआ. उन्होंने कांग्रेस नेता कमलनाथ से सीधा सवाल दागा कि चुनाव की तारीख कब है? कमलनाथ बोल बैठे, ‘आपको कैसे पता चला.’ इतना बहुत था. 16 मार्च 1977 को चुनाव हुए. 21 मार्च को जब चुनाव परिणाम आए तो इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद खो चुकी थीं.
इमरजेंसी में सबसे बड़ा खतरा अभिव्यक्ति की आजादी पर लगा. कार्टूनिस्ट शंकर पिल्लई की मैग्ज़ीन शंकर्स वीकली को बंद करवा दिया गया. हालांकि शंकर ने अपने आखिरी अंक में भी सरकार पर कटाक्ष किया. वैसे इस हार के पीछे अभिव्यक्ति की आजादी के साथ-साथ ज़ोर जबरदस्ती नसबंदी करवाने जैसी योजना भी कारक थी. नारा भी लगा था इंदिरा हटाओ, इंद्री बचाओ.
देश में जिस उम्मीद के साथ, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है जैसे नारों के साथ जनता सरकार आई थी, वैसे ही आपसी कलह और अंतरविरोधों के चलते चली भी गई. इंदिरा गांधी अगली बार चिकमंगलूर से चुनाव जीतकर सत्ता में वापस आईं. नारा लगा ‘एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर-चिकमंगलूर’. उसके बाद जो वो सत्ता में आईं तो मरते दम तक बनी रहीं. मगर इमरजेंसी और उसके बाद के इन चुनावों में देश को बड़ा राजनीतिक सबक दिया.