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व्यंग्य सिर्फ लेखन नहीं जिम्मेदारी भी है : अलंकार रस्तोगी

व्यंग्य की दुनिया में अलंकार रस्तोगी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. इनका नाम ही अपने आप में एक मुक़म्मल तआर्रुफ़ है. ये मौजूदा समय के एक जरूरी व्यंग्यकार हैं. इनके व्यंग्य गुदगुदाने के साथ-साथ अंतर्मन में चिकोटी काटकर जाग्रत भी करते हैं. सोचने को मजबूर करते हैं. व्यंग्य को ये सिर्फ लेखन नहीं मानते बल्कि इसे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं. पहले व्यंग्य संग्रह ‘खुदा झूठ न लिखवाए’ के बाद अलंकार का दूसरा संग्रह ‘सभी विकल्प खुले हैं’ भी आ रहा है, जिसका विमोचन लखनऊ के राष्ट्रीय पुस्तक मेले में हो रहा है. इस मौके पर ‘www.puriduniya.com के फीचर संपादक विनायक राजहंस ने उनसे बातचीत की.

alankars-photoसर्वप्रथम तो आपको दूसरे व्यंग्य संग्रह के लिए बधाई ! व्यंग्य में आपने दूसरा सोपान तय कर लिया। ततैयाबर्रैया दूसरी बार पाठकों को काटने को तैयार है. क्या कहना चाहेंगे इस उपलब्धि पर ?

शुक्रिया जी ..! अब व्यंग्य महज लेखन नहीं बल्कि जिम्मेदारी ज्यादा लगने लगा है. शायद विसंगतियों से लड़ने का जज़्बा ही हर बार, हर मुद्दे पर मेरी कलम चलवा देता है. तत्तैया–बर्रैया पाठको को काटेगी नही बल्कि हर उस आक्रोश को प्रकट करेगी जो उनके मन में है. रही बात उपलब्धि की तो मैं सिर्फ अपना साहित्यिक योगदान करता हूँ. यह उपलब्धि बन पायी है या नहीं पाठक बतायंगे.

इस व्यंग्य संकलनसभी विकल्प खुले हैंको लाने के बारे में कब सोचा ?

मेरा पहला ही व्यंग्य संग्रह ‘खुदा झूठ न लिखवाए’ को पाठकों ने बेस्ट सेलर बना दिया. लगातार पाठकों की प्रतिक्रियायें यही बता रही थी कि उन्हें मेरे अगले व्यंग्य संग्रह का बेसब्री से इंतज़ार था. और फिर पहली किताब हिट हो जाये तो हौसले भी बुलंद हो जाते हैं.

आपकी पहली किताबखुदा झूठ लिखवाएकाफी चर्चित रही है, व्यंग्य जगत में उसकी अपनी एक अलग और अहम् जगह है. जाहिर है इस नयी किताब में भी हमें कुछ वैसा ही पढ़ने को मिलेगा. पहली किताब से यह किताब कितनी अलग है या क्या ख़ास है इसमें

मेरी पहली किताब जैसा की मैंने अभी बताया किबेस्ट सेलर रही थी . इस किताब में मैंने अपने सर्वकालिक ऐसे व्यंग्यों का संग्रह किया है जो चर्चित रहे हैं . यह किताब इस मायने में अलग है कि इसे पाठक आसानी से कैश ओन डिलीवरी पर ऑनलाइन बुक करा सकता है. इसका मूल्य भी काफी कम रखा गया है ताकि अधिक से अधिक लोग इसे पढ़ सके. आगे चलकर इसकी ई-बुक लाने का भी प्रस्ताव है.

रूमानी मिज़ाज़ के लोग अक्सर कहते हैं– ‘जाम हैशाम है और ख्वाहिशें भी……. ‘, कुछ ऐसा ही नज़ारा बन रहा है आपके संग्रह विमोचन का. पुस्तकों का मेला हैलेखकों का रेला है…. शाम भी है और ख्वाहिश तो खैर है ही. ऐसे में विमोचन कराने का अलग ही सुख है. इसकी कल्पना आपको कितना प्रफुल्लित कर रही है ?

बहुत ज्यादा! बौद्धिकता के इस कुंभ में अगर मुझे विमोचन रुपी डुबकी लगाने का मौका मिला है तो अच्छा लगाना स्वाभाविक है. सबसे बड़ी बात तो यह कि इसमें मेरे प्रकाशक का स्टाल भी लगा है जहां से पाठक इस किताब को भारी छूट पर पा सकते हैं.

इधर व्यंग्यों की बाढ़ सी गई है, तमाम नएकथित व्यंग्यकारनमूदार हो गए हैं जो व्यंग्य के मूल को समझते तक नहीं, कुछ भी लिखते रहते हैं. अखबार या पत्रिकाओं को जरूरत है, इसलिए लिखते हैं. इनसे कितना नुक्सान हो रहा है व्यंग्य को ?

व्यंग्य आज सबसे अधिक पढ़ा जाता है. लगभग हर समाचार पत्र और पत्रिकाओं में व्यंग्य का स्तम्भ अनिवार्य सा हो गया है ऐसे में व्यंग्य लेखन में आकर्षण का होना स्वाभाविक है. समस्या यहाँ नहीं है कि नए लोग आ रहे हैं दिक्कत वहां है कि वह बिना व्यंग्य को समझे लिख रहे हैं. लेखन का मूल तत्व अध्ययन में छिपा होता है. व्यंग्य के साथ अपनी एक अलग शैली विकसित करने में होता है. व्यंग्य लेखन में जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए न कि महज किसी सतम्भ के रिक्त स्थान की पूर्ति में. सतही लेखन से व्यंग्य को यही नुकसान होता है कि उसकी गंभीरता में कमी आ जाती है.

व्यंग्य की दुनिया मेंडेब्यूकरते इन नएव्यंग्यकारोंसे क्या कहना चाहेंगे ?

अच्छा शब्द प्रयोग किया आपने ‘डेब्यू’. जैसा आप भी जानते हैं कि जो बल्लेबाज़ टीम में शामिल होता है वह अपने ‘डेब्यू’ मैच से पहले घरेलू मैचों में काफी अभ्यास और ट्रेनिंग कर चुका होता है. साफ़ है अगर आप व्यंग्य जैसी गंभीर विधा चुन रहे हैं तो व्यंग्य के प्रति दृष्टिकोण पैदा करें. विसंगतियों पर पैनी नज़र रखें. विषय चयन में सावधानी बरतें. सामाजिक सरोकार का ख्याल रखें. कालजयी व्यंग्यकारों को पढ़ें. समकालीन परिथितियों में व्यंग्य की मांग के अनुरूप अपनी शैली विकसित करें. किसी बड़े पद पर बैठे लेखक का झोला उठाने के बजाय किसी बड़े कद वाले लेखक की रचनाओं का भार उठायें.

व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य को किस रूप में देखते हैं, क्या आज व्यंग्य अपनी शर्तों के साथ जी रहा है?

व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य को अगर लेखकों का स्वर्ण युग कहा जाए तो गलत नहीं होगा. खूब विसंगतियां हैं, खूब व्यंग्य स्तम्भ हैं, खूब विमर्श हो रहा है, सोशल मीडिया के कारण हर लेखक हर रचना को पढ़ और पढ़वा रहा है. रही बात शर्तों के साथ जीने की तो यह अब इस व्यवसायिक युग में संभव नहीं है. हर मीडिया समूह किसी न किसी प्रतिबद्धता के चलते एक सीमा और शर्तों के सहारे ही चल रहे हैं. ऐसे में अगर कहा जाये कि अब व्यंग्य भी ‘शर्ते लागू हैं’ वाले फार्मूले पर चल रहा है तो गलत नहीं होगा.

दूसरे संग्रह के बाद तीसरे संग्रह के लिए भी विकल्प खुले हैं आपके पास, तो पाठक आपकोहैट्रिकलगाते कब देख पाएंगे ?

लेखन करते समय यह सोच नहीं रहती कि कोई हैट्रिक लगानी है. चूंकि व्यंग्य एक जिम्मेदार लेखन होता है इसलिए उसमें लक्ष्य यही होता है कि व्यंग्य के प्रतिमान के साथ न्याय हो सके. बस अच्छा लेखन करते जाना है बाकी ईश्वर ने चाहा तो आपकी यह इच्छा भी पूरी होगी.