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कर्नाटक चुनाव 2018 : ओवैसी की मदद से किंगमेकर बनने के सपने संजोए देवेगौड़ा

कर्नाटक। त्रिपुरा में चुनाव से कुछ हफ्ते पहले बंगाली मुसलमानों के एक ग्रुप ने असदुद्दीन ओवैसी से मुलाकात कर उनसे राज्य की वैसी सीटों पर चुनाव लड़ने का अनुरोध किया था, जहां मुसलमान वोटरों की ठीक-ठाक संख्या है. जब ओवैसी ने इस बारे में मना कर दिया, तो इन मुसलमानों ने उनसे कम से कम एक सीट पर अपने उम्मीदवार उतारकर अपनी मौजूदगी का अहसास कराने को कहा.

जब इन लोगों को लगा कि ओवैसी उत्तर-पूर्व में अपनी पहुंच नहीं बनाने को लेकर अड़े हैं, तो उन्होंने औवैसी से कम से कम कुछ सार्वजनिक सभाओं को ही संबोधित करने की गुजारिश की. हालांकि, ओवैसी की तरफ से प्रतिक्रिया नकारात्मक रही और उनकी पार्टी मजिलस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) इस चुनाव से बाहर रही.

अगर ओवैसी की पार्टी इस चुनाव में शिरकत करती, तो कांग्रेस और यहां तक कि हार का सामने करने वाली सीपीएम भी ओवैसी पर बीजेपी का एजेंट होने का आरोप लगाती और कहती कि उन्होंने अल्पसंख्यक वोटों को बांटने के लिए ऐसा किया. कांग्रेस ने महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एमआईएम पर इसी तरह से बीजेपी के पक्ष में काम करने का आरोप लगाया था.

कर्नाटक में चुनाव लड़ने को उत्सुक

बहरहाल, ओवैसी अगर किसी राज्य में चुनाव लड़ने को उत्सुक हैं, तो वह कर्नाटक है. चुनाव लड़ने के लिए हैदराबाद-कर्नाटक इलाके की कुछ सीटों पर उनकी निगाह है और शायद बेंगलुरु में भी वह मैदान में उतर सकते हैं.

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हैदराबाद-कर्नाटक इलाके का एक अहम हिस्सा निजाम के शासन के तहत हैदराबाद रियासत का भाग था. यह न सिर्फ बड़ी मुस्लिम आबादी का ठिकाना है, बल्कि यहां कन्नड़ के साथ दक्षिणी उर्दू भी बोली जाती है.

हैदराबाद के सांसद ओवैसी से जुड़े सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस पहले ही कर्नाटक में एमआईएम की चुनावी एंट्री को लेकर घबराई हुई है. उनका दावा है कि ओवैसी को कांग्रेस के करीबी गैर-राजनेताओं के जरिए संदेश भेजे गए और उन्हें कर्नाटक में चुनाव नहीं लड़ने के लिए कहा गया.

हालांकि, कांग्रेस ओवैसी को खारिज करते हुए उन्हें नतीजे प्रभावित नहीं करने वाली ताकत मानती है. पार्टी 2015 के बेंगलुरु नगर निकाय चुनावों का भी हवाला दे रही है, जहां 198 सदस्यों वाले नगर निकाय में एमआईएम एक भी वार्ड में नहीं जीत सकी.

ओवैसी भी इस बात से वाकिफ हैं कि चुनाव लड़ने के उनके फैसले से कांग्रेस भड़केगी और उन्हें बीजेपी का एजेंट बताएगी. ओवैसी और कांग्रेस के बीच रिश्ते काफी तल्ख हो चुके हैं. दरअसल, सिद्धारमैया सरकार ने कई मौकों पर एमआईएम के इस नेता को कर्नाटक में सार्वजनिक सभाओं को संबोधित करने की इजाजत नहीं दी.

देवगौड़ा की अगुवाई में महागठबंधन का हिस्सा बनने को इच्छुक

ओवैसी का पहली योजना देवगौड़ा की अगुवाई वाले जेडी(एस)-बीएसपी-एनसीपी गठबंधन का हिस्सा बनने की है. इस गठबंधन ने कर्नाटक में मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. जेडी(एस) ने बीएसपी को चुनाव लड़ने के लिए 20 सीटें दी हैं, जबकि 7 सीटें बेलगावी जिले में शरद पवार की पार्टी को दी जाएंगी, जहां मराठीभाषी लोगों की अच्छी संख्या है.

जेडी(एस) नेतृत्व और ओवैसी के बीच शुरुआती बातचीत पहले ही हो चुकी है और गेंद अब देवगौड़ा के पाले में है. खबर है कि ओवैसी ने उनसे कहा है कि ऐसा चुनाव जो जाति और सांप्रदायिक आधार पर लड़ा जा रहा है, उसमें गठबंधन को एक ऐसे मजबूत मुसलमान नेता की जरूरत है, जो अच्छा वक्ता हो. ज़मीर अहमद की विदाई के बाद जेडी(एस) में वैसे मुसलमान नेता काफी कम हैं, जिनके पास समर्थकों की अच्छी-खासी तादाद हो.

ऐसे में अपनी भाषण कला की ताकत के साथ ओवैसी कर्नाटक में तीसरे मोर्चे के लिए कारगर हो सकते हैं. चूंकि कांग्रेस गुजरात की तरह इस राज्य में भी मंदिरों की दौड़ में शामिल है और सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर है, लिहाजा जेडी(एस) को लगता है कि अगर वह सही उम्मीदवार पेश करती है, तो उसका गठबंधन मुस्लिम वोट को अपनी तरफ खींच सकता है. हालांकि, मजबूत मुस्लिम चेहरे के अभाव में कर्नाटक का पूरा 13 फीसदी मुसलमान वोट कांग्रेस को जा सकता है. वोटों का यह हिस्सा सिद्धारमैया के अहिंडा नारे का अहम आधार है, जिसका मकसद पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को अपने पाले में करना है.

दुविधा में देवगौड़ा

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पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा भी मानते हैं कि ओवैसी से उनके गठबंधन को फायदा होगा. सूत्रों के मुताबिक, हालांकि वह ओवैसी के आक्रामक तेवर और हिंदू वोटों पर इसके संभावित असर को लेकर चिंतित हैं. हैदराबाद के सांसद ओवैसी ने इस बारे में अंतिम फैसला पिता-पुत्र, गौड़ा और एच. डी. कुमारस्वामी पर छोड़ दिया है. गौड़ा का मुख्य मकसद मिली-जुली कर्नाटक विधानसभा में किंगमेकर की तरह उभरना है.

इसी वजह से वह ओवैसी पर फैसला लेने में वक्त लगा रहे हैं. देवगौड़ा की तरफ से मौका नहीं मिलने की हालत में ओवैसी की योजना खुद से कुछ सीटों पर चुनाव लड़ने की भी है.

जेडी(एस) की ताकत सिर्फ पुराने मैसूर बेल्ट में है. अतीत में यह हैदराबाद-कर्नाटक इलाके में कुछ सीटें जीत चुकी है, लेकिन यह निजी उम्मीदवारों की लोकप्रियता और ताकत का मामला ज्यादा था. इनमें से कई विधायक अब अपना पाला बदल चुके हैं. ऐसी स्थिति में जोखिम के बावजूद गौड़ा के लिए ओवैसी बेहतर दांव हो सकते हैं.