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कर्नाटक चुनाव: बीजेपी का फैसला 2019 में कहीं ज्यादा फायदा दे सकता है

स्रीमोय तालुकदार

बीजेपी भले ही कर्नाटक में सरकार बनाने और दक्षिण का दरवाजा खोलने की अपनी कोशिश में नाकाम हो गई है, फिर भी एक बात है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि शनिवार को जो कुछ हुआ वह पार्टी की अल्पकालिक और दीर्घकालिक तैयारियों के लिए बहुत अच्छा है. ऐसा नहीं है कि कांग्रेस-जेडी(एस) के हाथों में किनारे लगा दी गई बीजेपी खुश होगी. निश्चित रूप से बहुमत से सिर्फ आठ सीट कम रह जाने की खीज तो होगी ही. धुआंधार कोशिशों के बाद भी नंबर जुटाने में नाकाम रह जाने पर वह भन्नाई होगी, और ‘एमएलए शॉपिंग’ के आरोप से चिंतित भी होगी, जो कुछ लोगों की नजर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वच्छ छवि पर धब्बा हो सकती है.

तो क्या बीजेपी दावा नहीं करके फायदे में रही?

मेरा तर्क यह है कि प्रेस में तीखी आलोचना, कड़वाहट, जोश पर पानी फिर जाने और विपक्ष की एकजुटता का मौका दे देने के खतरे के बीच बीएस येदियुरप्पा का दूसरों के लिए मैदान छोड़ देना पूरी तरह सही कदम था. इस मामले में मत विभाजन से पीछे हट जाने पर बीजेपी को सिवा इसके कि वह ‘ऊंचे नैतिक मानदंडों’ का हवाला दे सकती है, बहुत साफ नहीं है कि उसे क्या फायदा हुआ.

इसके उलट, तीन कोणीय मुकाबले में बड़े अंतर से सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी सरकार बनाने के लिए आगे नहीं बढ़ने से पार्टी की राज्य इकाई के अस्थिर हो जाने का खतरा भी है.

लेकिन इससे पहले कि इस मुद्दे पर विचार करें, यह देख लें कि कर्नाटक के नतीजों ने राष्ट्रीय राजनीति के अखाड़े को किस तरह बदल दिया है. इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि इससे विपक्ष को संजीवनी मिल गई है. चुनाव अभियान में पिछड़ जाने के बाद कांग्रेस ने चुनाव-बाद गठबंधन बनाने में जबरदस्त फुर्ती और रफ्तार दिखाई- वह तेवर जो अभी तक गायब थे. इसने एक ऐसे क्षेत्रीय पार्टनर को मुख्यमंत्री पद देने का लचीलापन दिखाया, जिसकी सीटें इसके मुकाबले आधे से भी कम थीं.

कांग्रेस को हुए हैं ये पांच फायदे

कांग्रेस को साफ तौर पर इसके पांच फायदे हैं. पहला, यह एक बड़े राज्य में (भले ही गठबंधन करके) सत्ता पर काबिज है, जो कि चुनाव में फंड जुटाने के लिए जरूरी है. दूसरा, इसने अपने कुनबे को एकजुट रखने में जुझारूपन का प्रदर्शन किया. यह अलग बात है कि इसे अपने विधायकों की ईमानदारी पर बहुत कम भरोसा था. खबरें हैं कि कांग्रेस विधायकों को बुधवार को शपथ ग्रहण से पहले घर नहीं जाने दिया गया. तीसरा, जेडी (एस) के एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री (बशर्ते कि वो बहुमत साबित कर देते हैं) बनाने के बाद विपक्ष के पास अब एक ‘कर्नाटक मॉडल’ है, जिसकी अन्य राज्यों में भी नकल की जा सकती है. चौथा, कांग्रेस ने शायद मान लिया है कि इसका एकछत्र राज खत्म हो चुका है और इसको क्षेत्रीय शक्तियों का पिछलग्गू बनकर रहना होगा. पांचवां, शनिवार की नाटकीय घटनाओं से पहले सामने आए घूस देने के आरोप कांग्रेस को अगले चुनाव में बीजेपी को घेरने के लिए पर्याप्त मसाला मुहैया कराएंगे.

हालांकि अभी यह देखना बाकी है कि कहीं इन फायदों पर कांग्रेस और जेडी(एस) के बीच हुए मजबूरी के गठजोड़ की खींचतान में पानी ना फिर जाए.

मौकापरस्त गठजोड़ के अपने खतरे

इसकी वजह यह है कि एकजुटता की सारी कवायद के बावजूद यह दो विपरीत ध्रुवों का मेल है, जिसमें जमीनी कार्यकर्ताओं और समर्थकों का साथ नहीं है, जो कि उन जगहों पर जहां बीजेपी का खास असर नहीं था, कट्टर दुश्मनों की तरह लड़े थे. चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जेडी (एस) को बीजेपी की ‘बी टीम’ कहा था और इसको ‘जनता दल संघ परिवार’ बताया था, जिसमें पार्टी के नाम में ‘एस’ जिसका फुल फॉर्म सेकुलर है, को बिगाड़ कर इस्तेमाल किया गया था.

कांग्रेस अध्यक्ष ने देवनाहल्ली में एक रैली में कहा था कि, ‘उनके (जेडी एस) नाम में एक एस है, जिसका मतलब है सेकुलर. लेकिन इस चुनाव में ऐसा लगता है कि जनता दल ने अपना नाम बदल लिया है और अब जनता दल (एस) का मतलब जनता दल संघ परिवार हो गया है.’

कोई अचंभे की बात नहीं कि चुनाव बाद फौरन राहुल गांधी ने जेडी (एस) की ‘सेकुलर’ विशेषताएं ढूंढ लीं. हालांकि ऐसे मौकापरस्त गठजोड़ में अंतर्निहित विरोधाभासों की अनदेखी की गई है, जिनके कारण गठबंधन अपने ही बोझ से टूट सकता है. ‘नरेंद्र मोदी की तानाशाही के खिलाफ क्षेत्रीय नेताओं के साथ साझा लड़ाई’ के पक्ष में दी गई हर सफाई के साथ कांग्रेस अपनी बनावट में एक सामंती इकाई है, जिसका संचालन लुटियन जोन के एक बंगले से एक खानदान की छत्रछाया में होता है.

इस बात पर ध्यान दीजिए कि हालांकि कांग्रेस बीजेपी को सत्ता से दूर रखने और खुद सत्ता में बने रहने के लिए जेडी(एस) से गठबंधन करने में सबकुछ छोड़ने को तैयार है, फिर भी सीएम बनने जा रहे एचडी कुमारस्वामी को गठबंधन के लिए गांधी परिवार से मशविरा करने नई दिल्ली ही आना पड़ता है. दक्षिण भारत के वरिष्ठ नेता कुमारस्वामी इस बात के लिए शुक्रगुजार होंगे कि गांधी परिवार ने उन्हें मिलने का मौका दिया.

कांग्रेस की कर्नाटक इकाई जेडी(एस) के साथ सत्ता की साझीदारी करके खुश नहीं है, लेकिन जैसा कि कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, उनके पास ‘कड़वा घूंट’ पीने के सिवा कोई चारा नहीं है. शिवकुमार वही नेता हैं, जिन्हें कांग्रेस विधायकों को बीजेपी की पहुंच से दूर रखने की योजना का श्रेय दिया जा रहा है. वह गठबंधन सरकार में ज्यादा सीटों की उम्मीद कर रहे हैं, क्योंकि उनकी पार्टी के पास ज्यादा सीटें हैं. याद रखिए कि अभी बातचीत शुरू भी नहीं हुई है.

विधायकों को अभी भी बरगलाया जा सकता है. सबसे गंभीर बात यह कि कांग्रेस और जेडी(एस) के मतदाताओं में बहुत एकरूपता नहीं है. दोनों ही पार्टियां पुराने मैसुरू रीजन में मजबूत हैं. ये प्रतिद्वंद्वी सामाजिक वर्गों की नुमाइंदगी करती हैं. एक दूसरे के विरोध से ही ताकत हासिल करती हैं, चुनाव के दौरान दक्षिण में दोनों के बीच सीधी लड़ाई हुई और बीजेपी हाशिये पर ही रही. कुमारस्वामी दबंग जमींदार वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं, जो हमेशा से राज्य की राजनीति में हावी रहे हैं, जबकि कांग्रेस का दलित और अन्य पिछड़ी जातियों में मजबूत आधार है.

जैसा कि वेंकटेशा बाबू हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं, एससी/एसटी और ओबीसी ‘दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में वोक्कालिगा के हाथों उत्पीड़ित महसूस करते हैं. कांग्रेस और जेडी(एस) का आधार एक दूसरे के प्रतिकूल है. अगर कांग्रेस और जेडी(एस) एक दूसरे से गठबंधन करते हैं तो वो बीजेपी के लिए इस क्षेत्र में पकड़ बनाने को मैदान खाली छोड़ देंगे, जिसके लिए वह दशकों से नाकाम कोशिश कर रही है. जमीनी राजनीति हवा में नहीं चलती और किसी पार्टी की राष्ट्रीय मजबूरियों की बंधक भी नहीं होती.’

दूसरी तरफ राज्य में सबसे कद्दावर लिंगायत नेता येदियुरप्पा का सीधा विरोध, और उनके मुख्यमंत्री बनने की राह रोककर कांग्रेस ने 17 फीसद की विशाल आबादी वाले लिंगायत समुदाय समुदाय की नाराजगी मोल ले ली है. यह 2019 के चुनाव में कांग्रेस को भारी पड़ सकता है. लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा देकर कांग्रेस इस चुनाव में बीजेपी के कट्टर वोटबैंक वीरशैव समुदाय को उससे अलग करने में कामयाब हुई थी. यह जातीय बंटवारे की राजनीति बीजेपी के पक्ष में एकजुटता बढ़ाएगी. लिंगायत किनारे लगा दिए जाने को आसानी से हजम नहीं कर पाएंगे और विधानसभा में सत्तर पार के येदियुरप्पा की दुखियारी तस्वीर हमेशा कांग्रेस का पीछा करेगी.

अपने जज्बाती भाषण में येदियुरप्पा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में अपनी तरफ से सभी 28 लोकसभा सीटें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए जीत कर लाने का वादा किया है. जाहिर है भावनाओं के गणित का आकलन कर पाना आसान नहीं है. यही कारण है कि बीजेपी ने सरकार बनाने के लिए दावा करके ठीक किया था. चुनाव अभियान के काफी पहले ही येदियुरप्पा को- जो कि पूर्व में बीजेपी से अलग हो गए थे और अपनी चुनावी संभावनाओं का भट्ठा बिठा दिया था, मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के बाद अगर बीजेपी ने सरकार बनाने का दावा नहीं किया होता तो इसने ना सिर्फ ताकतवर लिंगायत नेता को नाराज कर दिया होता, बल्कि उनके वफादार मतदाताओं में भी विरोध पैदा होता और पार्टी में निचले स्तर पर धड़ेबंदी बढ़ती.

बीजेपी नेतृत्व अब कह सकता है कि इसने कर्नाटक में बेहतर दांव चला, हालांकि यह कामयाब नहीं हुआ. इस कवायद में बीजेपी ने राजनीतिक रूप से ताकतवर समुदाय पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली. आखिर येदियुरप्पा और अमित शाह जानते होंगे कि 2019 के चुनाव से पहले एक महत्वपूर्ण राज्य में कमजोर सरकार चलाने से बेहतर होगा एक मजबूत विपक्ष का नेतृत्व करना. कर्नाटक में सरकार बनाने में दरार उससे भी जल्द दिखने वाली है, जितनी किसी ने उम्मीद की होगी.