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देवशयनी एकादशी: जाने वस्तुओं के त्याग और किन वस्तुओं के ग्रहण से मिलता है अपार लाभ

आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहीं कहीं इस तिथि को पद्मनाभा भी कहा जाता है। इसी दिन से चौमासे का आरम्भ हो जाता है। इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु क्षीर सागर में शयन करते हैं। इस दिन उपवास करके श्री हरि विष्णु की सोना, चांदी, तांबा या पीतल की मूर्ति बनवाकर उसका षोडशोपचार सहित पूजन करके पीताम्बर आदि से विभूषित कर सफेद चादर से ढके गद्दे तकिये वाले पलंग पर उसे शयन कराना चाहिए।

पुराणों में ऐसा भी मत है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मास तक पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को देवशयनी तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी कहते हैं। इन चार माह तक सभी मांगलिक कार्य बंद रहते हैं। व्यक्ति को चाहिए कि इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें।

देवशयनी एकादशी पर इन वस्तुओं का त्याग करें

 

मधुर स्वर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति के लिए तेल का, शत्रु नाश आदि के लिए कड़वे तेल का, सौभाग्य के लिए मीठे तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का त्याग करें।

 

देवशयनी एकादशी पर इन वस्तुओं को ग्रहण करें

 

देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का, वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का, कुरुक्षेत्र आदि के समान फल मिलने के लिए बर्तन में भोजन करने की बजाय पत्र का तथा सर्वपाप क्षय पूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकभुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें। चतुर्मासीय व्रतों में भी कुछ वर्जनाएं हैं। जैसे- पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही भात आदि का भोजन करना, मूली, पटोल एवं बैंगन आदि शाक पात्र खाना त्याग देना चाहिए। इन दिनों अर्थात् इन चार माह में तपस्वी भ्रमण नहीं करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तप कार्य करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है क्योंकि इन चार महीनों में पृथ्वी के सभी तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

 

देवशयनी एकादशी की कथा

 

एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि सतयुग में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। राजा इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है। उनके राज्य में तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इससे चारों ओर त्राहि त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिण्डदान, कथा व्रत आदि सबमें कमी हो गई।

 

दुखी राजा सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया है जिसका दण्ड पूरी प्रजा को मिल रहा है। फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का उपाय खोजने के लिए राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहां वह ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें प्रणाम कर सारी बातें बताईं। उन्होंने ऋषिवर से समस्याओं के समाधान का तरीका पूछा तो ऋषि बोले− राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी भयंकर दण्ड मिलता है।

 

ऋषि अंगिरा ने कहा कि आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी। राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का पूरी निष्ठा के साथ व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और अकाल दूर हुआ तथा राज्य में समृद्धि और शांति लौटी इसी के साथ ही धार्मिक कार्य भी पूर्व की भांति आरम्भ हो गये।