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धनतेरस कल: धनतेरस के दिन ही मानवता को अमृत दिया गया था।

दीपावली से जुड़े पांच पर्वों में दूसरा महत्वपूर्ण पर्व है धनतेरस। धनतेरस के दिन भगवान धनवंतरी और मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है और इस दिन खरीदारी और दान-पुण्य करना भी शुभ माना जाता है। इस दिन को धन त्रयोदशी और धन्वंतरि जयंती के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस दिन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के जनक धन्वंतरि देव समुद्र मंथन से प्रकट हुए थे और प्रकट होते समय उनके हाथ में अमृत से भरा कलश था। यही कारण है कि इस दिन बर्तन खरीदे जाते हैं। हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, धन संपदा की देवी मां लक्ष्मी धनतेरस के दिन ही समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुईं थीं इसीलिए ऐसा माना जाता है कि इस दिन सोना-चांदी घर लाने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती है, घर में सुख-शांति, समृद्धि एवं खुशहाली आती है और अच्छा भाग्य भी घर लाते हैं। सोना खरीदने से बुरी शक्तियां और नकारात्मक ऊर्जा घर से दूर होती है। कई परिवार इस दिन सोना-चांदी खरीदकर अपनी सैकड़ों साल पुरानी परंपरा का पालन करते हुए इस दिन दिव्यता एवं धन की देवी लक्ष्मी देवी की पूजा करते हैं।

धनतेरस धन की कामना का पर्व है। इस दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था का पर्व है। अर्थ से अर्थ-व्यवस्था का सम्यक् एवं गुणात्मक संधान। इस दिन घर एवं बाजारों में आशा के दीप सजते हैं, मुद्रा का आदान-प्रदान होता है। मान्यता है कि इस दिन खरीदी गई चीजों में कई गुना वृद्धि हो जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि इस दिन कुछ उपाय करने से घर में धन-धान्य के भंडार भर जाते हैं और मां लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है। तम मिटाती धनतेरस और प्रकाश बांटती लक्ष्मी यानी भारतीय पद्धति के अनुसार प्रत्येक आराधना, उपासना व अर्चना में आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक इन तीनों रूपों का समन्वित व्यवहार होता है। इस तरह इस उत्सव में उपरोक्त तीनों प्रकार से लक्ष्मी की उपासना यानी धन एवं सुख-समृद्धि की कामना की जाती है। इस मान्यतानुसार इस उत्सव में भी सोने, चांदी, सिक्के आदि के रूप में आधिभौतिक लक्ष्मी का आधिदैविक लक्ष्मी से संबंध स्वीकार करके पूजन किया जाता हैं। घरों को दीपमाला आदि से अलंकृत करना इत्यादि कार्य लक्ष्मी के आध्यात्मिक स्वरूप की शोभा को आविर्भूत करने के लिए किए जाते हैं। जब हम धन का ध्यान करते हैं तो सार्वभौमिक आत्मा को अपनी प्रचुरता के लिए धन्यवाद देते हैं।

हम और ज्यादा के लिए भी प्रार्थना करतें हैं ताकि हम और ज्यादा समृद्ध हो सकें यह समृद्धि केवल सोना-चांदी-रूपयों की ही नहीं बल्कि ज्ञान, आनन्द आत्मविश्वास, शांति एवं प्रेम की भी होती है। सोना चांदी केवल एक बाहरी प्रतीक है। दौलत हमारे भीतर है। भीतर में बहुत सारा प्रेम, शांति और आनंद है। इससे ज्यादा दौलत आपको और क्या चाहिए? ज्ञान ही वास्तविक धन है। आपका चरित्र, आपकी शांति और आत्म विश्वास आपकी वास्तविक दौलत है। जब आप ईश्वर के साथ जुड़ कर आगे बढ़ते हो तो इससे बढ़कर कोई और दौलत नहीं है। यह शाही विचार तभी आता है जब आप ईश्वर और उसकी अनंतता के साथ जुड़ जाते हो। जब लहर यह याद रखती है कि वह समुद्र के साथ जुड़ी हुई है और समुद्र का हिस्सा है तो विशाल शक्ति मिलती है। धनतेरस ‘आयुर्वेद’ का दिन भी है, क्योंकि जड़ीबूटियां भी धन हैं। जड़ीबूटियां और पेड़-पौधे भी धन हैं।  ऐसा कहते हैं कि धनतेरस के दिन ही मानवता को अमृत दिया गया था।

भारतीय संस्कृति में धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष जीवन के उद्देश्य रहे हैं। यहां इन्हें प्राप्त करने के लिए हमेशा से प्रयास होते रहे हैं। धनतेरस पर धन के साथ-साथ धर्म को भी यहां महत्त्व दिया गया है और दोनों के बीच समन्वय स्थापित किए जाने की आवश्यकता भी व्यक्त होती रही है लेकिन जब-जब इनके समन्वय के प्रयास कमजोर हुए हैं तब-तब समाज में एक असंतुलन एवं अराजकता का माहौल बना है। शास्त्रों में कहा गया है कि धन की सार्थकता तभी है जब व्यक्ति का जीवन सद्गुणों से युक्त हो। लेकिन हाल के वर्षों में समृद्धि को लेकर हमारे समाज की मानसिकता और मानक बदले हैं। आज समृद्धि का अर्थ सिर्फ आर्थिक सम्पन्नता तक हो गया है। समाज में मानवीय मूल्यों और सद्विचारों को हाशिये पर डाल दिया गया है और येन-केन-प्रकारेण धन कमाना एवं धन की कामना करना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बनता जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या इस प्रवृत्ति के बीज हमारी परंपराओं में रहे हैं या यह बाजार के दबाव का नतीजा है? इस तरह की मानसिकता समाज को कहां ले जाएगी? ये कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिनपर धनतेरस जैसे पवित्र पर्व पर मंथन जरूरी है।