लखनऊ। संसद के बजट सत्र का आखिरी हफ्ता बचा है. इसी सत्र में सरकार को ट्रिपल तलाक विधेयक राज्यसभा में पास कराना था. अभी तक इस बारे में कोई सुगबुगाहट तक नहीं है. हालांकि पहले सरकार की तरफ से संकेत मिले थे कि राज्यसभा की 59 सीटों पर चुनाव के बाद उच्च सदन में बीजेपी की ताकत बढ़ने पर सरकार गैर कांग्रेसी दलों के साथ मिलकर इस विधेयक को पारित कराने की कोशिश करेगी. चुनाव हो गए. राज्यसभा में बीजेपी की 15 सीटें बढ़ गईं. मगर यह विधेयक सरकार की प्राथमिकता सूची में नहीं है.
ट्रिपल तलाक विधेयक का भविष्य अधर में लटकता नजर आ रहा है. सुप्रीम कोर्ट में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील रहे और राज्यसभा में इस मुद्दे पर कांग्रेस के प्रमुख रणनीतिकार कपिल सिब्बल साफ कहते हैं कि कांग्रेस विधेयक को सेलेक्ट कमेटी में भेजे बगैर राज्यसभा में पास नहीं होने देगी. वहीं अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी का कहना है कि सिर्फ ट्रिपल तलाक विधेयक ही क्यों संसद में हंगामें के चलते कई अहम विधेयक लटके पड़े हैं. संसद चले तो सरकार किसी विधेयक के बारे में सोचे. उनके लहजे से लगता है कि ट्रिपल तलाक विधेयक का जिक्र करके सरकार फिलहाल अपने खिलाफ कांग्रेस को और मुखर होने का मौका नहीं देना चाहती. लिहाजा संसद के मौजूदा सत्र में इस विधेयक के पास होने के आसार नहीं लगते.
ट्रिपल तलाक पर आमने-सामने बीजेपी-कांग्रेस
शीतकालीन सत्र में 28 दिसंबर को लोकसभा में तो ट्रिपल तलाक विधेयक आसानी से पास हो गया था. वहां कांग्रेस ने विधेयक को सेलेक्ट कमेटी में भेजने की मांग की थी, लेकिन वो इसपर अड़ी नहीं थी. कांग्रेस के हल्के विरोध के चलते सरकार ने लोकसभा में इसे पास करा लिया था. राज्यसभा में कांग्रेस ने अपना रुख बदला और विधेयक को सेलेक्ट कमेटी में भेजने की मांग पर अड़ गई. सरकार ने कांग्रेस के दबाब के आगे झुकने से साफ इंकार कर दिया.
विधेयक को सेलेक्ट कमेटी में नहीं भेजा. बीजेपी ने कांग्रेस को मुस्लिम महिला विरोधी करार दिया तो विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद को सफाई देनी पड़ी कि कांग्रेस विधेयक के विरोध में नहीं है बल्कि इसमें मुस्लिम महिलाओं के हितों की अनदेखी किए जाने के खिलाफ है.
दरअसल विधेयक के राज्यसभा में लटकने में यही पेंच फंसा है. कांग्रेस सरकार से विधेयक में ट्रिपल तलाक से पीड़ित महिला के पति की सजा के दौरान उसके और उसके बच्चों के भरण पोषण का पुख्ता इंतजाम करने की गारंटी चाहती है. तीन साल की सजा के प्रावधान की वजह से ही विधेयक खटाई में पड़ गया है. इसी के चलते ट्रिपल तलाक के खिलाफ मुहिम चलाने वाले ज्यादातर मुस्लिम महिला संगठन इसके हक में नहीं हैं.
ट्रिपल तलाक के खिलाफ कई साल से देश भर में मुहिम चलाने वाली ऑल इंडिया महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर इस विधेयक को शरीयत और सुप्रीम कोर्ट के फैसले की भावना के खिलाफ मानती हैं. उनका कहना है कि वो तलाक पर किसी भी कानून का समर्थन तभी करेंगी जब वो शरीयत के मुताबिक होगा.
हैदराबाद के संगठन ‘मुस्लिम महिला रिसर्च केंद्र’ की संयोजक असमा जेहरा इस विधेयक को पूरी तरह महिलाओं और बच्चों के हितों के खिलाफ मानती हैं. उनका कहना है कि सरकार ने एक दिवानी मामले को फौजदारी अपराध में बदल कर अच्छा नहीं किया. वहीं तलाकशुदा महिलाओं के हक के लिए लड़ रहीं सामाजिक कार्यकर्ता नाइश हसन भी मौजूदा विधेयक के मौजूदा स्वरूप में पास किए जाने के हक में नहीं है. विधेयक के हक में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन और राष्ट्रीय मुस्लिम महिला मंच के साथ एक-दो संगठन और खड़े हैं.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने विधेयक खिलाफ बड़े पैमाने पर मुस्लिम महिलाओं को सड़कों पर उतार कर विधेयक का समर्थन करने वाली आवाज को काफी हद तक दबा दिया है. बोर्ड महिलाओं से आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से में बड़े पैमाने पर इस विधेयक के खिलाफ प्रदर्शन करा रहा है.
शाह बानो केस में हाथ जला चुकी कांग्रेस, इस बार बड़ी सावधानी से कदम रख रही है. वह एक तरफ जेल वाले प्रावधान में नरमी पर जोर देकर मुस्लिम पुरुषों के पर्ति सहानुभूति दिखा रही है वहीं विधेयक का समर्थन कर मुस्लिम महिलाओं को आकर्षित करने की भी कोशिश कर रही है. बीजेपी मुद्दे को गरम रखकर खुद को मुस्लिम महिलाओं की हितैषी साबित करना चाहती है. सरकार इस पर चुप है कि जब किसी व्यक्ति को तीन साल के लिए जेल भेज दिया जाएगा और उस पर जुर्माना लगा दिया जाएगा तो वह अपनी पत्नी को गुजारा-भत्ता कैसे देगा. इसे संज्ञेय अपराध बनाने का मतलब यह है कि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को वॉरंट की जरूरत नहीं होगी.
मजिस्ट्रेट के बजाय किसी पुलिस अधिकारी को यह विशेषाधिकार क्यों दिया जा रहा है..? इस प्रावधान के दुरुपयोग की संभावना है. क्योंकि इसके तहत कोई भी ऐसा व्यक्ति भी शिकायत दर्ज करा सकता है जिसका पति-पत्नी से कोई लेना-देना न हो.
तलाक-ए-बिदत को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया
सरकार तीन साल जेल के प्रावधान को नरम बनाकर एक रास्ता निकाल सकती है. पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे इस्लामी देशों में सजा एक साल जेल की है. कांग्रेस सरकार से पीड़ित महिलाओं के गुजारा-भत्ता के लिए अलग फंड बनाने की मांग कर रही है. यह काम ममुकिल है. पति की कमाई का एक निश्चित हिस्सा गुजारा-भत्ते के रूप में दिया जा सकता है लेकिन अहम सवाल यह है कि जब व्यक्ति ही जेल चल जाएगा तो उसकी आमदनी कहां से होगी..? सरकार इस बुनियादी सवाल पर गौर करने के बजाय विधेयक को जस का तस पास कराना चाहती है. सरकार के इस रवैये से ट्रिपल तलाक के खिलाफ खड़े मुस्लिम संगठनों को शक होने लगा है कि उनके आंदोलन के बहाने कहीं सरकार देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जमीन तो तैयार नहीं कर रही.
ट्रिपल तलाक के मुद्दे को लेकर बीजेपी की नीयत पर शुरू से ही सवाल उठते रहे हैं. पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया था. पीएम नरेंद्र मोदी ने खुद कई बार इसका जिक्र किया था. उसके बाद मई में सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई 22 अगस्त 2017 को फैसला आया. तलाक-ए-बिदत को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया.
सरकार ने विधेयक संसद में 28 दिसंबर को यानी शीतकालीन सत्र शुरू होने के 13 दिन और कामकाज के 8 दिन बीतने के बाद पेश किया. फिर उसे अचानक याद आया कि इसे जल्द पास करना चाहिए. अपने बहुमत के जरिए उसने इसे लोकसभा में पास करा लिया. सत्र के चार कामकाजी बचे रहने पर सरकार ने कहा कि राज्यसभा को भी यह बिल महज एक बार चर्चा करके पास कर देना चाहिए क्योंकि तलाक के मामले बढ़ रहे हैं.
दरअसल सरकार की इसी जल्दबाजी ने उसकी नीयत पर शक पैदा किया. सरकार चाहती तो शीतकालीन सत्र शुरू होते ही इस विधेयक को संसद में पेश कर सकती थी और दो हफ्ते की डेडलाइन के साथ इसे संसदीय समिति के पास भेजा जा सकता था. इतना वक्त सभी संगठनों और मुस्लिम कानूनों के जानकारों समेत सभी संबंधित पक्षों की राय लेने के लिए काफी होता. फिर बहस करके दोनों सदनों ने भी इसे पास कर दिया जाता. इसके विपरीत सरकार ने हठधर्मिता दिखाई. विधेयक को सेलेक्ट कमेटी में भेजने की मांग पर सरकार को हैरानी नहीं होनी चाहिए. ज्यादातर नए विधेयकों को सेलेक्ट कमेटी में भेजने का परंपरा रही है. लिहाजा सरकार को इस पर खुले दिल से विचार करना चाहिए. सरकार को इस पर संबंधित पक्षों से बात करनी चाहिए.
चुनावी जरूरत के हिसाब से मुद्दा गरम किया जा सके
संसद में विधेयक पेश करते वक्त सरकार ने दावा किया था कि ट्रिपल तलाक पर कानून बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ से दी गई छह महीने की मियाद 22 फरवरी 2018 को पूरी हो रही है. लिहाजा उससे पहले विधेयक पास होना जरूरी है. हालांकि यह फैसला माइनॉरिटी जजमेंट था.
कोर्ट ने ट्रिपल तलाक पर 3:2 के बहुमत वाले जजमेंट पर बैन लगाया था. यह दलील भी दी गई कि महज दो पेज के विधेयक पर ज्यादा चर्चा की गुंजाइश ही नहीं है. तभी लगा था कि सरकार की मंशा एक ठोस कानून बनाने के बजाय जल्दबाजी में कानून लादने की है. ट्रिपल के मामले लगातार सामने आ रहे हैं. इन्हें रोकने के लिए न सरकार गंभीर दिखती है और न ही मुस्लिम संगठन. इतने संवेदनशील मुद्दे पर गंभीरता दिखाने के बजाय दोनों राजनीति कर रहे हैं. अब इसी बात की संभावना ज्यादा लगती है कि विधेयक को लटके रहे ताकि चुनावी जरूरत के हिसाब से मुद्दा गरम किया जा सके.