Breaking News

1993 में SP-BSP ‘तालमेल’ ‘राम लहर’ रोकने को था, क्‍या अब ‘मोदी लहर’ थामने में कामयाब होंगे?

लखनऊ। त्रिपुरा समेत नॉर्थ-ईस्‍ट में जबर्दस्‍त चुनावी सफलता के बाद ‘मोदी लहर’ की परीक्षा आगामी 11 मार्च को होने जा गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनावों में होगी. ऐसा इसलिए क्‍योंकि यूपी की सियासत में धुर विरोधी सपा-बसपा ने 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले जो इन सीटों पर तालमेल किया है, उपचुनाव में उसका लिटमस टेस्ट होगा. इन सीटों पर बसपा ने सपा प्रत्‍याशी को समर्थन देने की घोषणा की है क्‍योंकि यहां पर पार्टी ने किसी प्रत्‍याशी को नहीं उतारा है. बसपा प्रमुख मायावती ने इसे ‘गठबंधन’ नहीं बल्कि वोट-शेयर के लिए तालमेल कहा है और समर्थन देने की बात कही है. साथ ही कार्यकर्ताओं से कहा है कि वे जीतने वाले गैर-बीजेपी उम्मीदवारों के लिए काम करें.

मुलायम सिंह और कांशीराम
वर्ष 1993 में सपा नेता मुलायम सिंह और बसपा नेता कांशीराम ने मिलकर ‘राम लहर’ को रोकने में तो सफलता हासिल कर ली थी लेकिन क्या अब माया व अखिलेश मिलकर मोदी लहर को रोकने में कामयाब होंगे? हालांकि वर्ष 1993 में राम लहर के दौरान जब मुलायम और कांशीराम ने गठबंधन किया था, तब सियासत का रुख अलग था और दोनों चेहरों की चमक भी अलग थी. तब के दौर में मंडल आयोग ने ओबीसी वोटरों को एकजुट किया था और मुलायम सिंह यूपी में उनका निर्विवाद चेहरा थे. इसीलिए यह जातीय गठजोड़ ‘राम लहर’ को रोकने में कामयाब हो गया था.

अखिलेश यादव और मायावती
अखिलेश यादव और मायावती के लिए परिस्थतियां अलग हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में ‘मोदी लहर’ के सामने बसपा का जहां खाता नहीं खुला था, वहीं अखिलेश की पार्टी केवल परिवार की सीटें ही बचाने में कामयाब हो पाई. इसके बाद 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में एक बार फिर मोदी लहर चली और भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला. सपा-बसपा को एक बार फिर करारी हार का सामना करना पड़ा. दोनों परिस्थतियों में अंतर यह भी है कि तब मुलायम-कांशीराम के साथ ओबीसी तबके की उम्मीदें जुड़ी थीं, लेकिन बदलते परिवेश में अखिलेश-मायावती के सामने ओबीसी की उम्मीदें टूटती दिखाई दे रही हैं और दोनों नेता सियासत के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं.

मायावती इस गठबंधन को लेकर हालांकि जल्दबाजी के मूड में नहीं दिखाई दे रही हैं और इस गठबंधन को फिलहाल राज्यसभा चुनाव और लोकसभा उपचुनाव तक ही सीमित रखना चाहती हैं. उन्होंने कहा, “लोकसभा चुनाव से इस गठबंधन का कोई लेना-देना नहीं है. उपचुनाव में बीजेपी को रोकने के लिए सपा ने बसपा और बसपा ने सपा को समर्थन देने का फैसला किया है.” हालांकि सपा-बसपा के बीच उपचुनाव में गठबंधन की अटकलें काफी लंबे समय से चल रही थीं और रविवार को इसकी घोषणा बसपा की ओर से की गई.

सपा-बसपा की साझी रणनीति
हालांकि इसमें दिलचस्प पहलू यह है कि कांग्रेस इस गठबंधन से बाहर है. लेकिन कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि अंत में कांग्रेस भी इस गठबंधन के साथ जुड़ सकती है. सपा के सूत्र बताते हैं कि इस गठबंधन के पीछे हालांकि राज्यसभा और विधान परिषद सीटों पर होने वाले चुनाव को लेकर सपा-बसपा की साझी रणनीति भी है. सपा ने बसपा को राज्यसभा चुनाव में समर्थन देने और इसके बदले बसपा ने विधान परिषद चुनाव में बसपा को समर्थन देने का समझौता किया है.

गठबंधन को लेकर सपा के राष्‍ट्रीय उपाध्यक्ष किरणमय नंदा ने कहा, “सपा और बसपा के एक होने से गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में सांप्रदायिक ताकतें पराजित होंगी. बीजेपी दोनों उपचुनाव हारने जा रही है. फूलपुर चुनाव लोकसभा चुनाव 2019 की दशा और दिशा तय करेगा.”

बीजेपी का दांव
हालांकि यूपी और केंद्र की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी ने इन खतरों से निपटने की तैयारी कर ली है. गोरखपुर में जहां मुख्यमंत्री योगी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, वहीं फूलपुर उपचुनाव में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने पार्टी की जीत के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उपचुनाव को लेकर हुए इस गठबंधन को सिरे से खारिज किया है. भाजपा के प्रदेश महासचिव विजय बहादुर पाठक ने कहा, “यह एक बेमेल और स्वार्थ में किया गया गठबंधन है. जनता इसको ज्यादा तवज्जो नहीं देगी. भाजपा पॉलिटिक्स ऑफ परफार्मेंस की बात करती है, जबकि ये लोग स्वार्थ की बात कर रहे हैं. जनता इनसे जवाब मांग रही है कि आखिर वो भाजपा को वोट क्यों न दें. इसका जवाब इनके पास नहीं है.”