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1989 का वह आम चुनाव कई मायनों में इस बार के चुनाव जैसा ही था

अनुराग भारद्वाज

आम चुनाव में अब ज़्यादा समय नहीं बचा है. आश्चर्यजनक रूप से इसमें मुद्दे और हालात वही दिख रहे हैं जो 30 साल पहले हुए चुनाव में थे. 1989 में हुआ आम चुनाव भारतीय राजनीति के इतिहास ख़ास मुक़ाम रखता है. यहां से राजनीति हमेशा के लिए एक अलग राह पर चल पड़ी थी और आज भी यह उसी राह पर सफ़र कर रही है. आइये, 1989 के चुनाव के मुद्दों और हालात पर बात करते हैं.

रक्षा सौदों में गड़बड़ियां

जैसे ही वीपी सिंह को मंत्रिमंडल से बाहर किया गया उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी. इससे उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त हो गई. उन्होंने बाहर निकलते ही भारतीय सेना के लिए ख़रीदी गईं बोफोर्स तोपों की ख़रीद में धांधली का आरोप लगाया. कहा गया कि राजीव गांधी और उनके करीबियों को 64 करोड़ की दलाली खिलाई गई है और इसके लिए फ़्रांस की तोपों के बनिस्बत स्वीडन की तोप बोफ़ोर्स को तवज्जो दी गयी है. सबसे पहले यह ख़ुलासा 1987 में ही स्वीडन के रेडियो चैनल ने किया था. वीपी सिंह ने मुद्दा लपक लिया, या हो सकता है उनको जानकारी मुहैया करायी गयी हो.

कांग्रेस जिस तथाकथित रफ़ाल घोटाले को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमलावर है उसमें फ्रांस की कंपनी शामिल है और यह सबसे पहले फ्रांस के ही मीडिया में उजागर हुआ था. देखिए, इतिहास का पहिया बार-बार एक जैसे ही घूमता है. बस किरदार बदल जाते हैं.

रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि लोगों ने राजीव गांधी से ‘मिस्टर क्लीन’ का ताज लेकर वीपी सिंह को पहना दिया. जनता की नज़र में वे भ्रष्टाचार के शिकार और उसके ख़िलाफ़ लड़ने वाले मसीहा बनकर उभरे. राजीव ने 1988 में इलाहाबाद की सीट से वीपी सिंह के मुकाबले एक राजपूत को ही चुनाव लड़वाया. वीपी सिंह भारी मतों से जीतकर संसद में फिर प्रवेश पा गए और सरकार पर ताबड़तोड़ हमले करने लगे.

शाहबानो मामले में मुस्लिम समाज के तुष्टिकरण का इल्ज़ाम झेलने की भरपाई करने के लिए राजीव सरकार ने बाबरी मस्जिद खोल कर इसमें रखी राम लला की मूर्ति को पूजने का अधिकार दिलवा दिया. धर्मांधता का जिन्न बाहर आ गया. भाजपा ने इस मुद्दे को हाथों-हाथ ले लिया. ‘राम लला हम आयेंगे, मंदिर वहीं बनायेंगे’ और ‘ये तो सिर्फ झांकी है, मथुरा काशी बाकी है’ जैसे नारे पूरे उत्तर भारत में गूंजने लगे.

आशुतोष वार्ष्णेय अपनी किताब ‘अधूरी जीत’ में लिखते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का मतलब हर मज़हब से समान दूरी बनाने का था, जबकि इंदिरा और राजीव गांधी की नज़र में ‘हर धर्म से समान नज़दीकी बनाना धर्मनिरपेक्षता थी.’

राम मंदिर मुद्दा धीरे-धीरे गरमाया जाने लगा. विश्व हिंदू परिषद के राम शिला पूजन के ऐलान को भाजपा ने समर्थन दिया. सेक्युलर राष्ट्रवाद की प्रतिक्रिया में उभरा हिंदू राष्ट्रवाद स्वतंत्र भारत के प्रशासकीय सिद्धांतों और बौद्धिक ढांचे के लिए एक गंभीर चुनौती बनकर सामने आ गया था. इसकी परिणिति अक्टूबर 1989 में बिहार के भागलपुर दंगे के रूप में हुई. इसे आजाद भारत में यानी 1947 के बाद सबसे लंबे समय तक चला दंगा कहा जाता है जिसमें मारे गए लोगों का ठीक-ठीक आंकड़ा आज भी उपलब्ध नहीं है.

क्षेत्रीय दलों का गणित

जब तक जवाहर लाल नेहरू राजनैतिक क्षितिज पर थे, क्षेत्रीय पार्टियों का विशेष आधार नहीं था. उनके बाद 1967 के आम चुनाव में क्षेत्रीय दलों की ताक़त पहली बार देखने को मिली थी. इसके बाद इंदिरा गांधी ने राज्यों और केंद्र के चुनाव अलग-अलग करने का फ़ैसला लिया था. उनका तर्क था कि चुनाव में केंद्र और राज्यों के मुद्दे भिन्न होते हैं. 1989 के आम चुनावों में राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार को अब तक ही सबसे ताक़तवर चुनौती का सामना करना पड़ा. दक्षिण में डीएमके, पश्चिम बंगाल में सीपीएम, पंजाब में अकाली और आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव की तेलुगू देशम पार्टी काफ़ी मज़बूत स्थिति में थी.

भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे राजीव गांधी के पास अपनी मां जैसी आक्रामकता नहीं थी और न ही उनमें इंदिरा जैसी ‘मास अपील’ थी. वे हर कदम पर हिचकते हुए प्रतीत होते थे. सो राज्यों में वैकल्पिक नेतृत्व उभरने लगे और कांग्रेस को उनसे पार पाने में काफी मुश्किल पेश होने वाली थी. कमोबेश ऐसे ही हालात इस बार भी हैं. भाजपा और एनडीए की काट करने के लिए स्थानीय पार्टियों का दामन थामना कांग्रेस की मज़बूरी है.

1988 में सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चौतरफ़ा घिर गई थी. विचलित होकर, राजीव गांधी सरकार ने संसद में प्रेस की आज़ादी को खत्म करने के मकसद से मानहानि बिलपेश किया. इससे, कांग्रेस का रहा-सहा खेल बिगड़ गया. इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका की अगुवाई में पत्रकारों ने एकजुट होकर इसका विरोध किया. हारकर, सरकार को इसे वापस लेना पड़ा. 1989 के चुनाव में विपक्ष ने यह मुद्दा बेहद गर्मजोशी से उठाया था.

मौजूदा हालात तो सबके सामने ही हैं. 2018 में एनडीटीवी के दफ़्तर और उसके मालिकों के घरों पर डाले गए छापों के विरोध में अरुण शौरी के नेतृत्व में प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में कांफ्रेंस आयोजित की गई थी. शौरी ने मौजूदा हुक्मरान पर निशाना साधते हुए भाषण की शुरुआत एक शेर से की थी. ‘तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहां तख़्त-नशीं था. उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था’. इसी साल राजस्थान में वसुंधरा राजे की भाजपा सरकार ने विधानसभा में कमोबेश ऐसा ही बिल पेश करके 1988 की ग़लती को दोहराया. पर कमाल देखिये, 1988 की तरह एकजुट न रहकर मीडिया इस मुद्दे पर बंट गया. जहां एक स्थानीय हिंदी अखबार के संपादक रोज़ मुख्य पृष्ठ पर इस बिल के विरोध में संपादकीय लिख रहे थे, अन्य हिंदी अखबार चुपचाप तमाशा देख रहे थे. वसुंधरा राजे को भी इस विधेयक को वापस लेना पड़ा था.

नतीजा क्या रहा?

नौसिखिया राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस के विरोध में विपक्ष एक हो गया था. राजीव गांधी भी भ्रष्टाचार पर बात करते थे. उनका कहना था कि केंद्र राज्यों में जनता की मदद के लिए एक जो एक रुपया भेजता है वो पहुंचते- पहुंचते 15 पैसे ही रह जाता है. जनता को उनकी बात तो पसंद आई लेकिन, वे और उनकी पार्टी नहीं. कांग्रेस की हार हुई. उसे कुल 197 सीटें ही मिली. वीपी सिंह के जनता दल पार्टी को 143 और ‘कमल’ को 85 सीटें मिलीं. दूसरी बार ग़ैरकांग्रेसी सरकार बनी जिसका मुखिया पूर्व कांग्रेसी ही था. गठबंधन हक़ीक़त बनकर उभरे. वीपी सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार को भाजपा और अन्य पार्टियों से बाहर से समर्थन दिया. राजीव गांधी विपक्ष में बैठे.

यह भाजपा के उभार वाला चुनाव था. उसने समझ लिया था कि चुनाव कैसे जीता जाता है. अगले साल यानी 1990 में उसके नेता लालकृष्ण आडवाणी राम मंदिर के लिए रथ यात्रा पर निकल पड़े. भाजपा के पक्ष में शुरू हुई ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज हुई और अगले ही साल हुए आम चुनाव में उसकी सीटों का आंकड़ा 120 तक पहुंच गया. अब आडवाणी शून्य में यात्रा किये जा रहे हैं. उनका जमाना बीत गया. ध्रुवीकरण का काम अब उनके शिष्य उनसे बेहतर कर लेते हैं.