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मंदिर ध्वंस और इस्लामी हमलों पर हिन्दू आखिर चुप क्यों रह जाता है?

रजत मित्रा

मेरे एक मित्र पूछा, “मीडिया और ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग की बात छोड़ो, आम हिन्दू क्यों आवाज़ नहीं उठाता? दिल्ली में मंदिर ध्वंस होने पर यह सन्नाटा क्यों है?” हम दोनों का ही यह मानना था कि हिन्दू होने ने नाते यह तकलीफदेह था। मैंने कहा, “मेरे लिए मंदिरों के ध्वंस से भी ज़्यादा तकलीफदेह उसे निगलती ये चुप्पी है।”

सदमे और सन्नाटे का रिश्ता

यह सन्नाटा कमोबेश हमारी (हिन्दुओं की) मानसिकता, हमारी आत्मा की ‘विशिष्टता’ बन गया है, और यह सदियों से बदस्तूर ऐसे ही है। एक सवाल जो कई लोगों के मन में उठता है, वह ये है कि क्या मध्ययुगीन (दिल्ली सल्तनत और मुगलिया काल) समय में जब आक्रांताओं के झुण्ड मंदिरों पर टूट पड़ते थे, तब भी ऐसे ही होता रहा होगा? मेरे हिसाब से काफ़ी सारी समानताएँ हैं उस समय में और आज में। हिंसक भीड़ बेख़ौफ़ भी थी और मज़हबी हुक्म की तामील करती हुई, उस समय भी और आज भी। हिन्दुओं ने उस समय भी पलटवार नहीं किया, और आज भी नहीं। खाली मुँह बंद कर के तमाशबीन बने खड़े रहे। यह सन्नाटा सदमे से आता है। सदमे और सन्नाटे का अलग ही रिश्ता होता है।

मनोविज्ञान के विशेषज्ञ होने के नाते गवाह के तौर पर मैंने कई सारे आपराधिक मुकदमों में भागीदारी की है। उनमें से एक मुकदमे में पीड़िता एक 17 साल की लड़की थी, और जज का मानना था कि आरोपित लड़के को पुलिस द्वारा फँसाया जा रहा है। उनकी इस धारणा का आधार यह था कि लड़की न चिल्लाई न ही उसने कोई प्रतिरोध किया, केवल चुप रही। मैंने लड़की की मानसिक हालत की जाँच कर उसके क्लिनिकल सदमे (पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर, PTSD) में होने की बात अपनी रिपोर्ट में लिखी थी। जज साहब को उस रिपोर्ट पर विश्वास नहीं हो रहा था, और उन्होंने मुझसे पूछा कि अगर लड़की को सही में सदमा लगा था तो वह चुप रहने की बजाय चिल्लाई या चीखी क्यों नहीं? उसने आरोपित से लड़ने का प्रयास क्यों नहीं किया?

“योर हॉनर, लड़की इसलिए नहीं चीखी चिल्लाई, इसलिए नहीं प्रतिरोध किया क्योंकि सदमे का मिजाज़ ही ऐसा होता है। अपनी जान गंभीर खतरे में पाकर पीड़ित सुन्न पड़ जाता है। इसका मतलब यह नहीं कि लड़की ने लड़के को हाँ कर दी थी।” मैंने जज साहब को बताया। साथ ही मैंने उन्हें मनोवैज्ञानिक पहलू कुछ हद तक समझाने का प्रयास किया।

जिस समय इंसान सदमे से गुज़र रहा होता है, या फिर उसे सदमा पहुँचाने वाली बातें फिर से याद दिलाईं जातीं हैं, उस समय इंसान के दिमाग का जो हिस्सा बोलने को नियंत्रित करता है (Broca’s area), वह सुन्न पड़ जाता है या बहुत कम हरकत करता है। इसीलिए जब इंसान किसी सदमा पहुँचाने वाली घटना से गुज़र रहा होता है, जैसे वह लड़की गुज़री, तो वह चिल्लाता नहीं है। मैंने बेसेल वन डर कॉल्क का हवाला भी दिया, जिन्होंने यह खोज की थी। जज ने पूछा कि क्या मैं इस विषय पर उन्हें और जानकारी दे सकता हूँ। मुझे दिख रहा था कि यह पहलू समझने के बाद उनका मुक़दमे के प्रति, आरोपित के प्रति रवैया बदल गया, और यह उनके फैसले में भी दिखा।

बाद में जज साहब ने मुझे अपने चैम्बर में बुलाया। उन्होंने कहा कि वह चुप्पी और सदमे के इस रिश्ते को और समझना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि उनके जज के तौर पर कैरियर में जिस किसी पीड़िता ने प्रतिरोध नहीं किया, चीखी-चिल्लाई नहीं, उसके मामले में उन्होंने आरोपित को बरी कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि ऐसे हर मामले में पीड़िता झूठ बोल रही थी। “आज मुझे ऐसा करने पर ग्लानि हो रही है।” उन्होंने मुझसे कहा। साथ ही उन्होंने मुझसे इस विषय पर नेशनल जुडिशल अकादमी में भी एक भाषण देने का अनुरोध किया।

मैं यह साफ़ कर देना चाहता हूँ कि उत्पीड़न के कई सारे सच्चे मामलों में महिलाओं और युवतियों की एक बड़ी संख्या होती है, जो अपने सदमे को शब्दों में बयान नहीं कर पातीं हैं। उनका सदमा उनके ‘सिस्टम’ पर इतना ज्यादा हावी होता है।

यही चीज़ युद्धक्षेत्र से लौटे सैनिकों, आपदा पीड़ितों या किसी भी प्रकार का उत्पीड़न झेलने वाले एक बड़ी संख्या के लोगों पर लागू होती है। उनका सदमा इतना ज्यादा गहरा होता है कि कई बार सदमा ही यादों को दबा लेता है, और/या फिर उनके दिमाग के बोलने को नियंत्रित करने वाले हिस्से (Broca’s area) के साथ खिलवाड़ करता है।

यह व्यक्तियों ही नहीं, समाजों पर भी लागू होता है

आज मनोवैज्ञानिक रिसर्च के माध्यम से यह स्थापित सत्य है कि व्यक्तियों की याददाश्त पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली यही चीज़ समूहों पर भी लागू होती है। पूरा-का-पूरा समाज एक सदमाग्रस्त व्यक्ति की ही तरह व्यवहार कर सकता है। इसे हम ‘सामुदायिक/सामाजिक सदमा’ (collective trauma) कह सकते हैं। इससे गुज़रने वाले समाजों के लोग अक्सर अपने साथ हुई हिंसा या ज़्यादती को शब्दों में बयान नहीं कर पाते।

हिन्दू समाज के लिए शायद सबसे बड़ा सदमा अपने मंदिरों का विध्वंस ही रहा है, और सदमाग्रस्त हिन्दू समाज ने वह समय भी सन्नाटे में काटा, और वह उन यादों को भी सन्नाटे में ही संजोए है। इसी लिए आज भी जब किसी मंदिर का ध्वंस होता है तो हिन्दू समाज को आवाज़ उठाने में हिचक होती है। उनके अंदर यह सदमा सामाजिक रूप से घर कर बैठा।

सदमे की भाषा ही सन्नाटा होता है। जितना सदमे का दौर लम्बा खिंचता है, उतना ही व्यक्तियों में (और समाजों में) सदमा गहराई तक घर करता जाता है। एली वीसल (यहूदियों के नाज़ी हत्याकाण्ड से गुज़र चुके लेखक) का यह मानना था कि सदमाग्रस्त समाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी यादों की विरासत को सन्नाटे के ज़रिए ही सौंपता है। उनके अनुसार सन्नाटे में ही सदमे की यादें छिपी होतीं हैं। क्या इसका यह मतलब है कि हिन्दू सभ्यता के पुनर्निर्माण के लिए इस सन्नाटे, इस चुप्पी को तोड़ना और पूरे समाज में बैठे उन मनोवैज्ञानिक घावों को भरने की ज़रूरत है? क्या दुखती रग का इलाज नहीं होगा, हिन्दू समाज को क्या आंतरिक शांति और आगे बढ़ने की गति मिल सकती है?

मध्ययुगीन हिन्दुओं ने अपने मंदिरों के ध्वंस को देखने पर क्या प्रतिक्रिया दी होगी, इसकी कल्पना खासी मुश्किल नहीं है? शुरुआती नकार की मुद्रा और झटके के बाद आत्मसमर्पण, बेबसी और शर्म के आगे हिन्दुओं ने घुटने टेक दिए होंगे। जब मंदिरों पर हमला हज़ारों की संख्या में हो रहा हो, तो उसकी मनोवैज्ञानिक परिणति किस प्रकार होगी, यह सोचना कोई मुश्किल चीज़ नहीं है। हिन्दुओं के ज़ख्म (नाज़ियों के) गैस चैंबरों में मारे गए दसियों लाख यहूदियों या (स्टालिन-लेनिन के) गुलागों और अकालों में मारे गए करोड़ों रूसियों के परिजनों और वंश से अलग नहीं हैं।

आज

जब कश्मीर के मंदिरों पर हमला हो रहा था तो बाकी देश के हिन्दू चुप थे। इस विषय पर चर्चा करता कोई लेख, कोई वाद-विवाद, कोई बौद्धिक मुझे नहीं मिला। आज जब दिल्ली में एक मंदिर तोड़ा गया तो भी एक सन्नाटे में ही अधिकाँश हिन्दू चीख रहे हैं। इस सन्नाटे की जड़ें ही मेरी किताब ‘द इनफिडेल नेक्स्ट डोर’ का विषय है, जो इस विषय (ट्रांस-जेनेरशनल ट्रॉमा) पर आधारित है।

आज हमें सक्रिय लोगों की ज़रूरत है, जो इस सन्नाटे को तोड़ कर हिम्मत के साथ बोलें। हमें ऐसे लोग चाहिए जो बीते कल की आँखों में आँखें डाल कर हमारे उत्पीड़ित समाज की आवाज़ बनें; हिन्दुओं को ही याद दिलाएँ कि एक समय वह गुलाम नहीं, बल्कि अपने भाग्य-विधाता थे। हमे लोगों के ज़मीर को जगाने वाले चाहिए। हमें एक बौद्धिक वर्ग चाहिए, चाहे वह जितना छोटा हो। यही वर्ग समाज को इस सदमे से उत्पन्न ठहराव से बाहर निकाल सकता है।

हिन्दू समाज के अन्तस की गहराई में पैठी लकीरें निकल कर बाहर आ रहीं हैं, और हर उस चीज़ को चुनौती दे रहीं हैं, जो हमारा एक समय निश्चित विश्वास थीं। अंदर तक पैवस्त ज़िल्लत बाहर आने को बेताब है। आज का हिन्दू अपनी सरकार और अपने नेता को लेकर मुखर है। वह इस देश पर अपना हक़ जमा रहा है, और हक़ माँग रहा है। और इसी का विस्तार वह उस आस्था के पालन के हक़ के तौर पर कर रहा है, जिसके लिए उसने हज़ार साल का उत्पीड़न झेला है। शायद किसी भी और कौम से ज़्यादा।

(रजत मित्रा वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक हैं, जिन्होंने हार्वर्ड में रिफ्यूजी ट्रॉमा को करीब से देखा और उसका अध्ययन किया है। फ़ेसबुक पर मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित उनके लेख का अनुवाद मृणाल प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव ने किया है। )