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बलराज साहनी शायद अकेले अभिनेता होंगे जो मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने पर जेल भेजे गए थे

दीपक महान

यूं तो हिंदी फिल्मों में एक से एक बेहतरीन अदाकार हुए हैं, लेकिन ऐसे कम ही रहे जिन्होंने परदे पर वो किरदार जिंदा किए जिनसे हम रोजाना दो-चार होते हैं. इन अभिनेताओं का नाम सोचने पर यकीनन बलराज साहनी ऐसा नाम होंगे जिनके बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते.

आज जब सिनेमा से एक आम आदमी की कहानी और परिवेश लुप्त होता जा रहा है और समाज आम आदमी के हितों को नज़रअंदाज़ कर रहा है, तब बरबस ही आंखों के सामने इस अनोखे कलाकार की छवि आ जाती है. सिर्फ इसलिए नहीं कि बलराज साहनी ने आम आदमी के दर्द और दिक्कतों को बड़े परदे पर साकार किया था, बल्कि इसलिए भी कि वे वास्तविक जीवन में भी सौम्यता, सौहार्द और नैतिकता का अतुलनीय प्रतीक बने रहे. अगर आपने बलराज साहनी के निभाए किरदारों को बारीकी से देखा है तो आप इस बात से सहमत होंगे कि अपनी अलौकिक भाव भंगिमाओं और सादगी के कारण वे दुनिया के किसी भी देश के आम आदमी का चरित्र परदे पर उतार सकते थे. शायद इसी वजह से ईश्वर ने भी इस लाजवाब आम आदमी को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस (एक मई) के दिन पैदा किया और वे हमेशा एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट की तरह ही ज़िंदगी जीते रहे.

हालांकि जिस तरह एक आम आदमी को समाज और व्यवस्था लगातार छलते रहे हैं, उसी तरह हिंदी फिल्म जगत ने भी इस बेहतरीन अदाकार के साथ नाइंसाफी की. 2013 में हिंदी फिल्म उद्योग का शताब्दी समारोह आयोजित किया गया था तब किसी कोने से भी इस महान अभिनेता के योगदान को याद नहीं किया गया. जबकि उनकी जन्म शताब्दी भी उसी साल थी. लेकिन बलराज साहनी का यही असर है कि फिल्म उद्योग याद करे या न करे, दर्शक और समीक्षकों ने उन्हें आज तक हृदय से लगाए रखा है.

प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक कुंदन शाह कहते हैं कि बलराज साहनी में किरदारों को जीवित करने की अद्भुत क्षमता थी क्यूंकि वे अभिनय कम और चरित्र को आत्मसात ज़्यादा करते थे. अगर राजनीतिक झुकाव की बात करें तो कुंदन शाह उन निर्देशकों में शुमार किए जाते हैं जो भारत की धर्मनिरपेक्षता और संविधान के प्रबल समर्थक हैं और यह भी एक वजह है कि मानवीय मूल्यों को सबसे ज्यादा तरजीह देने वाले बलरास साहनी को वे बेहद पसंद करते हैं. इसके साथ ही वे उनके अभिनय के भी मुरीद हैं. शाह कहते हैं, ‘बलराज जी व्यवसायिक और आर्ट सिनेमा दोनों को अपने अभिनय से गरिमा और वास्तविकता प्रदान करते थे.’

कुंदन शाह ‘गर्म हवा’ और ‘काबुलीवाला’ में बलराज साहनी के काम को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं. उनके मुताबिक अगर कोई फिल्म स्तरहीन भी रही तो उसमें बलराज साहनी का काम सबसे अलग और निखरा हुआ दिखता था. ऐसा इसलिए था क्योंकि वे जमीनी आदमी थे और आम लोगों के दुख-दर्द को महसूस कर पाते थे. कुंदन अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘बलराज जी के अभिनय में एक संजीदगी और संवेदना थी जो विचारों से उत्पन्न होती है, लेकिन आजकल की चकाचौंध से ग्रसित कलाकारों में इनका अभाव है क्यूंकि वो आम आदमी की मुश्किलों से पूरी तरह अनजान हैं.’

आम आदमी होते हुए भी बलराज साहनी एक असाधारण व्यक्तित्व के मालिक थे. अगर उनकी संवेदनाएं गुरु रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन की शिक्षा के कारण परिपक्व हुईं, तो आम आदमी के उत्थान की चिंता स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गांधी के साथ जुड़ने से पैदा हुई. एक आदमी के दुख-दर्द, टीस, आंसुओं और हंसी को बलराज साहनी से बेहतर कौन समझ सकता था, जिसने खुद 1949 में कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक होने के कारण छह महीने जेल में गुज़ारे थे. वे शायद दुनिया में एकमात्र अभिनेता होंगे जिन्हें मानव अधिकारों के हनन के खिलाफ बोलने पर जेल तो भेजा गया, पर जिसे क़ानून ने, एक दिहाड़ी मजदूर के तौर पर पूरी इज्ज़त के साथ फिल्म सेट पर काम करने का अधिकार भी दिया .

बलराज साहनी के किसी भी फ़िल्मी चरित्र को देखें तो लगता है कि उनसे बेहतर कोई और कलाकार उस रोल के लिए हो ही नहीं सकता था. ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘लाजवंती’, ‘कठपुतली’, ‘सीमा’, ‘काबुलीवाला’,’गर्म हवा’, ‘हकीकत’, ‘संघर्ष’, ‘पवित्र पापी’ या ‘वक्त’ के चरित्रों को जिस तरह उन्होंने गढ़ा वैसा क्या कोई और कर सकता था! एक उत्कृष्ट और नैसर्गिक कलाकार होने के बावजूद, बलराज जी के अभिनय में जो सहजता का पुट मिलता है उसका एक कारण भाषा की उनकी महीन समझ भी है. उनके बेटे और जानेमाने चरित्र अभिनेता परीक्षित साहनी बताते हैं, ‘उन्हें अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू और पंजाबी में एक समान महारत हासिल थी और उन भाषाओं के सभी विद्वान कवियों और साहित्यकारों को उन्होंने बचपन से लगातार पढ़ा था.’ उनकी इसी विद्वता ने उन्हें जहां कॉलेज में एक प्रतिभाशाली लेखक और वक्ता बनाया, वहीं स्वतंत्रता से कई साल पहले, बीबीसी रेडियो पर एक प्रमुख उद्घोषक के रूप में प्रतिष्ठित भी किया.

भाषा की पकड़ के कारण ही बाद में बम्बई के नाट्य जगत में वे एक प्रबुद्ध अभिनेता बने तथा इप्टा (इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएशन) के संस्थापक होने के साथ-साथ, उन्होंने उस संस्था को लेखक, निर्देशक और अभिनेता के रूप में सेवाएं प्रदान कीं. इसी वजह से फिल्म अभिनय उनके लिए हमेशा सहज रहा, हालांकि दूसरी तरफ चेतन आनंद, कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी और कैफ़ी आजमी के इस स्नेहिल मित्र को अभिनय से ज्यादा लेखन से प्यार था. परीक्षित बताते हैं, ‘वो फिल्म सेट पर अपने साथ टाइप राइटर ले जाया करते थे और जब मौका मिलता, हिंदी, उर्दू और पंजाबी पत्रिकाओं के लिए लेख और कहानियां लिखा करते थे.’

देव आनंद साहब ने एक बार मुझ से कहा था, ‘दुनिया में रफ़ी साहब और बलराज साहनी जैसे शरीफ और ईमानदार लोग बहुत कम मिलते हैं.’ इसी खूबी या मजबूरी के चलते बलराज साहनी पाखंड नहीं कर पाते थे. बताते हैं कि अपनी सितारा हैसियत के विपरीत, वे मोटर-साइकल पर ही शूटिंग पर चले जाते थे. यह उनकी ही पहल थी जिसने अखिल भारतीय कलाकार एसोसिएशन को स्थापित कर, फिल्म में काम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों और छोटे कलाकारों को आजीविका के जरूरी हक़ दिलवाए.

विभाजन से पहले और बाद में, बलराज साहनी ने अपने निजी जीवन में कई आघात सहे, लेकिन उन्होंने उन दुखों के आगे कभी हार नहीं मानी. लोगों के विश्वासघात के बावजूद बलराज साहनी की मानव सेवा में कभी कोई कमी नहीं आई. उनके चरित्र की मज़बूती और हृदय की विशालता इस बात से भी जाहिर होती है कि, साठ साल की उम्र में संसार से विदा होने से चंद मिनट पहले, उन्होंने सभी भारतवासियों को उनके दिये प्यार और सम्मान के लिए धन्यवाद देते हुए कहा था कि ज़िंदगी ने उन्हें जो कुछ दिया, वह उनकी काबिलियत से कहीं ज़्यादा था.

(दीपक महान वृत्तचित्र निर्देशक और स्वतन्त्र समीक्षक हैं)