Breaking News

पूर्वोत्तर के चुनाव : जीत सिर्फ त्रिपुरा में पर ‘कमल’ खिल रहा तीनों प्रांतों में

URMILESH @urmilesh.urmil

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के विधानसभाई चुनावों में केंद्रीय सत्ताधारी दल भाजपा को सिर्फ त्रिपुरा में कामयाबी मिली लेकिन इस सप्ताह वह तीनों राज्यों में सरकार बनाने या सरकार में शामिल होने की तैयारी कर चुकी है। मेघालय में फैसला हो चुका है और भाजपा-समर्थित एनपीपी नेता कोनराड संगमा की अगुवाई में नई सरकार 6 मार्च को शपथ ग्रहण करेगी। मेघालय की 60 सीटों में भाजपा को महज 2 सीटें मिली हैं, पर वहां भी उसने अपने लिए अनकूल गठबंधन बना लिया। राज्यपाल ने कांग्रेस के मौजूदा मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के इस दावे को खारिज कर दिया कि चुनाव के बाद कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, इसलिये सबसे पहले उसे ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए। राज्यपाल ने भाजपा-समर्थित कोरनाड संगमा के सरकार बनाने के दावे को मंजूर किया। कोनराड़ की एनपीपी विधायकों की संख्या के हिसाब से दूसरे नंबर की पार्टी है। मेघालय की तर्ज पर नगालैंड में भी भाजपा एनडीपीपी नेता नैफ्यू रियो की अगुवाई में सरकार गठित कराने की पहल कर चुकी है, जबकि चुनाव में वहां सबसे बड़ी पार्टी मौजूदा मुख्यमंत्री टी आर जिलियांग की एनपीएफ ही उभरी है। पर राज्यपाल ने उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के बजाय दोनों खेमों को फिलहाल अपने-अपने दावे के परिपत्र पेश करने को कहा है। फिलहाल, दोनों तरफ से सियासी मोल-तोल जारी है।

राजनीतिक हलकों में मेघालय राजभवन के फैसले की आलोचना भी हो रही है। माना जा रहा है कि भाजपा के दबाव में ही कुछ छोटे क्षेत्रीय दलों को मुकुल संगमा का समर्थन करने से रोका गया। शिलांग राजभवन ने आनन-फानन में दूसरे संगमा यानी कोनराड को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया। आमतौर पर चुनाव में किसी भी दल को बहुमत न मिलने की स्थिति में राज्यपाल से सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक एसआर बोम्मई जजमेंट की रोशनी में कदम उठाने की अपेक्षा की जाती है। इस फैसले में देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि यदि चुनाव के बाद किसी राज्य या केंद्र में किसी दल को भी पूर्ण बहुमत नहीं मिले तो सबसे बड़े दल को पहले सरकार बनाने के लिए आमंंत्रित किया जाना चाहिए। सरकार बनाने में उसकी विफलता के बाद ही किसी अन्य दावेदार को आमंत्रित किया जाना चाहिए। ऐसे में मेघालय में मुकुल संगमा को सरकार बनाने का मौका न देने की विपक्षी दल आलोचना कर रहे हैं। दूसरे राज्य नगालैंड में भी कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले की महान् लोकतांत्रिकता को नजरंदाज किये जाने की संभावना है।

भाजपा को अपने बल पर बड़ी कामयाबी त्रिपुरा में मिली है, जहां उसने अपनी निकटतम प्रतिद्वन्द्वी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के 25 साल से जारी राजनीतिक वर्चस्व को तोड़ दिया। उसने ने केवल अपना खाता खोला बल्कि सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल कर लिया। हालांकि उसकी जीत बहुत कम वोटों के अंतर से हुई है। उसे 60 में 35 सीटों पर कामयाबी मिल गई और माकपा 16 पर सिमटी रही। भाजपा के सहयोगी आईपीएफटी को 8 सीटों पर जीत मिली।

त्रिपुरा में क्यों ढहा वाम गढ़

त्रिपुरा में इस बार के चुनावी-नतीजे उतने चौंकाने वाले नहीं रहे। लगभग सभी ‘एक्जिट पोल’ राज्य में बदलाव और भाजपा-नीत गठबंधन की जीत की भविष्यवाणी कर चुके थे। ऐसी भविष्यवाणियों के अलावा मीडिया की अन्य खबरों से भी त्रिपुरा में 25 साल के वाम-राज के खात्मे के संकेत मिल रहे थे। लेकिन ऐसा क्यों और कैसे हुआ? वह भी तब जब वामपंथी सरकार की कमान मानिक सरकार जैसे एक ऐसे नेता के हाथ में थी, जिसे भारत का सर्वाधिक ईमानदार और पारदर्शी ढंग से काम करने वाले नेता के रूप में जाना जाता है। मानिक सरकार के कार्यकाल में राज्य ने कई क्षेत्रों में बेहतर ही नहीं, पूरे देश में उल्लेखनीय प्रदर्शन किया। साक्षरता के मामले में त्रिपुरा वाम-शासित दूसरे राज्य केरल को पीछे छोड़ देश का नंबर-1 साक्षर राज्य बना। जनस्वास्थ्य और समूचे मानव विकास सूचकांक(एचडीआई) में उसकी उपलब्धियां शानदार रहीं। वाम सरकार ने सत्ता में आने के बाद त्रिपुरा में दशकों से जारी में बंगाली बनाम आदिवासी हिंसक टकराव, अलगाववाद और उग्रवाद का सिलसिला खत्म कर शांति और स्थिरता का माहौल बनाया। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है, वामपंथी क्यों हारे और शून्य से उठकर भाजपा सत्ता तक कैसे पहुंची?

इस चुनावी नतीजे के लिये जितना वामपंथियों की कमजोरी जिम्मेदार है, उतना ही भाजपा का चुनावी कौशल जिम्मेदार है। भाजपा ने बीते चार सालों से त्रिपुरा में लगातार काम किया। पहले मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को तोड़ा-मरोड़ा और फिर आदिवासियों के विवादास्पद संगठन आईपीएफटी के सहारे वामपंथियों की चुनौती का सामना करने के लिये जोरदार सांगठनिक तैयारी की। इस तैयारी में केंद्र सरकार और भाजपा के केंद्रीय संगठन का स्थानीय नेतृत्व को भरपूर ही नहीं, अभूतपूर्व सहय़ोग मिला। संसाधन की किसी तरह कमी नहीं होने दी गई। उसने बहुत योजनाबद्ध ढंग से चुनाव के लिये नये तरह की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ भी की। वह जानती थी कि मानिक सरकार और उनके शासन पर सीधे आरोप लगाकर वह कुछ खास हासिल नहीं कर पायेगी। उसने समुदायों के स्तर पर गोलंबदी शुरू की। सबसे पहले आदिवासियों में और फिर ओबीसी में। त्रिपुरा से बाहर कम लोगों को मालूम है कि वहां लगभग 24 फीसदी आबादी ओबीसी है। पर वामपंथी शासन के दौरान इस समुदायों के लिए नौकरियों में आरक्षण के प्रावधान तक नहीं किये गये, जो एक संवैधानिक कदम था। भाजपा ने आईपीएफटी की मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक फैसला करने का वादा करके आदिवासियों का समर्थन जुटाया। बंगाली और गैर-बंगाली ओबीसी को गोलबंद करने के लिये उसने दो तरह से कोशिश की। एक तो उसने कहा, सरकार बनने पर वह ओबीसी को आरक्षण देगी और और दूसरा कदम उठाया, त्रिपुरा में नाथ संप्रदाय को लोगों को सामुदायिक-धार्मिक स्तर पर गोलबंद करने का। इसके लिये यूपी के मुख्यमंत्री और गोरखनाथ मठ के मठाधीश योगी आदित्यनाथ को चुनाव प्रचार में उतारा गया। त्रिपुरा के नाथ संप्रदाय-समर्थकों में ज्यादा बड़ा हिस्सा ओबीसी समुदाय का बताया जाता है।

भाजपा की चुनावी रणनीति के मुख्य सिद्धांतकारों को अच्छी तरह मालूम था कि त्रिपुरा का शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अन्य कई राज्यों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन रहा है। लेकिन यह राज्य अगर अधिक शिक्षित है तो शिक्षित लोगों मे अधिक बेरोजगारी भी है। भाजपा ने शिक्षित बेरोजगारों के बीच जमकर काम किया और उन्हें यकीन दिलाया कि उसकी सरकार आई तो वह केंद्र के सहयोग से राज्य में नये-नये कारखाने और अन्य उपक्रमों का जाल बिछा देगी। इससे युवाओं को भारी पैमाने पर रोजगार मिलेगा। सन् 2016-17 के आधिकारिक आंकड़ों में त्रिपुरा की कुल आबादी में बेरोजगारों की संख्या 18.7 फीसदी बताई गई। अब इस आंकड़े में कुछ और इजाफा हुआ होगा। भाजपा ने इस मुद्दे को अपने राजनीतिक अभियान का अहम् हिस्सा बनाया। वामपंथी सरकार और उसके नेता भाजपा के इस आक्रामक अभियान का सही और सक्षम ढंग से मुकाबला नहीं कर सके। वे बार-बार कहते कि रोजगार के लिये निवेश की जरूरत है लेकिन केंद्र की सरकार राज्य को इस मामले में सहयोग नहीं दे रही है। लेकिन ऐसे मामलों में आमतौर पर स्थानीय लोगों का ध्यान राज्य सरकार पर ज्यादा जाता है। भाजपा के नेता इसके जवाब में गुजरात और देश के दूसरे सूबों का उदाहरण देकर यह समझाने की कोशिश करते थे कि वामपंथियों की सरकार निजीकरण और निजी निवेश-विरोधी है, इसीलिये यह बाहर से पूंजी लाकर लगाने के लिए कोई तैयार नहीं होता! उनकी सरकार बनने पर औद्योगिक विकास और निर्माण क्षेत्र में नया निवेश आयेगा तो रोजगार भी बढ़ेगा! भाजपा नेताओं की इन दलीलों को स्थानीय आबादी के बड़े हिस्से ने गंभीरतापूर्वक लिया। इस तरह शिक्षित लोगों की बेरोजगारी का मुद्दा त्रिपुरा के चुनाव में देखते-देखते अहम् बन गया। लोगों ने मानिक सरकार की कृषि क्षेत्र की कई उपलब्धियों को भुला बैठे। लोग यह भी भुला बैठे कि भौगोलिक परिस्थिति की प्रतिकूलताओं के चलते भी औद्योगिक विकास की गति यहां देश के मुख्य हिस्से के राज्यों जैसी नहीं हो सकती!

भाजपा की शानदार जीत की इबारत लिखने में कांग्रेस नेतृत्व के निकम्मेपन का कुछ कम योगदान नहीं। एक समय जिस पार्टी ने राज्य में लंबे समय तक राज किया, उसके नेता और विधायक उससे टूटकर भाजपा की तरफ जाते रहे और कांग्रेस की तरफ से उन्हें रोकने या संगठन को बचाने की कोई कोशिश नहीं हुई। एक तरफ भाजपा के प्रभारी सुनील देवधर और राष्ट्रीय महासचिव राममाधव लगातार वहां जमे रहे, दूसरी तरफ कांग्रेस प्रभारी पंडित सी पी जोशी चुनावी तैयारी के सिलसिले में संभवतः सिर्फ एक या दो बार त्रिपुरा में अवतरित हुए! आरएसएस प्रशिक्षित भाजपा के मुख्य संगठन सुनील देवधर तो बीते चार साल से वहां जमे हुए थे। असम में काग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल होकर वरिष्ठ मंत्री बने हिमंता बिस्वा सरमा ने भी भाजपा के विस्तार में अहम् भूमिका निभाई। काग्रेस के 10 में 6 विधायकों को पहले तृणमूल कांग्रेस ने तोड़ा, फिर भाजपा ने उन्हें तृणमूल से तोड़ लिया। कांग्रेस का एक विधायक सीधे भाजपा में चला गया। तोड़फोड़ की राजनीति में हिमंता ने बड़ी भूमिका निभाई। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का उन्हें पूरा वरदहस्त प्राप्त था। इस तरह एक समय़ 38 से 40 फीसदी वोट पाकर मुख्य विपक्षी रहने वाली कांग्रेस इस चुनाव में 2 फीसदी वोट भी नहीं हासिल कर सकी। हमेशा वाम की मुखालफत करने वाले कांग्रेस समर्थकों का वोट भाजपा को मिला।

बहरहाल, त्रिपुरा में माकपा अब भी बड़ी ताकत है। वह हारी है, कांग्रेस की तरह खत्म नहीं हुई है। उसे अगर बड़ी और सबसे बड़ी ताकत बनकर फिर से उभरना है तो माकपा नेतृत्व को अपनी आर्थिक और सामाजिक सोच में बड़ी तब्दीली करनी होगी। सोशल इंजीनियरिंग के नये फार्मूले पर विचार करना होगा। नेतृत्व और पार्टी कमेटियों में दलित-आदिवासियों-ओबीसी की हिस्सेदारी बढ़ानी होगी। यही नहीं, उसे तरक्की के ऐसे फार्मूले पर भी गौर करना होगा, जो युवाओं की उभरती आबादी की आशाओं और अपेक्षाओं के अनुरूप हो।

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)