नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह समलैंगिक सेक्स को अपराध मानने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर पुनर्विचार करेगा. इस मामले में फिर से सुनवाई 10 जुलाई से शुरू होगी. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को बरकरार रखने वाले अपने पहले के आदेश पर पुनर्विचार करने का निर्णय लिया है. जस्टिस मिश्रा ने कहा, “हमारे पहले के आदेश पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है.” अदालत ने यह आदेश 10 अलग-अलग याचिकाकर्ताओं की याचिकाओं पर दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि आईपीसी की धारा 377 अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन है.
सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले अपने एक आदेश में दिल्ली हाईकोर्ट के समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के फैसले के विरुद्ध फैसला सुनाया था. इस मामले को एक बड़ी पीठ के पास भेजते हुए कोर्ट ने कहा कि ‘जो किसी के लिए प्राकृतिक है वह हो सकता है कि किसी अन्य के लिए प्राकृतिक न हो.
Petitions against Section 377 of the Indian Penal Code which criminalizes homosexuality to be heard by the Constitution Bench of Supreme Court from July 10.
— ANI (@ANI) July 5, 2018
बैंकर से लेखक बने अमीष त्रिपाठी ने किया समर्थन
लेखक बने अमीष त्रिपाठी भी धारा 377 को खत्म किए जाने का समर्थन करने वालों की सूची में शुमार हो गए हैं, लेकिन उनके तर्क थोड़े से अलग हैं. अमीष ने अपनी नॉन-फिक्शन किताब ‘इममोर्टल इंडिया’ में प्राचीन भारत की सभ्यता का विस्तृत परिदृश्य पेश किया है और तर्क दिया कि इसका आधुनिक दृष्टिकोण है. त्रिपाठी ने इन विवादों को पेश करने से पहले एलजीबीटी अधिकारों पर लिखे अपने लेख में कहा, “मेरा विश्वास है कि अब समय आ गया है कि हम भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर बहस करें, जिसके तहत एलजीबीटी के यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाया गया है. यह कट्टर एवं संकुचित धारा है, जिसे समाप्त किया जाना चाहिए. ऐसे भी लोग हैं, जिनके संस्कृति और धर्म के आधार पर आरक्षण हैं. आइए, उन पर चर्चा कीजिए.”
त्रिपाठी ने बताया, “मैं अन्य धर्मो की धार्मिक पौराणिक कथाओं का विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन जहां तक हिंदू ग्रंथों की बात है, तो मुझे लगता है कि इस बात के पर्याप्त उदाहरण हैं कि प्राचीन भारत में एलजीबीटी अधिकार स्वीकार्य थे.” हिंदू परिदृश्य पर लिखी गई उनकी किताब के एक निबंध में उन्होंने प्राचीन ग्रंथों का हवाला दिया है. उन्होंने हिंदू धर्म की धार्मिक किताबों से कई उदाहरण और उपाख्यानों का उल्लेख किया है कि प्राचीन भारत में एलजीबीटी अधिकार स्वीकार्य थे.