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देश से सारी समस्याएं खत्म हो गयीं हैं क्या…

राजेश श्रीवास्तव

कभी देश का चौथा स्तंभ मीडिया को इसलिए माना गया था कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की निगरानी का काम इसे सौंपा गया था और उम्मीद लगायी गयी थी कि चारों के सरोकारों और कामकाज पर निगहबानी और चौकसी की उम्मीद निष्पक्षता के साथ मीडिया करेगा। लेकिन जैसे-जैसे देश 21वीं शताब्दी में आगे बढ़ा सभी जगह नये कीर्तिमान गढ़े गये। विधायिका ने अपने कीर्तिमानों को ध्वस्त किया। नये-नये कारनामे रचे गये। खरीद-फरोख्त, आचरण, निष्ठा, विश्वास सब कुछ खत्म हो गया और नेता बस देश व समाज छोड़ अपने ही निजी हित साधने लग गये। न्यायपालिका को भी कम विवादों से नहीं गुजरने पड़ा। यह कार्यकाल इसलिए भी याद किया जायेगा कि इसमें जजों को मंच पर जार-जार रोना पड़ा। प्रेस कांफ्रेस करनी पड़ी। जजों को जनता की अदालत में जाना पड़ा। और कार्यपालिका से तो कोई उम्मीद जताना मतलब गहरे पानी में जाकर मोती तलाश करना होगा। यहां अब पूरे प्रदेश या देश में गिने-चुने लोगों की ही ईमानदार अधिकारी के रूप में गिनती होती है। ऐसे में मीडिया से ही सारी उम्मीद बची थी लेकिन जिस तरह से मीडिया सत्ता के साथ गलबहियां कर रहा है उससे उसने अपनी ही पतन की कहानी लिखनी शुरू कर दी है। देश में जो सम्मान उसे प्राप्त था वह खत्म हो रहा है। अब लोगों का मीडिया पर विश्वास का हाल यह है कि लोग इलेक्ट्रानिक मीडिया से ऊबने लगे हैं और उसको देखने वालों का प्रतिशत भी काफी कम हो गया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने तो पत्रकारिता छोड़ बस इसमें होड़ लगा दी है कि कैसे सरकार के करीब पहुंचा जाए। कैसे व्यवसायिकता के हित साधे जायें और कैसे अपने आप को प्रधानमंत्री या सत्ता का करीबी साबित किया जाये।
यदि आप पिछले एक महीने से किसी भी चैनल से गुजरे होंगे तो आपको बखूबी पता होगा कि सुंशात सिंह राजपूत की मौत मामले में जिस तरह खबर चलायी जा रही है उसने सारी खबरों को पीछे छोड़ दिया है। एक चैनल तो बाकायदा एक महीने से सुशांत सिंह राजपूत के पक्ष में खुद ही अदालत लगा कर बैठ गया है तो दो चैनल इस मामले में आरोपी रिया का साक्षात्कार करके उसका पक्ष और माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि सारी जनता जानती है कि इन चैनलों को सुशांत सिंह राजपूत से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि कुछ सरकार के साथ खेल रहे हैं तो कुछ उसके खिलाफ। यह सारा प्रयास सिर्फ बिहार चुनाव के लिए है। सारे देश को अब मीडिया के बारे में पता होता है और यह आम राय ही मीडिया की मंशा को जाहिर करती है और उसकी छवि खराब करती है। मीडिया की स्थिति अब यह हो गयी है कि अब चैनल के एंकर की पहचान इसी से होती है कि वह फला एंकर किस राजनीतिक दल से ताल्लुक रखता है। इसके पीछे देखे तो केंद्र की मोदी सरकार द्बारा चैनलों को दी जाने वाली मोटी राशि का होना है। केंद्र सरकार ने इन चैनलों का बजट बढ़ाया है। ऐसा नहीं कि यह पहले की सरकारें नहीं करती थीं। करती थीं, लेकिन इस हद तक खुलापन नहीं होता था। अब सरकारों के पक्ष में जिस तरह इलेक्ट्रानिक मीडिया ताल ठोंक रहे हैं। उससे न केवल उनकी छवि को बट्टा लगा रहा है बल्कि पत्रकारिता के मिशन को भी चोट पहुंच रही है। शायद यही कारण है कि अब पत्रकारों को सरकारें गंभीरता से नहीं लेतीं और कई पत्रकारों की हत्यायें तक हो गयीं और मीडिया संगठनों को धरना-प्रदर्शन करना पड़ता है सरकार से आर्थिक मदद पाने के लिए और न्याय पाने के लिए लड़ना पड़ता है। वह दौर भी याद करने की जरूरत है जब पत्रकारा नाराज हो जाता था तो मुख्यमंत्री तक उसके घर पहुंच जाते थ्ो उसके घर उसको मनाने के लिए। आखिर क्यों नहीं हम उस छवि को पाना चाहते। उस इमेज को यदि हम हासिल कर लेंगे तो निश्चित रूप से हमें लाभ ही होगा और शायद जितना आज मिल रहा है उससे ज्यादा ही होगा। लेकिन हम अपने उद्देश्यों से भटक गये हैं और हमें लगता है कि सरकार के पीछे भागने से हमारा सम्मान बढ़ेगा। लेकिन यह तय है कि यह केवल मृग मारीचिका ही साबित होगी। हमें सही को सही कहना सीखना होगा। गलत को सही कह कर हम न खुद से न्याय कर पाएंगे न अपने कर्तव्यों से। अभी सुशांत से बड़ी कई खबरें हैं। देश बाढ़ से, कोरोना से, जेइई-नीट परीक्षा के भय से, बेरोजगारी से, भुखमरी से, खत्म होते व्यवसायों से, बिकते सरकारी संस्थानों से आदि-आदि तमाम समस्याओं से त्रस्त है। उधर भी देखिये।