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गोरखपुर उपचुनाव: ये बुआ-बबुआ की जीत नहीं बल्कि बीजेपी में भितरघात की जीत है

उपेंद्र शुक्ला अगर जीतते तो ये बीजेपी, मोदी और योगी की जीत से ज्यादा गोरखपुर के मठ की हार होती. गोरखपुर में बीजेपी की इस हार में ‘मठ’ की जीत भी छिपी है

लखनऊ। कहते हैं गोरखपुर में बीजेपी की हार की आधी स्क्रिप्ट तो उसी दिन लिख दी गई थी, जब वहां से उपेंद्र दत्त शुक्ला को प्रत्याशी बनाया गया था. उपेंद्र शुक्ला अगर जीतते तो ये बीजेपी, मोदी और योगी की जीत से ज्यादा गोरखपुर के मठ की हार होती. गोरखपुर में बीजेपी की इस हार में कहीं न कहीं ‘मठ’ की अपनी जीत भी छिपी है.

गोरखपुर की सियासत को करीब से जानने वाले इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि यहां की सियासत ब्राह्मण बनाम ठाकुर की चलती आ रही है. ये लड़ाई आज की नहीं है. दशकों पहले ये लड़ाई शुरू हुई थी, जो आज भी जारी है.

बताया जाता है कि उस वक्त गोरखनाथ मंदिर के महंथ दिग्विजय नाथ हुआ करते थे. गोरखपुर के ब्राह्मणों के बीच पं. सुरतिनारायण त्रिपाठी बहुत प्रतिष्ठित थे. किसी वजह से दिग्जिवज नाथ ने सुरतिनारायण त्रिपाठी का अपमान किया था. वहीं, से क्षत्रिय बनाम ब्राह्मण का गणित शुरू हो गया.

इसके बाद उस वक्त के युवा नेता हरिशंकर तिवारी ने दिग्विजय नाथ के खिलाफ आवाज उठाई. आगे चलकर ठाकुरों का नेतृत्व वीरेंद्र शाही के हाथ आया, लेकिन हरिशंकर तिवारी का ‘हाता’ और अवैद्यनाथ के ‘मठ’ के बीच गोरखपुर में वर्चस्व की लड़ाई चलती रही.

90 के दशक में योगी आदित्यनाथ के हाथ मठ की कमान आई. योगी ने ‘मठ’ की ताकत बढ़ाई. उनकी हिंदू युवा वाहिनी आसपास के कई जिलों में सक्रिय हुई. इसी बीच साल 1998 में माफिया डॉन श्रीप्रकाश शुक्‍ला का एनकाउंटर कर दिया गया, जिसे ब्राह्मण क्षत्रप कहा जाता था.

गोरखपुर में ब्राह्मणों और राजपूतों के बराबर वोट हैं, लेकिन योगी आदित्यनाथ की ताकत लगातार बढ़ी, ब्राह्मण नेतृत्व कमजोर होता गया. इसके साथ ही ‘हाता’ का असर कम होता गया. उस वक्त शिवप्रताप शुक्ला ब्राह्मणों के सर्वमान्य और ताकतवर नेता थे. लेकिन योगी की बढ़ती ताकत के साथ ही उनका राजनीतिक पतन होता चला गया. हालत तो ये हुई कि कुछ वर्षों के लिए शिवप्रताप शुक्ला राजनीतिक पटल से ही ओझल हो गए. इस बीच राज्य से लेकर केंद्र तक योगी आदित्यनाथ का राजनीतिक कद लगातार बढ़ता रहा.

मोदी-शाह युग से पहले आलम ये था कि पूर्वांचल में एक वक्त में मामला योगी बनाम बीजेपी हो गया था. वह जिसे चाहते उसे टिकट मिलता, जिसे नहीं चाहते वह टिकट पाकर भी हार जाता. मजबूरन बीजेपी को उनके आगे घुटने टेकने पड़ते. उनकी हर बात माननी पड़ती. योगी की बनाई हिन्दू युवा वाहिनी इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी.

साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला. मुख्यमंत्री के लिए कई नाम सामने आए. मनोज सिन्हा का नाम फाइनल तक हो गया. लेकिन ऐसा माना जाता है कि आरएसएस के समर्थन से योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे. उनके मुख्यमंत्री बनते ही यूपी में सबसे ज्यादा नाराजगी ब्राह्मणों में थी. यह बात केंद्रीय नेतृत्व तक पहुंची.

इसके बाद मोदी और शाह ने डैमेज कंट्रोल के लिए कई कोशिशें की, जिसमें महेंद्र पांडेय को यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाना भी शामिल है. बीजेपी नेतृत्व पूर्वांचल में ठाकुर बनाम ब्राह्मण से भली भांति परिचित हो चुका था. इसलिए योगी की सीट पर टिकट देने के लिए किसी ब्राह्मण चेहरे की तलाश थी, ताकि यहां भी संतुलन बनाया जा सके.

बीजेपी संगठन और आरएसएस की राय से गोरखपुर उपचुनाव के लिए उपेंद्र दत्त शुक्ल मोदी और अमित शाह की पहली पसंद बने. लेकिन सूत्र बताते हैं कि योगी आदित्यनाथ कतई नहीं चाहते थे कि गोरखपुर का नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में जाए. योगी के सामने अपनी सीट बचाने से ज्यादा अहम था गोरखपुर में अपने ‘मठ’ की ताकत को बचाना.

इसके बावजूद उपेंद्र दत्त शुक्ल को गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. चूंकि आदेश अमित शाह का था, तो इसके सीधे विरोध में जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी. लेकिन अंदरखाने साजिशों और दुरभिसंधियों का दौर शुरू हो गया. बतौर सीएम योगी ने जमकर प्रचार किया, लेकिन योगी के लोग निष्क्रिय हो गए.

सभी जानते हैं कि पूर्वांचल में बीजेपी का मतलब योगी और योगी का मतलब संगठन है. ऐसे में किसी भी उम्मीदवार के लिए उनकी मर्जी के बिना जीत हासिल करना टेढ़ी खीर है. इस बार तो आलम ये रहा कि बूथ पर बीजेपी के एजेंट तक मौजूद नहीं थे. इसके उलट सपा और बसपा के समर्थक जोश से लगे हुए थे, जिसका परिणाम सबके सामने है.