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गठबंधन बीजेपी के लिए चुनौती तो खुद के लिए महाचुनौती

राजेश श्रीवास्तव

राजनीति में कभी कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता, इस बहुत पुरानी कहावत पर अमल करते हुए 26 साल बाद राजनीति के धुर विरोधी और एक-दूसरे को कोस कर आगे बढ़ने वाले दो राजनीतिक दलों ने शनिवार को एक दूसरे से गठबंधन कर लिया। दोनों ने एक-दूसरे के प्रति आस्था दिखायी। एक-दूसरे के प्रति इमोशनल भी हुए। खुद एक-दूसरे का अपमान करने वाले और नीचा दिखाने वाले नेताओं ने एक-दूसरे का अपमान अपना अपमान बताया। दोनों दलों ने इसे लोकतंत्र और जनहित के लिए बताया। सबसे बड़ी बात सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव को जीवन भर अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने वाली बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने अपनी सियासी वजूद बचाने के लिए स्टेट गेस्ट हाऊस कांड को भी भुला दिया। शनिवार को प्रदेश की जनता ने गोमतीनगर के ताज होटल में तकरीबन डेढ़ साल पहले इसी तरह से अखिलेश यादव को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ भी गलबहियां करते देखा था। लेकिन हाथ का साइकिल पर से हाथ बहुत जल्दी हट गया। मात्र डेढ़ साल पहले दोनों ने ठीक आज की तरह ही एक-दूसरे का लंबे समय तक साथ देने और गठबंधन करने का वायदा जनता के सामने किया था। लेकिन महज डेढ़ साल में वह साथ छू-मंतर हो गया और आज अखिलेश यादव राहुल गांधी को पानी पी-पीकर कोसते हैं।
àशनिवार को सारे मतभेदों को भुलाकर जिस तरह भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए सपा-बसपा करीब आये और बिना कांग्रेस के 38-38 सीटों पर गठबंधन का ऐलान कर लिया। उससे वह भले ही कहें कि वह भाजपा को दूर कर लेंगे। भाजपा के लिए लंबी चुनौती बनेंगे। हालांकि यह भी तय है कि यह गठबंधन भाजपा पर भारी पड़ने वाला है। लेकिन यह गठबंधन खुद उनके लिए कितनी बड़ी चुनौती साबित होगा, यह भी कम दिलचस्प नहीं हैं। सपा-बसपा दोनों ऐसे धु्रव हैं जिनमें बहुत ज्यादा देर तक एका संभव नहीं है। 26 साल पहले भी जब गठबंधन हुआ तो महज ढाई साल में ही टूट गया। मायावती जिस तरह सत्ता की महत्वाकांक्षी हैं और उनके अब तक के सियासी अनुभवों को देख्ों तो साफ हो जाता है कि उनका किसी के साथ भी साथ लंबे समय तक नहीं चला। अगर यह अगले पांच साल भी चल जाये तो उसे बड़ी उपलब्धि ही माना जायेगा। क्योंकि मायावती जिस तरह बार्गेन करती हैं वह सपा के लिए आसान नहीं होगा।
बसपा, सपा, रालोद और अन्य छोटे दलों को मिला कर यूपी में महागठबंधन की तैयारी है। मगर इतिहास रहा है कि उत्तर प्रदेश में कभी भी गठबंधन की राजनीति बहुत लंबी नहीं चल सकी है। 1989 से ये दौर शुरू हुआ। जिसमें सपा-बसपा, भाजपा-बसपा, कांग्रेस-बसपा, रालोद-कांग्रेस जैसे अनेक गठबंधन हुए। मगर आपसी स्वार्थ के चलते कभी लंबे समय तक नहीं टिक सके। यहां तक कि लगभग हर बार ही गठबंधन की राजनीति ध्वस्त होती रही। लगभग 1० साल तक यूपी में मध्याविधि चुनाव का दौर इसी वजह से चलता रहा था, जिसका सिलसिला 2००1 में रुका था। कोई बड़ा दल ऐसा नहीं… बसपा और सपा गठबंधन के जरिये करीब 41 फीसदी वोटों पर कब्जे की रणनीति बनाई जा रही है। पहले भी गठबंधन की राजनीति प्रदेश में तात्कालिक तौर पर तो कामयाब रही, मगर लंबे समय तक गठबंधन कभी नहीं चल पाए। कोई भी ऐसा बड़ा दल नहीं रहा जिसने कभी न कभी गठबंधन न किया हो मगर उसका नतीजा कुछ खास नहीं रहा। तब बर्खास्त कर दी गई बीजेपी की सरकार 1989 में जब मुलायम सिह यादव मुख्यमंत्री बने थे, तब भाजपा का समर्थन उनके साथ था। वे संयुक्त मोर्चा से मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद 199० में जब राम मंदिर आंदोलन के दौरान लालकृष्ण आडवाणी के रथ को रोका गया था, तब भाजपा ने केंद्र और राज्य सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था।

इसके बाद में 1991 की राम लहर में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार राज्य में बनी थी। मगर 1992 में जब विवादित ढांचा ध्वस्त हुआ तब कल्याण सिह की बीजेपी की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। तब सपा समर्थकों ने घेरा था मायावती को इसके बाद में 1993 में जब चुनाव हुए थे तब पहली बार बसपा और सपा का गठबंधन हुआ था। जिसमें छह-छह महीने के लिए सीएम बनाने का फार्मूला सामने आया। जिसमें पहली बार में मायावती मुख्यमंत्री बनीं। मगर 94 में जब मुलायम सिह यादव के सीएम बनने का नंबर आया, तब मायावती ने उनसे समर्थन वापस ले लिया था। जिसके बाद में दो जून 1994 को वीआईपी गेस्टहाउस में मायावती को सपा के लोगों ने घेर लिया था। जहां से बीजेपी नेता ब्रह्मदत्त द्बिवेदी ने उनको सुरक्षित बाहर निकाला था। और जब कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन हुआ इसके बाद में बीजेपी के समर्थन से मायावती दोबारा मुख्यमंत्री बनी थी। यहां एक नया गठबंधन हो गया था। मगर कुछ समय बाद बसपा से 22 विधायक अलग हुए थे और तब उन विधायकों ने भाजपा को समर्थन देकर कल्याण सिह को दोबारा सीएम बनाया गया। मगर ये गठबंधन भी लंबा नहीं चला। आखिरकार में 2००1 में राजनाथ सिह जब यूपी के मुख्यमंत्री थे, तब जब चुनाव हुए तो कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन हुआ था। मगर बसपा कोई लाभ नहीं हुआ था। जबकि कांग्रेस ने चुनाव के बाद मुलायम सिह यादव को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवा दी। इसके बाद 2००7 में और फिर 2०12 में पूर्ण बहुमत की सरकारें प्रदेश में बनती रहीं। 2०12 में रालोद और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ था, मगर उसका कोई भी सकारात्मक परिणाम नहीं आया। दोनों दलों ने मिला कर मात्र 28 सीटें ही जीतीं।
मतलब साफ है कि बसपा-सपा का गठबंधन जितना भाजपा के लिए चुनौती है उतना ही खुद के लिए भी महाचुनौती। चुनाती भाजपा के लिए इस बात की कि वह इस गठबंधन से कैसे निबटेंगे और खुद के लिए सपा-बसपा को इस बात की महाचुनौती कि वह इस एका को कितने समय तक बनाये रखने में सफल रहेंगे। कब तक हाथी साइकिल पर बैलेंस बनाये रख सकेगा, यह देखने वाली बात होगी।