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आखिर किस पंथ का अनुयायी है राम-रहीम

राजेश श्रीवास्तव

यह प्रकृति की सत्ता के साथ खिलवाड़ है। राष्ट्र की सत्ता के साथ खिलवाड़ है। भारत के संविधान के साथ खिलवाड़ है। भारत में न्याय व्यवस्था को सीधे -सीधे  चुनौती है। भारतीय न्यायिक प्रणाली को चुनौती है। यह अतिवाद है। इसमें कोई संन्यास नहीं। कोई धार्मिकता नहीं। कोई मानवीयता नहीं और कोई सामाजिक सरोकार नहीं है।

यह एक मनबढ़ और दंभी व्यक्ति का शक्ति प्रदर्शन है, जिसके आगे हरियाणा सरकार के साथ-साथ न्याय पालिका को भी सिर्फ देखने के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा है। हाईकोर्ट पिछले तीन दिन से चिल्ला रहा था लेकिन कुछ नहीं हुआ। शुक्रवार को अदालत में राम रहीम को ऐसे लाया गया जैसे वह कोई हीरो हो। तीन घंटे तक टीवी पर उसका लाइव चलता रहा।

मानो वह कोई अभिनेता हो। यौन शोषण और दुराचार के दोषी कथित संत को हरियाणा सरकार ने इस तरह पेश किया कि धारा 144 लागू होने के बावजूद उसके समर्थक सड़कों पर नंगा नाच करते रहे। इस हिंसा में 29 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी तो ढाई सौ से ज्यादा लोग चोटिल हुए हैं। पत्रकार और पुलिसकर्मी भी घायल हुए। आखिर किस धर्म और पंथ का अनुयायी था यह फिल्मी संत जिसकी शिक्षा पाएं समर्थकों ने सड़कों पर खून-खराबा किया। सवाल यह उठता है कि आखिर राम रहीम को संत किसने बनाया।

क्या इन्होंने कोई संन्यास लिया। क्या संन्यासी बनने की औपचाकिताएं पूरी कीं। भारत में आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश के लिए तो सभी को छूट है लेकिन संत बनने के लिए कई औपचाकिताएं पूरी करनी पड़ती हैं। इसमें अपने पितरों से लेकर स्वयं तक के पिंडदान की परंपरा है। भारत में किसी भी व्यक्ति को संत बनने की अनुमति नहीं होती जब तक उसे किसी आचार्य अथवा पीठ से दीक्षा न मिली हो। इसके बाद संत समाज में व्यवस्था के अनुरूप तीन अड़ियों, तेरह अखाड़ों और 147 संप्रदायों में से किसी एक का अनुगमन करना आवश्यक होता है। यह देश का दुर्भाग्य है कि ऐसे-ऐसे लोग आज स्वयंभू संत बनकर स्थापित हो चुके हैं जो कहीं से इस श्रेणी में आते ही नहीं हैं।

राजनीतिक दलों की तह भारी-भरकम भीड़ इकट्ठी कर लेना और मदारी बनकर उस भीड़ पर शासन करने से कोई संत नहीं हो जाता। यह विडंबना है कि सारी व्यवस्थाओं के बावजूद देश में ऐसे कथित मदारी संतों की भरमार हो गयी है, जिसका खमियाजा समाज को कभी राम रहीम, कभी रामपाल, तो कभी आसाराम के रूप में भुगतना पड़ता है। यह रामरहीम जो सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है, इसके पहले रामपाल ने भी इसी तरह का उत्पात किया था। वह भी स्वयं को कबीर का अनुयायी कहता था।

कोई रामरहीम से पूछे कि किस धर्म या पंथ या फिर किस धर्मगुरू ने अपने किस संदेश में इतनी बड़ी मात्रा में धन संग्रह और हथियार संग्रह को वरीयता दी है। कोई इससे पूछे कि कब किसी संत ने कब स्वयं को राष्ट्र और समाज से ऊपर भगवान की संज्ञा दी है। कोई इससे पूछे कि यह किस पंथ का अनुयायी है। यह राम रहीम किसी भी प्रकार से किसी संत का अनुयायी तो हो ही नहीं सकता और यदि ऐसा इसका दावा है तो इसे सबसे पहले किसी संत या महापुरुष को बदनाम करने के लिये सामाजिक सजा दी जानी चाहिए।

जिस तह से भोली-भाली ग्रामीण जनता को, स्त्रियों को और बच्चों को राम रहीम जैसे लोग अपने मोहपाश में फंसाते हैं और उन्हीं के चढ़ावे से अपने साम्राज्य खड़े करते हैं तो यह सब केवल रातों-रात नहीं हो जाता। दिक्कत यह है कि समाज में राम रहीम जैसे पेड़ जब उगने शुरू होते हैं तो अध्यात्म के बगीचे में उगने वाले ऐसे जंगली पौधों को पहले ही नष्ट करने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती। यह समस्या तब खड़ी करते हैं जब अपनी जड़ें बहुत गहरे तक जमा लेते हैं।

तब वास्तविक संत समाज चुपचाप तमाशा देखता है और इनकी कारगुजारियों की सजा समाज को भुगतना पड़ती है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि ऐसे किसी संत को गिफ्तार करने के लिए इतने पापड़ बेलने पड़े हों। संत आसाराम के समय में भी कुछ इसी तरह का नजारा देखने को मिला था। इससे पहले भी उसी हरियाणा में डेरा सच्चा सौदा वाले राम-रहीम को अदालत में पेश कराने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी थी। लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि किसी संत के मठ के भीतर से निकले समर्थक सड़कों पर तांडव कर रहे हैं। डेरा समर्थकों का यह उत्पात यह बताता है कि उसके कथित समर्थक जो कुछ कर रहे हैं, या होता रहा है।

वह कहीं से आध्यात्मिक नहीं हो रहा है क्योंकि समर्थकों ने जिस तरह केवल लोगों की जान-माल का ही नुकसान नहीं किया। दो ट्रेनों की बोगी को आग के हवाले कर दिया। इस सब के बावजूद हरियाणा सरकार अभी भी रामरहीम पर मेहरबान है। दोषी करार देने के बाद उन्हें जब चोपर से जेल ले जाया जा रहा था तो भी वह मुस्कुराते हुये फोन पर बात कर रहे थे। हरियाणा सरकार और राम रहीम के रिश्ते जगजाहिर हैं। चुनाव में यही भाजपा उनके आगे नतमस्तक थी और भाजपाई आशीवार्द लेने भी पहुंचे थे।