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जनादेश का संदेश : मोदी की अमोघ शक्ति ने तोड़ दिया जातियों का ब्रम्हास्त्र

क्षेत्रीय दलों को लोगों की आकांक्षाओं को समझना होगा

राजेश श्रीवास्तव
लखनऊ । जनादेश का संदेश साफ कर रहा है कि अब क्ष्ोत्रीय दलों का अस्तित्व समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। भारतीय जनता पार्टी की जिस तरह दूसरी बार, पहली बार से अधिक, बड़ी जीत हुई है । उससे साफ है कि उसका विकल्प तलाशने के लिए विपक्षी दल कांग्रेस को भी नये नेरेटिव तलाशने होंगे। अब नारों से भाजपा चुकने वाली नहीं हैं। जब तक भाजपा के पास नरेंद्र मोदी नामक अमोघ शक्ति है तब तक कांग्रेस को अब किसी नये ब्रम्हास्त्र की तलाश करनी होगी।
वहीं  क्षेत्रीय दलों को साफ तौर पर जान लेना चाहिए कि अब उनके बहकावे में जाति-धर्म के लोग नहीं फंसने वाले नहीं हैं। इस चुनाव में जातियों के बैरियर टूटे हैं। हिंदू-मुस्लिम समीकरण पूरी तरह ध्वस्त हो गया है। सपा-बसपा के गठबंधन की करारी हार से यह साफ हो गया है कि अब यादव-जाटव का फार्मूला नहीं चलने वाला है। अब मुस्लिमों को हिंदुओं से डराने के नाम पर नहीं अपने साथ शामिल किया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के बावजूद भाजपा को निर्णायक बढ़त, बिहार में महागठबंधन पर एनडीए का भारी पड़ना यह भविष्य की सियासत के लिहाज से क्षेत्रीय या छोटे दलों के लिए पहाड़ जैसी चुनौती का संकेत दे रहे हैं। जानकारों का कहना है कि खासतौर पर यूपी व बिहार में क्षेत्रीय दलों को चंद जातियों के समूह से बाहर निकलकर व्यापक सोच के आधार पर नया फार्मूला खोजना पड़ेगा।
इन चुनावों में मोदी ब्रांड क्षेत्रीय जातीय क्षत्रपों पर भारी पड़ा। जातियों का व्यूह टूटा है। मोदी की ठोस निर्णय लेने वाले नेता की छवि और करिश्मा ने यूपी, बिहार के क्षेत्रीय दलों का जातीय तिलिस्म तोड़ दिया। इससे साफ है कि चंद जातियों का समूह बनाकर चुनाव जीतना अब बहुत मुश्किल हो गया है।
जानकारों के मुताबिक जातीय समीकरण पर धु्रवीकरण व राष्ट्रवाद, परसेप्शन और आशावादी नेतृत्व का हावी पड़ना इस बात का संकेत है कि क्षेत्रीय दलों को भी नए नैरेटिव खोजने होंगे। क्षेत्रीय दल शायद उस स्थिति में ही प्रासंगिक हो सकते हैं जब वे राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर उम्मीदों का प्रतिनिधित्व करें। परसेप्शन की लड़ाई में उन्हें लोगों की आकांक्षाओं को समझना होगा। क्षेत्रीय दलों को नई सियासत का मर्म समझना होगा।
बिहार में कभी यादव-मुस्लिम समीकरण चलता था, यूपी में भी ऐसे ही समीकरणों के साथ सपा, बसपा जीतते थे। अब पिछड़ों में अति पिछड़ा व दलितों में अति दलित जैसे नए समूह भी चुनाव में अहम भूमिका निभाने लगे हैं। जानकारों का कहना है कि कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने अपनी ताकत दिखाई है। क्योंकि राज्यों में उनकी विश्वसनीयता बनी रही।
तमिलनाडु में भाजपा विरोधी खेमे में होने के बावजूद द्रमुक अपनी ताकत दिखाने में कामयाब हुई। क्योंकि अन्नाद्रमुक में जयललिता के निधन के बाद पूरी तरह बिखराव हो गया। एनडीए और यूपीए दोनों से समान दूरी बनाने वाले दल तेलंगाना में टीआरएस, आंध्र में वाईएसआर कांग्रेस और ओडिशा में बीजद की कामयाबी इस बात का संकेत है कि अगर राज्यों में मजबूत नेतृत्व और आशा पैदा करने वाला नेतृत्व हैं तो क्षेत्रीय दल प्रासंगिक बने रह सकते हैं।
2०19 के लोकसभा चुनाव नतीजों से स्पष्ट है कि जातियां अब कभी किसी की बंधुआ होकर नहीं रह सकतीं। इसलिए सोशल इंजीनियरिग का नया फार्मूला खोजकर अपना दायरा बढ़ाना यूपी व बिहार में क्षेत्रीय दलों की बड़ी चुनौती होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्षेत्रीय दलों पर राष्ट्रीय दलों की सियासत हावी हो सकती है। या नए विकल्प भी उभरकर सामने आ सकते हैं।