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आधा शेर : एक राजनीतिक शेर जो खुद राजनीति का शिकार हो गया

गायत्री आर्य

इस पुस्तक के अध्याय ‘अधजला शव’ का एक अंश:

‘गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने राव के सबसे छोटे बेटे प्रभाकर को सुझाव दिया कि पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार हैदराबाद में किया जाना चाहिए. लेकिन परिवार की प्राथमिकता दिल्ली थी. राव तीस साल से भी अधिक समय आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने कांग्रेस के महासचिव, केन्द्रीय मंत्री और अंततः प्रधानमंत्री के रूप में दिल्ली में काम किया था. यह सुनकर आमतौर पर बहुत शालीनता से पेश आने वाले शिवराज पाटिल ने झल्लाते हुए कहा, ‘कोई नहीं आएगा.’…परिवार ये वादा चाहता था कि राव के लिए दिल्ली में स्मारक बनाया जाए…

शिवराज पाटिल ने जब दिल्ली में स्मारक बनाए जाने की मांग मनमोहन सिंह को बताई तो उन्होंने कहा, ‘कोई बात नहीं. हम यह कर लेंगे.’ प्रभाकर उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘हमें तभी अहसास हो गया था कि सोनिया जी नहीं चाहतीं कि पिताजी का अंतिम संस्कार दिल्ली में हो. वे दिल्ली में स्मारक भी नहीं बनने देना चाहती थीं. वे नहीं चाहती थीं कि उन्हें अखिल भारतीय नेता के रूप में देखा जाए…लेकिन दबाव बहुत था. हम राजी हो गए.’


पुस्तक : आधा शेर

लेखक : विनय सीतापति

अनुवादक : नीलम भट्ट

प्रकाशक : ऑक्सफोर्ड प्रकाशन

कीमत : 495 रुपए


असली जंगल की तरह राजनीति के मैदान में भी ज्यादातर मौकों पर दिन की रौशनी में, खुलेआम शिकार होते हैं. कभी घात लगाकर तो कभी बिना घात लगाए. कभी शिकार अपनी जान से जाता है तो कभी खुद ही शिकारी शिकार बन जाता है. राजनीति के खेल में जितनी बाजियां पलटती हैं उतनी शायद ही किसी और खेल में पलटती हों. फर्क बस इतना है कि इस रोमांचक और खतरनाक खेल का आखों-देखा वर्णन नहीं होता और न ही कोई सीधा प्रसारण. इस खेल के जितने हिस्सों का प्रसारण हमें दिखाया जाता है, उससे कहीं ज्यादा छिपाया जाता है. वह एक अदृश्य और अलिखित सेंसरशिप के साये में रहता है. लेकिन ‘आधा शेर’ हमें एक पूर्व प्रधानमंत्री के जीवन के पर्दे के पीछे की ऐसी ही कहानी बताती है. यह किताब बिना किसी लुकाछिपी के कांग्रेस पार्टी के एक अदभुत नेता पीवी नरसिम्हा राव के राजनीतिक जीवन की दिलचस्प लेकिन त्रासद यात्रा का वर्णन करती है.

पीवी नरसिम्हा राव भारतीय राजनीति के सबसे त्रासद व्यक्तित्वों में शुमार किए जा सकते हैं. उन्हें उनके शासनकाल में जो कुछ गलत हुआ उसके लिए तो हमेशा याद किया जाता है, लेकिन जो कुछ भी सही या अच्छा हुआ उसके लिए बहुत कम श्रेय दिया जाता है. यह उनका दुर्भाग्य है कि जिस पार्टी के लिए वे सदा प्रतिबद्ध रहे और जिसे उन्होंने गांधी परिवार से भी पहले रखा, उसी पार्टी ने बाद में उनसे बुरी तरह पल्ला झाड़ लिया. शायद यही उनकी सबसे बड़ी गलती थी कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी को गांधी परिवार के साये से स्वतंत्र करने की कोशिश की. यह भूल उनके पूरे राजनीतिक जीवन पर भारी पड़ी. यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी नरसिम्हा राव को खलनायक की तरह भी पेश करती है. राहुल गांधी सार्वजनिक तौर पर यह दावा कर चुके हैं कि अगर 1992 में उनका परिवार सत्ता में होता, तो बाबरी मस्जिद नहीं गिरती. नरसिम्हा राव के प्रति पार्टी के उपेक्षित रवैये का जिक्र करते हुए एक जगह सीतापति लिखते हैं –

‘मौत के बारह साल बाद भी पार्टी पीवी नरसिम्हा राव की अनदेखी करती रही. 2004 से 2014 तक केंद्र या आंध्र प्रदेश राज्य में कांग्रेस सत्ता में रही. इस दौरान उनके लिए कोई स्मारक नहीं बनाया गया. सरकार ने कभी आधिकारिक तौर पर उनका जन्मदिन नहीं मनाया…सोनिया गांधी द्वारा नरसिम्हा राव को नापसंद किए जाने की एक बुनियादी वजह थी. नटवर सिंह के अनुसार, राव समझ गए थे कि प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें सोनिया के सामने हाज़िरी नहीं देनी थी. उन्होंने नहीं दी. सोनिया को यह बात बुरी लगी…राव को बहुत सूक्ष्म तरीके से दरकिनार किए जाने के साथ-साथ उनकी विरासत पर कालिख पोतने के अधिक स्पष्ट प्रयास किए गए. आर्थिक उदारीकरण के मामले में कांग्रेस, विचारों के लिए राजीव गांधी और उनके क्रियान्वयन के लिए मनमोहन सिंह को श्रेय देना चाहती है.’

नरसिम्हा राव एक ऐसी शख्सियत थे जिनके लिए देश की एकता और अखंडता काफी मायने रखती थी. इसके लिए उन्होंने बहुत बार मानवाधिकारों का उल्लंघन या फिर अनदेखी भी की. असम में उल्फा के शीर्ष नेतृत्व और पंजाब में खालिस्तानियों का सफ़ाया करना ऐसी ही घटनाएं हैं. उनके ये कदम बताते हैं कि भारत की अखंडता को बनाए रखने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे. वे लोकतंत्र और स्वतंत्रता दोनों में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे. इसने ही उन्हें इस तरह का विरोधाभासी व्यक्तित्व बनाया. अपने भीतर के इस क्रांतिकारी व्यक्तित्व को पुष्ट करने का काम उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल से ही शुरू कर दिया था. इसी पर प्रकाश डालते हुए सीतापति लिखते हैं –

‘शुरुआती वर्षों में राज्य में कांग्रेस की राजनीति पर ब्राह्मण हावी थे लकिन बाद में बड़ी तादाद वाले रेड्डी जाति के नेताओं ने उनकी जगह ले ली. ब्राह्मण नरसिम्हा राव अब अगली क्रांति की ओर बढ़ रहे थे. उन्होंने रेड्डी और अन्य अगड़ी जाति के मंत्रियों को अपने मंत्रिमंडल से हटा दिया और अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यकों की संख्या पच्चीस से बढ़ाकर चालीस कर दी. वे आंध्र प्रदेश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने किसी जनजातीय व्यक्ति को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था. विशिष्ट वर्ग के हाथ से न केवल उसकी ज़मीन जा रही थी बल्कि उसके राजनीतिक पर भी कतरे जा रहे थे.’

भारतीय राजनीति का इतिहास पीवी नरसिम्हा राव के प्रति बहुत निर्मम रहा है. यह किताब उन्हें उनका खोया हुआा सम्मान दिलाने की सच्ची और अच्छी कोशिश करती है. रामचंद्र गुहा के शब्दों में, ‘पीवी नरसिम्हा राव आसानी से समझ में न आने वाले और मुख्य रूप से एक असम्मानित व्यक्तित्व रहे हैं. उनके कार्य और प्रभाव के इस दिलचस्प अध्ययन में विनय सीतापति ने आधुनिक भारतीय इतिहास में राव को उनके सही स्थान पर फिर से स्थापित किया है.’

अनुवादक नीलम भट्ट ने हिन्दी पाठकों को अंग्रेजी की एक अनुदित किताब पढ़ने के झिलाऊ से अहसास से बखूबी बचाया है. पूरी किताब मूलतः हिन्दी में ही लिखी गई लगती है, यही उनके अनुवाद की सफलता है. विनय सीतापति ने इस किताब में एक तरह से पीवी नरसिम्हा राव का बेहद रोचक वृत्तचित्र ही बना दिया है, जिससे गुजरना पाठकों को काफी रोमांचक लगेगा. इस किताब को पढ़कर पता चलेगा कि कैसे पूरे देश का वर्तमान और भविष्य हमेशा के लिए बदलने वाले प्रधानमंत्री खुद अपना ही दुर्भाग्य नहीं बदल सके!

यह किताब नरसिम्हा राव के निजी और राजनैतिक जीवन के अनकहे पहलुओं को बहुत ही रोचक अंदाज में बयान करती है. उन पहलुओं को जिन्होंने नब्बे के दशक के बाद इस देश में कुछ बहुत बड़े आमूल-चूल परिवर्तन किए थे. कांग्रेस के परिवार से बाहर के एक प्रधानमंत्री का वह पक्ष जिसे स्वीकारने का साहस परिवार और पार्टी के किसी सदस्य में न है और न कभी होगा. ‘आधा शेर’ नरसिम्हा राव के भीतर के व्यक्ति, उनके मुश्किलों से भरे बचपन, उनके भ्रष्टाचारों, उनके प्रेम प्रसंगों, उनके अकेलेपन के साथ उनके बेखौफ राजनीतिक जीवन की जीवंत कहानी कहती है.