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आदि गुरु शंकराचार्य जिन्होंने वेदों को, उपनिषदों को, ब्रह्म सूत्रों को एक नया रुप दिया

जब-जब हिंदुत्व की बात होगी तब तब महा ज्ञानी, परम पितामह जगतगुरू आदि शंकराचार्य की बात होगी। कहते है कि भगवान को अगर समझना है तो आदि गुरु शंकराचार्य को पढ़ना होगा। माना जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने वेदों को, उपनिषदों को, ब्रह्म सूत्रों को एक नया रुप दिया है। इस ब्रह्मांड को समझने के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने कई रचनाएं भी की हैं। कहा तो यह भी जाता हैं कि वह आदि गुरु शंकराचार्य ही थे, जिन्होंने चारों दिशाओं में मठों की स्थापना की। आदि गुरु शंकराचार्य के जन्म को लेकर कई मतभेद हैं। हालांकि ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि इनका जन्म 788 में हुआ था और वह 32 सालों तक जीवित रहे थे। कुछ लोग यह भी दावा करते हैं कि इनका जन्म 2500 साल पहले बिफोर क्राइस्ट हुआ था। शंकराचार्य का जन्म शंकर के रूप में केरल के कालडी के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इन्हें भगवान का अवतार भी माना जाता है।

कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य की मां ने भगवान शिव की काफी पूजा की थी। भगवान शिव इनके मां के सपने में आए थे और तब इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु था जबकि माता का नाम अर्याम्बा था। इनके पिताजी की मृत्यु बेहद ही कम उम्र में हो गई थी। शंकराचार्य बहुत बड़े विद्वान थे और उनमें सीखने की क्षमता बेहद ही ज्यादा थी। कहा जाता है कि जिस उम्र में बच्चे ठीक से चल भी नहीं सकते हैं उस उम्र में इन्होंने सारे वेदों को कंठस्थ कर लिया था। अपने इंद्रियों पर इन्होंने काबू कर लिया था। जिन शास्त्रों को अध्ययन करने में 20-20 साल लग जाते थे, उन्हें आदि गुरु शंकराचार्य ने 2 वर्ष में ही पूरा कर लिया था। आदि गुरु शंकराचार्य की प्रारंभिक शिक्षा उनके मां द्वारा ही कराई गई। उनकी मां ने ही उन्हें वेदों और उपनिषदों का ज्ञान दिया।

9 साल की उम्र में इन्होंने अपनी माता जी से यह कह दिया था कि मुझे सन्यासी बनना है। हालांकि उनकी माता ने इसे खारिज कर दिया। इससे जुड़ी एक कहानी भी है। कहा जाता है कि इसके बाद आदि गुरु शंकराचार्य एक नदी के पास गए जिस पेरियार कहा जाता है। यहां वह बैठे थे तभी मगरमच्छ ने उनके पैर को पकड़कर खींचा। उनकी मां ने इसे देख लिया और वह उन्हें बचाने के लिए दौड़ीं। इसी समय आदि गुरु शंकराचार्य ने अपनी मां से कहा कि अगर तुम मुझे सन्यासी नहीं बनने दोगी तो यह घरियाल मुझे खींच कर ले जाएगा। उसी समय इनकी माता ने इन्हें सन्यासी बनने के लिए कह दिया। तभी घड़ियाल ने उनका पैर छोड़ दिया। हालांकि इसके बाद इनकी मां ने इनके समक्ष एक शर्त भी रखा था। इनकी मां ने कहा कि जब भी मुझे जरूरत होगी, तुम आओगे और मेरा अंतिम संस्कार तुम ही करोगे। अपनी मां के शर्त को आदि गुरु शंकराचार्य ने स्वीकार किया।

कहते हैं कि बिना गुरु के ज्ञान नहीं मिलता है। आदि गुरु शंकराचार्य भी गुरु की खोज में निकले। काफी कठिन परिस्थितियों का सामना करने के बाद आदि गुरु शंकराचार्य को ओमकारेश्वर में गुरु गोविंदा भागवात्पद से मुलाकात होती है। उन्होंने शंकराचार्य को अपना शिष्य स्वीकार किया। यह भी अद्भुत है कि बालक शंकर के मातृप्रेम को देखकर एक नदी ने अपना रुख मोड़ लिया था। कहा जाता है कि शंकराचार्य अपनी मां का सम्मान इतना ज्यादा करते थे कि उनके गांव से दूर बहने वाली नदी को अपनी दिशा मोड़नी पड़ी थी। दरअसल, शंकराचार्य के मां को स्नान करने के लिए गांव के बाहर पूर्णा नदी तक जाना पड़ता था। यह नदी बहुत दूर पड़ती थी। शंकराचार्य की मातृ भक्ति को देखकर नदी ने हीं अपना रुख मोड़ लिया।

सन्यासी होने के बावजूद भी शंकराचार्य ने अपनी मां का दाह संस्कार कर के पुत्र कर्तव्य का पालन किया। कहते हैं कि जब आदि गुरु शंकराचार्य को अपनी मां के अंतिम समय का आभास हुआ तो वह गांव पहुंच गए। जब बात उनकी मां के अंतिम संस्कार की आई तो गांव वालों ने यह कहते हुए उन्हें रोका कि वे तो सन्यासी हैं और वह अंतिम संस्कार नहीं कर सकते हैं। हालांकि शंकराचार्य ने अपनी मां को वचन दिया था। विरोध के बावजूद भी शंकराचार्य ने अपनी मां का दाह संस्कार किया। लेकिन किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया। अपने घर के सामने ही उन्होंने अपनी मां की चिता सजाई और अंतिम क्रिया किया। इसके बाद से यह परंपरा आज भी जारी है।

शंकराचार्य का भारत भ्रमण भी दिलचस्प है। केरल से पदयात्रा करते हुए वे काशी तक पहुंचे थे। उन्होंने योग शिक्षा और अद्वैत ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति की। शंकराचार्य बिहार के मिथिला भी पहुंचे थे जहां उन्होंने 16 दिनों तक मंडन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ किया इस शास्त्रार्थ का निर्णायक मंडल मिश्र की पत्नी भारती को बनाया गया था। आदि गुरु शंकराचार्य ने ही देश के चारों कोणों में बद्रिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारका शारदा पीठ और पुरी गोवर्धन पीठ की स्थापना की। आदि गुरु शंकराचार्य ने हीं दसनामी संप्रदाय की भी स्थापना की थी। गिरी, पर्वत और सागर- इनके ऋषि है भृगु। पूरी, भारती और सरस्वती- इनके ऋषि है शांडिल्य। वन और अरण्य- इनके ऋषि हैं कश्यप। तथा तीर्थ और आश्रम के ऋषि हैं अवगत। शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। उन्हें विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस वाक्य को भी प्रचारित किया था कि ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।

आदि गुरु शंकराचार्य ने हिंदी, संस्कृत जैसी भाषाओं का प्रयोग कर 10 से अधिक उपनिषदों को लिखा है जबकि अनेक शास्त्रों, गीता पर संस्करण और अनेक उपदेशों को भी लिखित तथा मौखिक रूप से लोगों तक पहुंचाया है। अपने शास्त्रार्थ से आदि गुरु शंकराचार्य ने बौद्ध तथा हिंदू के विद्वानों को भी पराजित किया है। कहा जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने अपने जीवन में इतने ज्यादा संदेश दिए हैं और लिखे हैं। अगर हर कोई इस पर गंभीरता से सोचने लगे और अपने जीवन में उतारने लगे तो उसका जीवन धन्य हो जाएगा। आदि गुरु शंकराचार्य पर कई पुस्तकें भी लिखी गई हैं। शंकराचार्य ने बेहद ही कम उम्र में अपने कार्यों के माध्यम से जीवन के उद्देश्य को पूर्ण किया। उन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज को एकता के अटूट धागे में पिरोने का अथक प्रयास किया और उसमें सफलता भी हासिल की। शंकराचार्य ने महज 32 वर्ष की आयु में केदारनाथ के निकट अपने प्राण त्याग दिए। चार मठों की स्थापना के लिए ही उन्हें शंकराचार्य कहा गया।