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विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय पार्टी से तो लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल से समझौता (अखिलेश की गलतियां : पार्ट-1)

राजेश श्रीवास्तव
लखनऊ । अखिलेश यादव द्बारा बसपा के साथ किया गया गठबंधन अब जब टूट गया है या यूं कहें कि तकनीकी रूप से अब बस केवल इसका ऐलान होना बचा है तब अखिलेश यादव के द्बारा उठाये गये सियासी कदमों पर चर्चा भी शुरू हो गयी है। हम यहां अब सिलसिलेवार ढंग से बतायेंगे कि अखिलेश यादव ने अपने सियासी जीवन में किन-किन खामियों को किया और आज समाजवादी पार्टी जो उत्तर प्रदेश में प्रमुख क्ष्ोत्रीय दल माना जाता था, अपने अस्तित्व की समाप्ति की ओर जा पहुंचा है। अखिलेश यादव के बीते विधानसभा चुनाव में और अब के लोकसभा चुनावों में किये गये सियासी गठबंधन के बारे में अगर गंभीरता से विचार किया जाये तो यह तय है कि अखिलेश ने गंभीरता से इसके पूर्व विचार नहीं किया और बेहद जल्दबाजी में करार कर लिया।

उन्होंने अपने पिता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव की सोच को दरकिनार कर जिस तरह से कांग्रेस और फिर बहुजन समाज पार्टी से समझौता किया वह बेहद गैर जिम्मेदाराना कदम माना जा रहा है। दोनों बार पता नहीं उन्होंने किन रणनीतिकारों के चलते ऐसा कदम उठाया, यह तो वही जानें लेकिन जब 2०17 में यूपी में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। तब उन्होंने राष्ट्रीय दल कांग्रेस पार्टी से समझौता कर लिया जबकि विधानसभा चुनावों में जनता स्थानीय मुद्दे, स्थानीय प्रत्याशी और अपने व्यक्तिगत हितों को देखती है तब उन्होंने ऐसी राष्ट्रीय पार्टी से समझौता कर लिया जिसका यूपी में कोई जनाधार नहीं था। जिसका नतीजा यह रहा कि उन्हें 298 सीटों पर चुनाव लड़कर मात्र 47 सीटें हासिल हुईं और कांग्रेस को 7 सीटें हासिल हो गयीं। जबकि उसे 21.8 फीसद वोट हासिल हुए जो कि 2०12 के विधानसभा चुनाव से तकरीबन 8 प्रतिशत कम थे। यानि इस गठबंधन में दो लड़कों का साथ जनता को पसंद नहीं आया और अखिलेश यादव को मुंह की खानी पड़ी और कांग्रेस का वोट बैंक इस चुनाव में भी बढ़ गया और अखिलेश यादव को 8 फीसद का नुकसान हुआ।
इसी तरह जब 2०19 के लोकसभा चुनावों का ऐलान हुआ तो अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन तोड़ कर क्षेत्रीय दल बहुजन समाज पार्टी के साथ समझौता कर लिया। इन चुनावों में अखिलेश ने अपना स्वाभिमान भी दांव पर लगा दिया।

उन्होंने मायावती के चरणों में पूरा यादव परिवार को झुका दिया। मैनुपरी में मुलायम सिंह यादव को यह कहना पड़ा कि उन्हें मायावती का आशीर्वाद मिला, इसका वह एहसान मानते हैं। तो कन्नौज की सभा में डिंपल यादव को मंच पर मायावती के पैर छूने पड़े। इसके बावजूद सपा मैनपुरी में किसी तरह जीत सकी जबकि कन्नौज में अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव को भी करारी हार का सामना करना पड़ा।
अखिलेश यादव ने इन चुनावों में क्षेत्रीय दल बसपा से समझौता किया जबकि सभी जानते हैं कि केंद्र में मुख्य रूप से दो ही दल कांग्रेस और भाजपा हैं। ज्यादातर इन्हीं दोनों में से एक को सरकार बनाने का मौका मिल सकता है। यह भी जगजाहिर था कि अगर सपा-बसपा गठबंधन को ज्यादा सीटें मिलतीं तो भी वह कांग्रेस को ही समर्थन देते लेकिन अखिलेश यादव ने उस बसपा से समझौता कर लिया जिसे बीते 2०14 के लोकसभा के चुनावों में 4.19 फीसद वोट ही हासिल हुए थे। वह 543 सीटों में  से 5०3 सीटों पर लड़ी थी और उसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी।
इस गठबंधन का हश्र यह हुआ कि समाजवादी पार्टी दहाई के अंक को नहीं छू पायी और बसपा दस सीटें जीत गयीं। शून्य सीटों से दस सीटों के अंक तक पहुंचने वाली बसपा ने चुनाव खत्म होते ही सपा से यह कहकर गठबंधन तोड़ किया कि जब सपा डिंपल और अक्षय को नहीं जिता पायी तो वह बसपा को कैसे वोट दिला पाती।

ले लिया गेस्ट हाउस कांड का बदला

जानकारों की मानें तो गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती ने अपने करीबी लोगों से कहा था कि अगर यादव परिवार को अपने कदमों में नहीं झुकाया तो मेरा नाम मायावती नहीं। अपने इसी वादे को मायावती ने पूरा कर लिया और मंच पर डिंपल यादव, मुलायम और खुद अखिलेश यादव को उन्होंने नतमस्तक करा लिया।

शाह के गृह मंत्री बनते ही तोड़ा गठबंधन

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अमित शाह के गृह मंत्रालय का प्रभार लेने के बाद मायावती को लगने लगा कि अब वह भाजपा से बहुत ज्यादा बैर लेने की स्थिति में नहीं हैं। शाह की कार्यशैली को वह बखूबी जानती हैं। इसलिए उन्होंने गठबंधन तोड़कर भाजपा को यह संदेश दिया कि वह यूपी में उसके सामने कोई बड़ी मुसीबत नहीं खड़ा करना चाहती हैं। वह जानती हैं कि अभी आगामी पांच साल तक केंद्र में व तीन साल तक यूपी में भाजपा की सरकार है और वह कुछ भी करने की हैसियत में नहीं हैं। इसीलिए उन्होंने गठबंधन तोड़ने का कदम उठाया।

अखिलेश ने खो दी अपनी जमीन

अखिलेश यादव ने बसपा से गठबंधन कर पार्टी का नुकसान तो किया ही है साथ ही अपने ‘माई’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण पर पकड़ को भी ढीला कर दिया है। अब उनके करीबी भी कहने लगे है कि अगर अखिलेश मायावती के बजाय अपने पिता और चाचा के कदमों में झुकते तो पार्टी भी मजबूत होती, सीटें भी ज्यादा आतीं और स्वाभिमान भी बना रहता । आगरा के एक यादव नेता कहते हैं कि अखिलेश जी ने तो अपने साथ-साथ पूरी यादव बिरादरी का सिर नीचा कर दिया है।

जातीय लिहाज से यूपी का आंकड़ा

ओबीसी 4० फीसद
दलित 21.2 फीसद
सवर्ण 22 फीसद
मुस्लिम 19.26 फीसद
अन्य ०.9 फीसद