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“मुजफ्फरपुर हमारे सामूहिक शर्म का उत्सव है, जिसे हम मनाना नहीं चाहते”

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

रिपोर्ट कहती है कि चमकी बुखार से वे ही बच्चे पीड़ित हैं जिन्हें उचित पोषण नहीं मिला। चमकी बुखार उन्हीं बच्चों पर ज्यादा असर डाल रहा है जो कुपोषित हैं। सरकार स्कूलों में मध्याह्न भोजन देती है, आंगनबाड़ी द्वारा पोषाहार बंटवाती है, हर विपन्न परिवार को प्रतिमाह राशन उपलब्ध कराती है। इस कार्य के लिए हर जिले में अरबों रुपये खर्च होते हैं। फिर भी बच्चे कुपोषित हैं। इन अरबों रुपयों में सैकड़ों अफसरों, कर्मचारियों की हिस्सेदारी है… इनमें कोई शर्मिंदा होना नहीं चाहता।

मुजफ्फरपुर में मरने वाले बच्चों में 80% लड़कियां हैं। मतलब साफ है कि बच्चियां बच्चों से अधिक कुपोषण की शिकार हैं। आप सौ बार नकारिये, पर यह सच्चाई है कि ग्रामीण निम्नवर्ग लड़कियों के साथ निर्लज्ज भेदभाव करता है। किसी बूढ़े को यदि एक रसगुल्ला मिले तो वह घर ला कर नाती को ही देता है, नतिनी को नहीं… घर में यदि आधा किलो मीट बने तो लड़कियों के हिस्से में केवल ग्रेवी आती है, मांस नहीं… वैसे निर्लज्ज माँ-बाप को शर्म आनी चाहिए न? पर नहीं आ रही।

गाँव में यह कहा जाता रहा है कि यदि पड़ोसी भूखा है तो दूसरे पड़ोसी के लिए खाना खाना रक्त पीने जैसा होता है। मुजफ्फरपुर के गाँवों में ही असंख्य लोगों ने रक्त पिया है। उन्हें भी शर्म नहीं आ रही…

मरने वालों में अधिकांश बच्चे अनुसूचित वर्ग के हैं। पर रुकिये! अनुसूचित वर्ग के टोले में सरकारी सुविधाओं को पहुँचाने के लिए और देखरेख करने के लिए सरकार ने उसी वर्ग से टोला-सेवक और आंगनबाड़ी सेविकाओं की नियुक्ति की है। मतलब समझ रहे हैं? मतलब यह है कि अनुसूचितों का हिस्सा खाने में अनुसूचित भी पीछे नहीं। उन गरीब बच्चों का हिस्सा छीन कर खाने वालों को शर्म आनी चाहिए न? पर नहीं आ रही।

सरकार का स्पष्ट निर्देश है कि राज्य में कोई भूखा नहीं रहे/कुपोषित नहीं रहे। इसकी जिम्मेवारी हर पंचायत के मुखिया और प्रखण्ड के BDO की है। सरकार इसके लिए अकूत धन देती है, और किसी भी पंचायत से वह राशि वापस नहीं जाती। सब जगह खर्च हुई दिखाई जाती है। फिर भी बच्चे भूखे रहे, कुपोषित रहे… पर मुजफ्फरपुर के उन पंचायतों के मुखियाओं को शर्म नहीं आ रही होगी, वहाँ के प्रखण्ड विकास पदाधिकारी को शर्म नहीं आ रही होगी…

मीडिया स्वयं को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहती है। मुजफ्फरपुर में देश के सबसे प्रसिद्ध चैनल की सबसे प्रसिद्ध कर्मी पहुँचती है और टीआरपी के लिए डॉक्टर को झाड़ते हुए पूछती है, “यहाँ बेड क्यों नहीं लगे हैं?” यह पत्रकार भूल चुकी है कि डॉक्टर का काम चिकित्सा है, बेड लगवाना नहीं। यह वही पत्रकार है जो दो महीने पहले देश के प्रधानमंत्री के इंटरव्यू में यह पूछ रही थी कि “आप चाय कैसे बनाते थे?” जो प्रश्न सत्ता से पूछे जाने चाहिए, वे प्रश्न डॉक्टर से पूछे जा रहे हैं और प्रश्नकर्ता को शर्म नहीं आ रही…

पूरे मुजफ्फरपुर में एक दो नहीं, पचासों ट्रस्ट, और N.G.O काम कर रहे हैं। वे सरकार से करोड़ो रूपये पाते भी हैं। जनता की भलाई के लिए काम करने के उनके हजार दावे होंगे, लेकिन जिले में फैले कुपोषण पर उन्हें भी शर्म नहीं आ रही…

जो माँ-बाप अपने लिए दो समय का पौष्टिक भोजन नहीं कमा पाते, वे छह-छह, आठ-आठ बच्चों को जन्म देते हैं। वे एक बार भी नहीं सोचते कि ये बच्चे कहाँ रहेंगे, क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे। शर्म क्या उन्हें नहीं आनी चाहिए? पर नहीं आ रही…

जिस राज्य के बच्चे कुपोषण से मर रहे हों, वहाँ के शासक को शर्म से मर जाना चाहिए। पर लोकतंत्र में सत्ता को शर्म नहीं आती…

इस देश का पूरा सिस्टम सड़ चुका है। हम सब अपने अंदर की भारतीयता को लात मार चुके हैं।

भाई जी, मुजफ्फरपुर के लिए केवल सरकार दोषी नहीं, पूरा समाज दोषी है। हम सब नङ्गे हैं, बस हमें शर्म नहीं आ रही।