मेधावनी मोहन
बु्ंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाके में जहां महिलाएं घर की देहरी लांघने से पहले भी सौ बार सोचती हैं, वहीं एक महिला ने सदियों पुरानी रूढ़ियों और परंपराओं की दीवार को न सिर्फ लांघा है, बल्कि तोड़ भी दिया है. झांसी में रहने वाली 52 साल की ममता चौरसिया समाज के विरोध के बावजूद अपने पति की अंतिम यात्रा में शामिल हुईं और उन्हें मुखाग्नि भी दी.
माना जा रहा है कि बुंदेलखंड के इतिहास में यह पहली बार है, जब किसी महिला ने अपने पति का अंतिम संस्कार किया है. एक जमाना था, जब स्त्रियों को अपने पति के साथ सती होना पड़ता था और आज समाज सुधार की लौ बढ़ते-बढ़ते इतनी ऊंची उठ आई है कि स्त्रियां आगे बढ़कर अपने पति का दाह-संस्कार करने का साहस दिखा रही हैं.
ममता के पति रमेशचन्द्र चौरसिया लंबे समय से बीमार चल रहे थे. घर चलाने की सारी जिम्मेदारी ममता के ऊपर ही आ गई थी, जिसे वह एक निजी स्कूल में पढ़ा कर उठा रही थीं. गृहस्थी का बोझ और पति के इलाज का खर्च भी सिर पर था, लेकिन वह बिना किसी शिकायत अपने सारे फर्ज निभाती जा रही थीं. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि वह हमेशा से बहुत हिम्मती रही हैं और अपने फैसले खुद लेती आई हैं, इसलिए पति का अंतिम संस्कार खुद करने के उनके फैसले से उन्हें खास आश्चर्य नहीं हुआ. हां, समाज के ठेकेदारों ने पूरी कोशिश की कि ममता अपना फैसला बदल लें, लेकिन वह टस से मस न हुईं. जब जिंदगी भर इतनी शिद्दत से अपने पति का साथ निभाया था, तो उनके अंतिम सफर में उन्हें कैसे अकेला छोड़ देतीं?
दरअसल ममता का एक बेटा था, जो 13 साल पहले 17 साल की उम्र में ही दोनों किडनी खराब हो जाने से गुजर गया था. इस हादसे से उन्हें काफी धक्का पहुंचा था, फिर भी अपने मजबूत व्यक्तित्व का परिचय देते हुए वे जल्द ही संभल गई थीं, क्योंकि पति को भी संभालना था. उनकी एक बेटी भी है, जो मुंबई में रहती है. किन्हीं कारणों से ममता के ससुराल के लोग समय पर उपस्थित थे. इसके अलावा वह मन ही मन एक बात और जानती थीं कि इस भीड़ में ‘अपने’ तो हैं, मगर इनमें से किसी में वो ‘अपनत्व’ नहीं है कि कोई उनके पति का अंतिम संस्कार पूरे मनोयोग से करे. वह चाहती थीं कि उनके पति की आत्मा को शांति मिले, इसलिए प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने ठान लिया कि कोई कुछ भी कहे, अपने पति को मुखाग्नि मैं ही दूंगी.
ममता का कहना है, ‘रिश्तों में अगर अपनेपन की कमी हो और दूरियां ज्यादा हों, तो किसी पर भी रिश्तों को थोपना ठीक नहीं रहता. इसीलिए मैंने पति का अंतिम संस्कार खुद करने का फैसला लिया. पति के सबसे करीब पत्नी ही होती है, इसलिए यह अधिकार उसकी पत्नी को जरूर मिलना चाहिए.’
19 जून को जब मृतक को अंतिम यात्रा के लिए तैयार किया जा रहा था, तब पास-पड़ोस और जान-पहचान के लोगों का जमावड़ा हुआ. लोग तब दंग रह गए, जब अंतिम संस्कार के रीति-रिवाज निभाने के लिए ममता आगे आईं. अंतिम संस्कार करा रहे पंडित भी उनके इस कदम से हैरान रह गए और सोच में पड़ गए.
उन्होंने ममता को धर्म और परंपराओं के बारे में समझाने की कोशिश की, लेकिन वह यह कहते हुए अड़ गईं कि यहां मौजूद लोगों में से कोई भी मन से रीति-रिवाज नहीं निभाएगा. तब पंडित ने अन्य जानकारों से सलाह लेने के बाद ममता के हाथों ही अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पूरी करवाई.
ममता अब बिल्कुल अकेली हो गई हैं. पहले बेटे, अब अपने पति को उन्होंने खो दिया है. लेकिन आसपास रहने वाले लोग उनसे खास लगाव भी रखते हैं, क्योंकि वह एक नेक दिल और ममतामयी महिला के तौर पर जानी जाती हैं. इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि काफी समय से इतनी विषम परिस्थितियों से घिरी होने के बावजूद वह अपने मोहल्ले के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देती आ रही हैं. उन्होंने अपनी एमए और बीएड की डिग्री सिर्फ सजाने के लिए नहीं ली, बल्कि अपनी शिक्षा का प्रयोग वह वाकई में समाज की बेहतरी के लिए कर रही हैं. शादी के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी थी.
पति के बीमार होने से पहले भी वह शिक्षिका की अपनी नौकरी के जरिए घर चलाने में मदद करती थीं. आंसुओं से भीगे हुए उन्होंने अपने पति को विदा किया, मगर साथ ही समाज की पक्षपातपूर्ण और महिलाओं को बेड़ियों में जकड़ कर रखने वाली सोच को भी तिलांजलि दे दी.
उनके इस कदम ने इस सोच को भी नकार दिया कि मासिक धर्म की वजह से महिलाओं में कोई अशुद्धि होती है, जिससे वह पिंडदान नहीं कर सकतीं. ममता सिर्फ बुंदेलखंड के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए मिसाल हैं. वे उन महिलाओं में से एक बन गई हैं, जिन्होंने समाज के बेतुके दायरे तोड़ने का साहस दिखाया है और सभी महिलाओं को संदेश दिया है कि तुम समाज या दुनिया की किसी भी चीज के लिए नाकाबिल या अछूत नहीं हो!
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं. सामाजिक मुद्दों पर लिखती हैं.)