नई दिल्ली। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने कर्नाटक के सियासी घटनाक्रम पर लगातार पैनी नजर बनाए रखी. कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने से लेकर सरकार बनाने के लिए बी.एस. येदियुरप्पा को राज्यपाल के न्योते, येदियुरप्पा के शपथग्रहण, उनके दो दिवसीय कार्यकाल और फिर सदन में बहुमत का आंकड़ा न जुटा पाने पर मुख्यमंत्री पद से येदियुरप्पा के इस्तीफे तक ममता हर राजनीतिक उतार-चढ़ाव को बारीकी से देखती रहीं.
येदियुरप्पा ने जैसे ही बतौर मुख्यमंत्री अपने पद से इस्तीफे का ऐलान किया उसके कुछ मिनट बाद ही ममता बनर्जी ने ट्विटर पर अपनी भावनाओं और नजरिए को जाहिर कर दिया. ममता ने अपने ट्वीट में जो कुछ कहा उसमें 2019 के लोकसभा चुनावों में विपक्षी दलों के स्वरूप, संरचना और रणनीति की संभावित झलक नजर आती है:
ममता बनर्जी के ट्वीट में सबसे मर्मस्पर्शी और गौरतलब बात यह है कि, उन्होंने अपने ट्वीट में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का नाम तक नहीं लिया. ममता ने कर्नाटक के सियासी समर में विपक्ष को मिली जीत का पहला श्रेय कर्नाटक की जनता को दिया, इसके बाद उन्होंने जेडीएस नेता एच.डी. देवेगौड़ा और एच.डी. कुमारस्वामी की सराहना की. ममता की क्रेडिट लिस्ट में कांग्रेस का नंबर चौथा था लेकिन उसमें राहुल गांधी का जिक्र तक नहीं था. दरअसल अपने दो टूक संदेश के जरिए ममता बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया कि, कर्नाटक में बीजेपी की सियासी शिकस्त कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए की वजह से नहीं बल्कि रीजनल फ्रंट (क्षेत्रीय दलों के मोर्चे) के चलते संभव हो पाई.
ममता बनर्जी ने अपने ट्वीट से शनिवार शाम दिल्ली में 24 अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय में राहुल गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस की चमक फीकी कर दी. इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल ने कर्नाटक में मिली सियासी कामयाबी का सेहरा अपने सिर बांधा था. इस दौरान राहुल ने यह भी ऐलान किया कि, उनकी पार्टी सभी राज्यों के प्रभावशाली क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर काम करने की इच्छा रखती है और वह इसके लिए पूरी तरह से तैयार है. राहुल ने आगे कहा कि, ‘कांग्रेस के लिए कोई भी अछूत नहीं है.’
कर्नाटक के मुद्दे पर कई और क्षेत्रीय नेताओं ने भी ट्वीट किए. इनमें से अखिलेश यादव और चंद्रबाबू नायडू ने भी राहुल को श्रेय नहीं दिया. इन दोनों नेताओं ने अपने ट्वीट में कर्नाटक में मिली कामयाबी को लोकतंत्र की जीत करार दिया, लेकिन इसके लिए न तो कांग्रेस को श्रेय दिया और न ही उसके अध्यक्ष राहुल गांधी को.
अखिलेश और चंद्रबाबू की बधाई में राहुल का जिक्र नहीं
दूसरे शब्दों में कहें तो, अखिलेश यादव और चंद्रबाबू नायडू के ट्वीट से ऐसा लगता है कि, वे 2019 में प्रधानमंत्री बनने के लिए विपक्ष के अग्रदूत के तौर पर राहुल के स्व:घोषित अधिकार को दरकिनार करते नजर आ रहे हैं. हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं. कोई नहीं जानता कि हर पल डांवाडोल नजर आते विपक्षी दल तबतक किसके साथ होंगे और किस करवट बैठेंगे. वैसे 2019 में विपक्ष के सामने ऊहापोह की यह स्थिति तभी आ सकती है, जब विपक्ष एकजुटता के साथ बीजेपी का मुकाबला करके न सिर्फ जीत हासिल करे बल्कि बहुमत का आंकड़ा भी जुटाने में सफल हो.
अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल ने बहुमत का आंकड़ा जुटा पाने में नाकाम रहे येदियुरप्पा और बीजेपी की अलग ही व्याख्या की. 224 सदस्यीय कर्नाटक विधानसभा में बीजेपी ने बहुमत से 8 सीटें कम पाईं. राहुल ने इसे बीजेपी के खिलाफ और कांग्रेस के हक में जनादेश करार दिया. हालांकि कांग्रेस के वर्तमान और भविष्य के संभावित सहयोगी कर्नाटक के चुनाव नतीजों को राहुल की नजर से नहीं देख रहे हैं.
कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए के घटक दल कर्नाटक की जीत को “रीजनल फ्रंट” की जीत के तौर पर देख रहे हैं. वैसे रीजनल फ्रंट को लेकर ममता बनर्जी अपने विचार काफी पहले ही सार्वजनिक कर चुकी हैं.
पिछले दिनों कांग्रेस जब चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का अभियान चला रही थी, तब उसे ममता बनर्जी की तरफ से करारा झटका लगा था. ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने महाभियोग प्रस्ताव के लिए दिए गए नोटिस का समर्थन नहीं किया था. ममता ने कहा था कि, कांग्रेस का चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का नोटिस देना गलत था. इसके अलावा ममता यह भी संकेत दे चुकी हैं कि, राहुल गांधी के पास ऑल्टरनेट फ्रंट (वैकल्पिक मोर्चे) का नेता होने की काबिलियत और कुव्वत नहीं है. शनिवार को अपने ट्वीट में ममता ने इशारों-इशारों में अपनी वही बात फिर से दोहराई.
ध्यान रहे कि, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले ममता बनर्जी “रीजनल फ्रंट” को लेकर क्षेत्रीय दलों को लामबंद करने में जी-जान से जुटी हैं. इस बाबत वह शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू और चंद्रशेखर राव समेत कई क्षेत्रीय नेताओं से मुलाकात कर चुकी हैं. ममता उत्तर प्रदेश के दो कद्दावर क्षेत्रीय नेताओं अखिलेश यादव और मायावती को भी एक छत के नीचे लाने का भरसक प्रयास कर रही हैं.कर्नाटक को लेकर ममता पहले ही कुमारस्वामी के साथ खड़े होने की बात कह चुकी हैं. ऐसे में ममता का ट्वीट भविष्य में क्षेत्रीय दलों की राजनीति की रूपरेखा को इंगित कर रहा है.
राहुल गांधी का यह दावा दोषपूर्ण है कि, कर्नाटक में जो कुछ भी हुआ वह कांग्रेस और जेडीएस की जीत है. राहुल यह भूल गए हैं कि कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए वोट दिया था. पिछले पांच सालों से राज्य पर शासन करने वाली कांग्रेस इस विधानसभा चुनाव में 122 सीटों से घटकर 78 सीटों पर पहुंच गई है. कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया दो सीटों पर चुनाव लड़े, जिसमें से एक पर उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. जबकि दूसरी सीट पर वह मामूली अंतर से ही जीत दर्ज कर पाए. राज्य की पिछली कैबिनेट के मंत्रियों में से आधे मंत्री चुनाव हार गए. कांग्रेस को राज्य के हर इलाके में नुकसान उठाना पड़ा है. लेकिन एक संसदीय लोकतंत्र में तो विधानसभा या संसद में संख्या ही महत्व रखती है.
कर्नाटक में कांग्रेस ने जेडीएस के साथ चुनाव के बाद गठबंधन किया है. इसलिए पार्टी अब कुमारस्वामी के नेतृत्व में सरकार बनाने का आनंद उठाएगी. कर्नाटक को लेकर कांग्रेस आलाकमान यानी सोनिया गांधी और राहुल गांधी खासे संतुष्टि होंगे. आखिरकार वे बीजेपी को सत्ता से दूर रखने में सफल जो हुए हैं. लिहाजा पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा की पार्टी जेडीएस को कांग्रेस का बिना शर्त समर्थन जारी रहेगा. दरअसल कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाए रखने के लिए कांग्रेस अपनी पूरी ताकत झोंके रखेगी, ताकि बीजेपी के लिए राज्य में कोई सियासी संभावना पैदा न होने पाए.
यह सियासी मजबूरी और वक्त की नजाकत ही है जिसने 78 विधायकों के बावजूद कर्नाटक में कांग्रेस को जेडीएस का पिछलग्गू बनने को विवश कर दिया है. कर्नाटक में जेडीएस के सिर्फ 37 विधायक हैं और पार्टी का प्रभाव राज्य के एक विशेष भाग तक ही सीमित है.
पहले बिहार फिर उत्तर प्रदेश और अब कर्नाटक में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू बनने को मजबूर हुई है. कर्नाटक का झटका तो कांग्रेस के लिए वाकई दर्दनाक होगा क्योंकि महज एक सप्ताह पहले तक तो वहां वह शासन कर रही थी. तो क्या राष्ट्रीय राजनीति में लगातार सिमटती जा रही कांग्रेस पर अब पिछलग्गू होने का ठप्पा लग गया है? हालांकि फिलहाल कांग्रेस क्षेत्रीय दलों का पिछलग्गू होने में भी अपनी भलाई ही समझ रही होगी, क्योंकि उसे इस बात का संतोष होगा कि इस तरह से वह बीजेपी को सत्ता से दूर रख सकती है. लेकिन क्या दोयम दर्जे में रहने से कांग्रेस की अपनी सेहत प्रभावित नहीं होगी? क्या इस तरह से कांग्रेस की संगठनात्मक संरचना और कार्यकर्ताओं के मनोबल पर असर नहीं पड़ेगा? क्या ऐसे राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल खड़े नहीं होंगे?
ममता बनर्जी ने विपक्षी दलों या यूं कहें कि मोदी विरोधी मोर्चे की प्रवक्ता बनने की पहल की है. वह बहुत बेबाकी के साथ अपनी नीति और नजरिए को रख रही हैं. ममता इस बात को लेकर स्पष्ट हैं कि कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की चुनौती का सामना करने को तैयार नहीं है. यानी विपक्ष के नेता के तौर पर ममता को राहुल गांधी की क्षमताओं पर भरोसा नहीं है.
तृणमूल और कांग्रेस के बीच नहीं है कोई अंतर
सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी होने की वजह से कांग्रेस देश के कोने-कोने में फैली हुई है. बीजेपी के बाद कांग्रेस संसद में सबसे बड़ी पार्टी है. यानी बीजेपी के बाद कांग्रेस के सबसे ज्यादा सांसद हैं. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच केवल 10 सांसदों का अंतर है.
येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद राहुल गांधी ने जो प्रेस कॉन्फ्रेंस की उसमें उन्होंने बार-बार ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को दोहराया. राहुल ने जोर देकर कहा कि, ‘धर्मनिरपेक्ष दलों’ को एक साथ आने की सख्त जरूरत है. ध्यान देने वाली बात यह है कि, 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों, उनके समर्थकों और सहानुभूति रखने वालों ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का इस्तेमाल करना बंद कर दिया था. लेकिन अब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से कांग्रेस ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का सहारा फिर से लेना शुरू कर दिया है. कर्नाटक में कांग्रेस ने खुद को धर्मनिरपेक्ष और बीजेपी को सांप्रदायिक करार देने में कोई कोर-कसर नहीं रखी.
कांग्रेस और उसके रणनीतिकारों को कुछ अरसा पहले तक लगता था कि, धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक की बहस से आखिरकार फायदा बीजेपी को ही होता है. लिहाजा कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल करना ही बंद कर दिया था. लेकिन इस मामले में राहुल गांधी के विचार अलग ही नजर आते हैं. शायद राहुल को धर्मनिरपेक्ष शब्द में कोई सियासी फायदा दिख रहा हो. लेकिन फिलहाल यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों और फिर 2019 के लोकसभा चुनावों पर ‘धर्मनिरपेक्ष-सांप्रदायिक’ की बहस का क्या असर पड़ेगा.
लेकिन एक बात स्पष्ट है कि, 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले राहुल गांधी को कड़ी मेहनत करनी होगी. राहुल को देश के विभिन्न हिस्सों में अपने वर्तमान और भविष्य के सहयोगियों के सामने यह साबित करना होगी कि उनके पास नेतृत्व की क्षमता है. फिलहाल कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को ममता बनर्जी के लाल झंडा दिखाए जाने से खुश नहीं होगी. ममता ने राहुल के नेतृत्व और क्षमताओं पर सवाल उठाकर कर्नाटक में कांग्रेस की कामयाबी का मजा किरकिरा जो कर दिया है.