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क्यों महबूबा मुफ्ती के हाथ से इस बार बाजी ही नहीं उनका पूरा सियासी करियर फिसलता दिख रहा है

सुहैल ए शाह

जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती बीते गुरुवार को-दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले के पहलगाम इलाके में थीं. इस दौरान अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए वे रो पड़ीं. रोते हुए महबूबा अपने पिता और पूर्व मुख्यमंत्री रहे मुफ़्ती मुहम्मद सईद की ‘कश्मीरी लोगों के लिए दी कुर्बानियां’ गिनाती रहीं और यह गिला करती रहीं कि लोगों को ये कुर्बानियां बिलकुल याद नहीं रहीं.

एक दिग्गज राजनेता का ऐसे रोना थोड़ा अटपटा सा है, लेकिन कश्मीर में-खास तौर पर दक्षिण कश्मीर, जो कुछ समय पहले तक महबूबा और पीडीपी का गढ़ माना जाता था, पर नज़र दौड़ाई जाये तो शायद बात उनके लिए रोने लायक ही है. 25 साल से ज़्यादा समय से राजनीति में रहीं महबूबा अभी तक छह चुनाव लड़ चुकी हैं और हर बार खासे आराम से जीतती आई हैं. इस बार का लोकसभा चुनाव, जो वे अनंतनाग लोकसभा सीट से लड़ रही हैं, उनका सातवां चुनाव है और अगर जमीनी हालात देखकर इसका अंदाज़ा लगाएं तो इस बार महबूबा के लिए जीतना खासा मुश्किल दिखता है.

दक्षिण कश्मीर में स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार खालिद गुल सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘महबूबा मुफ्ती के 25 साल के राजनीतिक सफर में पहली बार कोई चुनाव उनके हाथ से फिसलता नज़र आ रहा है.’ क्या होगा और कैसे होगा, उस पर चर्चा बाद में. पहले यह जानते हैं कि अभी तक क्या हुआ है. कैसे महबूबा जो दक्षिण कश्मीर में अभी तक अजेय रही हैं हार के कगार पर नज़र आ रही हैं ?

महबूबा मुफ़्ती ने अपना पहला चुनाव 1996 में कांग्रेस के टिकेट पर लड़ा था. विधायक बनने के साथ ही वे दक्षिण कश्मीर में ख़ासी सक्रिय हो गयीं थीं. मारे गए मिलिटेंट्स के घर जाना, युवाओं को आर्मी कैंप्स में से छुड़ा लाना, और किसी भी मानवाधिकार उल्लंघन का जमकर विरोध करना उनका राजनीति की शैली में शुमार हो गया था.

आयरलैंड की डबलिन यूनिवर्सिटी में कश्मीर पर शोध कर रहे मुहम्मद ताहिर कहते हैं, ‘ये कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि कश्मीर में नरम अलगाववाद या सॉफ्ट सेपरेटिस्म शब्द सबसे पहले महबूबा के लिए ही इस्तेमाल हुआ था. उन्होंने दक्षिण कश्मीर में अपने लिए और अपनी पार्टी के लिए इसी सॉफ्ट सेपरेटिस्म के बल पर एक ख़ासी मजबूत पकड़ बना ली थी.’

1999 में पीडीपी वजूद में आई और महबूबा ने भी कांग्रेस में अपने विधायक पद से इस्तीफा दे दिया. लेकिन तब तक उन्होंने और उनकी पार्टी ने अपनी एक जगह बना ली थी. 2002 में जब चुनाव हुए तो 16 सीटें जीतकर पीडीपी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार बना ली. वक़्त गुज़रता गया और पीडीपी की सीटें, वोट शेयर और साख, हर चीज में बढ़ोतरी हुई. यहां तक कि 2014 के चुनाव में वह 28 सीटें जीतकर जम्मू-कश्मीर की सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी.

लेकिन अब पीछे मुड़कर देखें तो शायद 2014 का चुनाव ही उनकी पार्टी की बर्बादी का साल था, या बर्बादी वहां से शुरू हुई थी. मुहम्मद ताहिर कहते हैं, ‘ऐसा इसलिए है कि पीडीपी ने 2014 के चुनाव में वोट भाजपा को कश्मीर से बाहर रखने के लिए बटोरे थे और फिर उन्होने भाजपा के साथ ही गठबंधन कर लिया. कश्मीरी लोगों को ठगे जाने का अहसास हुआ.’

महबूबा को अपनी गलती सुधारने का मौका मिला था. 2016 में जब उनके पिता और उस समय के मुख्यमंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सईद का निधन हुआ था. मुहम्मद ताहिर कहते हैं, ‘लेकिन महबूबा ने गलती सुधारने के बजाए फिर वही गलती दोहराई और भाजपा के साथ एक बार फिर गठबंधन कर लिया.’ महबूबा मुफ्ती अब अपने हर भाषण में अपने इस फैसले की सफाई देती आ रही हैं. यह कहकर कि उनकी पार्टी के कई लोग बागी हो गए थे और उनके बिना सरकार बनाने को तैयार थे. लेकिन अब शायद लोग यकीन नहीं करना चाहते.

खैर, यह सब शायद लोग भूल भी जाते, लेकिन महबूबा मुफ्ती ने 2016 में ही एक और ऐसी गलती कर दी जो अब देखा जाये तो शायद उनके राजनीतिक करियर की सबसे बड़ी गलती हो सकती है. 2016 में हिजबूल मुजाहिदीन कमांडर, बुरहान मुजफ्फर वानी के मारे जाने के बाद कश्मीर उबल रहा था. लोग हिंसा में मारे जा रहे थे. बच्चे पैलेट गन्स की चपेट में आकर अपनी आंखों की रोशनी खो रहे थे. इसी दौरान महबूबा मुफ्ती ने गृह मंत्री राजनाथ सिंह के साथ मिलकर श्रीनगर में एक पत्रकार सम्मेलन को संबोधित किया. उनसे नाबालिग़ बच्चों के मारे जाने पर सवाल किया गया. इस पर उन्होंने जवाबी सवाल दागा, ‘ये लोग क्या आर्मी के कैंप्स में दूध या टॉफी लेने गए थे?’ जवाब देते देते महबूबा इतने तैश में आ गईं कि राजनाथ सिंह को उनका हाथ पकड़कर उन्हें चुप कराना पड़ा था.

जानकार कहते हैं कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ था कि किसी राजनेता ने कश्मीर में ऐसी उत्तेजित और भड़का देने वाली बातें की हों. कश्मीर के राजनीतिक विशेषज्ञ शाह अब्बास बताते हैं, ‘लेकिन महबूबा की बदकिस्मती ये थी कि उनकी इस गलती के समय सोशल मीडिया का आगमन पूरे ज़ोर-शोर से हो गया था. और फिर जो रही-सही कसर थी वो विरोधी दलों ने उनकी इस बात को दोहरा-दोहराकर कर दी थी.’

महबूबा मुफ्ती की इस बात का इतना असर होने की दूसरी वजह अब्बास यह बताते हैं कि पीडीपी मुखिया को लोग एक सॉफ्ट सेपरेटिस्ट के रूप में देखते थे जो छवि उन्होंने अपने लिए खुद बुनकर तैयार की थी. अब्बास कहते हैं, ‘अब जिस छवि को लेकर आप वोट बटोरने निकलेंगे फिर सत्ता में आकर उसी छवि को लात मार देना अक्लमंदी नहीं है न! लोग राजनीति समझते हैं, लेकिन उतनी जितनी उनके सामने हो रही हो. लोगों को क्या पता पर्दे के पीछे क्या हो रहा है.’

फिर कोढ़ में खाज यह कि पिछले साल जून में भाजपा ने अचानक गठबंधन सरकार तोड़कर महबूबा मुफ्ती के पैरों तले का गलीचा खींच लिया. भाजपा ने उनको यह मौका भी नहीं दिया कि वे लोगों के सामने अपनी छवि सुधार सकतीं. सत्ता से बाहर महबूबा ने कई बार सार्वजनिक रूप से अपने 2016 वाले ‘टॉफी और दूध’ वाले बयान को लेकर लोगों से माफी मांगी. अपने पिता की तीसरी बरसी पर अनंतनाग के बिजबहेरा इलाक़े में लोगों को संबोधित करते उनका कहना था, ‘मैं इनकी मां नहीं हूं क्या और अगर मां ने दर्द में कराह के कोई उल्टी सीधी बात बोल दी तो क्या हो गया. और अगर आप लोगों को बुरी लगी यह बात तो मैं आप से माफी मांगती हूं.’

उनकी माफी के बाद उनके विरोधी और पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने उन पर निशाना साधा था. अब्दुल्ला का कहना था, ‘अब माफी मांगने का क्या फायदा. सत्ता में थीं तो माफी मांगने का विचार क्यूं नहीं आया?’ लोग भी शायद उमर की इस बात से सहमत हैं क्योंकि दक्षिण कश्मीर में जिससे भी आजकल पूछें वह महबूबा की इसी बात को दोहराता दिखाई दे रहा है. सत्याग्रह ने दक्षिण कश्मीर में दर्जनों लोगों से इस विषय पर बात की. सबका यही कहना था कि महबूबा को या तो माफी पहले मांग लेनी चाहिए थी या गठबंधन पहले तोड़ देना चाहिए था.

ऐसे हालात में महबूबा मुफ्ती भी भांप गई हैं कि लोग उनसे खासे नाराज़ हैं. पिछले लगभग 15 दिन से वे अनंतनाग में अलग-अलग जगहों पर अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रही हैं. लेकिन ऐसे किसी भी कार्यक्रम में डेढ़-दो सौ से ज्यादा लोग नहीं होते.

अब क्या हो सकता है ?

तो एक तरफ लोग नाराज़ हैं और एक तरफ दक्षिण कश्मीर में हालात ऐसे दिखते हैं कि लड़ाई एक-एक वोट की होगी. अनंतनाग लोक सभा सीट चार जिलों से बनती है – अनंतनाग, कुलगाम, शोपियां और पुलवामा. अभी तक का हाल देखा जाए तो पुलवामा और शोपियां, जो पिछले कुछ सालों में मिलिटेंसी का गढ़ बनकर उभरे हैं, में मतदान होता दिखाई नहीं दे रहा. इनही दो जिलों की वजह से देश के इतिहास में पहली बार किसी लोकसभा सीट पर तीन चरण में मतदान हो रहा है-अनंतनाग में 23 अप्रैल को मतदान होगा, कुलगाम में 29 अप्रैल को और पुलवामा और शोपियां में चार मई को.

पीडीपी के एक युवा नेता सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘मुख्यधारा यहां खत्म है, और मुख्यधारा का मतलब दक्षिण कश्मीर में पीडीपी हुआ करता था. अब हम अगर मुख्यधारा छोड़कर बैठ जाें तो शायद मार दिये जाएंगे. आप यूं समझ लें कि इस वक़्त हम बस अपनी जान बचा रहे हैं.’

यह बात इस चीज़ से भी स्पष्ट होती है कि अभी तक इन दो जिलों में कोई भी चुनावी गतिविधि नहीं हुई है. सत्याग्रह से बातचीत में कई लोग इसकी पुष्टि करते हैं. एक आला अधिकारी कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता है यहां कोई वोट डालेगा, बिलकुल भी नहीं. लोग भी तैयार नहीं हैं और मिलिटेंट्स ने भी धमका रखा है.’

दिलचस्प बात यह है कि इन दो जिलों में महबूबा की ख़ासी पकड़ हुआ करती थी और हालात देखें तो यहां से वोट पड़ते दिखाई नहीं दे रहे. आजकल दक्षिण कश्मीर को कवर कर रहे एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘किसी वजह से अगर पड़ भी जाते हैं तो महबूबा को लोग वोट देने से रहे.’

तो अब बचे अनंतनाग और कुलगाम. कुलगाम में भी मिलिटेंसी है लेकिन, यहां वोट भी ठीक ठाक पड़ते हैं और पारंपरिक रूप से देखा जाये तो यह ज़िला उमर अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में बंटा हुआ रहा है. 2014 में कुलगाम में पीडीपी के पोलिंग एजेंट रहे ज़ाहिद अहमद कहते हैं, ‘यहां पीडीपी को ज़्यादा वोट नहीं मिल पाएंगे. और वो तब की बात है जब मतदान होगा यहां.’

तो कुल मिलाकर अगर बात को देखना हो तो बात यह है कि लड़ाई सारी अनंतनाग जिले में सिमट कर रह जाएगी और वह भी वहां जहां लोग वोट डालने निकलते रहे हैं और आशा है कि इस बार भी निकलेंगे. खालिद गुल कहते हैं, ‘ये इलाक़े हैं कोकरनाग, डूरु, पहलगाम, बिजबेहरा, शंगस और कुछ अन्य इलाक़े. इनमें से ज़्यादातर इलाक़े कांग्रेस के उम्मीदवार ग़ुलाम अहमद मीर के गढ़ हैं-जैसे कोकरनाग, डूरु,शंगस. मुझे इसीलिए मीर का पलड़ा ज़्यादा भारी लगता है महबूबा के मुक़ाबले.’ हालांकि साथ साथ वे यह भी कहते हैं कि कश्मीर में चुनावों का अनुमान लगाना मुश्किल भी है और गलत भी क्योंकि कश्मीर में कभी पता नहीं होता कि ऊंट किस करवट बैठेगा.

उधर महबूबा मुफ़्ती फिर से अपनी पुरानी छवि पर से धूल हटा रही हैं. वे सुरक्षा बलों पर लोगों के साथ अत्याचार के आरोप लगा रही हैं. यह भी कह रही हैं कि अगर अनुछेद 370 या 35ए पर कोई आंच आई तो कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा . लेकिन क्या उनकी छवि सुधर पाएगी? क्या लोग फिर महबूबा पर भरोसा करेंगे? यह वक़्त ही बताएगा. फिलहाल तो यही लग रहा है कि महबूबा के लिए न सिर्फ यह लोकसभा सीट, बल्कि अपनी पार्टी बचाना भी एक बड़ा काम है.