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क्यों अखिलेश यादवों के सम्मान को ठेस पहुंचा बन गये यूज एंड थ्रो (अखिलेश की गलतियां : पार्ट-4)

राजेश श्रीवास्तव
लखनऊ । अब जब बसपा सुप्र्रीमो मायावती ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को यूज एंंड थ्रोे की तरह इस्तेमाल करके किनारे कर दिया है तब यादव लैंड पर सबसे ज्यादा अखिलेश की किरकिरी हुई है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जिस दिन कन्न्नौज केे मंच पर डिंपल यादव से मायावती के पैर छुआये थे उसी दिन तय हो गया था कि डिंपल यादव कन्नौेज मेेंंं हार जायेंंगी।
क्योंकि उसी दिन यादवों ने तय कर लिया था कि वह समाजवादी पार्टी को वोट नहीं करेंगे। उन्होंने इसे डिंपल का नहीं बल्कि अपना अपमान माना था। उन्हें लगा था कि उनके नेता ने खुद उनका अपमान करा दिया है। अखिलेश यादव ने खुद तो यह गठबंधन बहुत जल्दी में कर लिया लेकिन यह गठबंधन कार्यकर्ताओं के मन तक नहीं हो पाया और उनके मन की गांठ नहीं खुलीं। हां दोनों नेताओं की मुलाकातों ने गांठों पर जमी धूल हटानी शुरू की थी कि डिंपल ने मायावती के पैर छू लिये और मुलायम सिंह यादव ने मायावती के सामने हाथ जोड़ कर एहसान जता दिया। तभी से आम कार्यकर्ताओं ने उनसे किनारा कर लिया। अब जब मायावती ने उन्हें इस्तेेमाल करके छोड़ दिया है तब यादव बिरादरी के लोग कहने लगे हैं कि उन्हें नहीं पता था कि उनका अध्यक्ष अखिलेश इतना अररिपक्व है।

अभी भी मायावती ने अखिलेश को अपनी चाल में फंसा रखा है
उपचुनाव के परिणाम में अलग लड़कर वह सपा की हैसियत देखना चाहती हैं

दो राजनीतिक शत्रुओं के बीच ये समझौता अविश्वास, संदेह के आधार पर और सबसे अहम, दोनों सहयोगियों के अस्तित्व पर मंडरा रहे ख़तरे को देखते हुए हुआ था। ये गठबंधन कमज़ोर इसलिए भी रह गया क्योंकि इसे चुनाव से एकदम पहले बनाया गया जबकि इस तरह के गठबंधनों को परिपक्व होने में वक़्त लगता है।
इतना वक़्त ही नहीं था कि ये संदेश ज़मीनी स्तर तक पहुंच पाता, जिससे दोनों पार्टियों के वोट एक-दूसरे को मिल पाते और ना ही दोनों पार्टियों ने उतनी कोशिश की जितनी की जानी चाहिए थी।
मायावती और अखिलेश में ज़रूरत से ज़्यादा आत्मविश्वास भर गया था, जिसकी वजह से उन्होंने कोशिश ही नहीं की और वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर नहीं करा पाए। वहीं दोनों ओर के चाटुकार दोनों नेताओं को भविष्य के सपने दिखाने में व्यस्त थे। ख़ुद के बारे में ज़्यादा सोचने के लिए जानी-जाने वाली मायावती ने प्रधानमंत्री का सपना संजोना फिर से शुरू कर दिया क्योंकि उन्हें लग रहा था कि नतीजे आने पर त्रिशंकु संसद की स्थिति बन सकती है। अखिलेश मान रहे थे कि वो उसी जातीय समीकरण से अगले राज्य विधानसभा चुनाव को अपने पक्ष में करेंगे और 2०22 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए अगुआ होंगे। समझा जाता है कि मायावती अखिलेश से प्रभावित थीं और उन्हें लग रहा था कि हो ही नहीं सकता कि संयुक्त जाति अंकगणित काम ना करें। जिन्होंने राजनीति में मायावती को दशकों से देखा है।
वो जानते थे कि 2०19 के लोकसभा चुनाव के नतीजे ही गठबंधन की असली परीक्षा होने वाली थी और ये तय करने वाले थे कि गठबंधन आख़रि कितनी लंबा चलेगा। ये निष्कर्ष भी पहले से निकाल लिया गया था कि अगर गठबंधन के नतीजे दोनों नेताओं के अनुमान के मुताबिक़ नहीं रहते तो ख़ामियाज़ा अखिलेश को ही भुगतना पड़ेगा। 2०18 के दौरान उत्तर प्रदेश में तीन लोक सभा सीटों और एक विधान सभा सीट पर एक साथ हुए उपचुनाव में मिली अप्रत्याशित जीत के उत्साह से पूर्ण गठबंधन करने के आइडिया को बल मिला। जल्द ही, सबसे छोटे सहयोगी राष्ट्रीय लोक दल ने भी महागठबंधन में शामिल होने की इच्छा जता दी।
मायावती ने ये दावा ज़रूर किया है कि वो सभी दरवाज़े खुले रखेंगी, लेकिन उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने ना सिर्फ़ अखिलेश के नेतृत्व पर सवाल उठाए, बल्कि उनके संगठनात्मक कौशल को भी सवालों के घेरे में ला खड़ा किया। इससे पता चलता है कि मायावती अखिलेश को राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में कितनी कम आंकती हैं। दिलचस्प है कि बसपा प्रमुख ने ज़ोर देकर कहा कि वो अखिलेश के साथ अच्छे निजी रिश्ते बनाए रखेंगी।
उन्होंने कहा कि हालांकि, मैं लोकसभा चुनाव के नतीजों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती, जिससे साफ़ तौर पर पता चलता है कि अखिलेश अपनी पार्टी के कोर वोटों पर नियंत्रण नहीं कर सके और हमें ये फ़ैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा।
जिन्होंने मायावती का ट्रैक रिकॉर्ड देखा है, वे लोग हैरान नहीं हैं, वो ढाई दशक में अपनी राजनीतिक सहयोगी रही बीजेपी को तीन बार और सपा को एक बार छोड़ चुकी हैं। तो ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि मायावती एक बार फिर अपनी ’’इस्तेमाल करके छोड़ने’’ की नीति पर चलने का फ़ैसला ले चुकी हैं।
अखिलेश के साथ गठबंधन करने से उन्हें 1० सीटें मिल गईं जबकि 2०14 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी। शायद उन्हें ऐसा भी लगा कि अखिलेश अब भी एक राजनीतिक नौसिखिया हैं, जो आगे चलकर उनकी पार्टी के किसी काम नहीं आएंगे। उन्होंने भविष्य के लिए दरवाज़ें सिर्फ़ इसलिए खुले रखे हैं क्योंकि वो आने वाले उपचुनाव में देखना चाहती हैं कि कितने पानी में हैं और ये भी देखना चाहती हैं कि इसी चुनाव में समाजवादी पार्टी कैसा प्रदर्शन करती है। उपचुनाव होने के बाद ये दरार पूरी तरह साफ़ हो जाएगी।