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कहानी राजर्षि की: जिसे बोस और पटेल की तरह कॉन्ग्रेस अध्यक्ष का पद त्यागना पड़ा, कारण- नेहरू

अनुपम कुमार सिंह

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन- एक ऐसा नाम जिसने उत्तर प्रदेश में कॉन्ग्रेस की जड़ें मजबूत करने में अपनी ज़िंदगी खपा दी। यूपी के गाँव-गाँव में घूम कर निःस्वार्थ भाव से जिस तरह उन्होंने पार्टी की सेवा की थी, उनका लोकतान्त्रिक तरीके से कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बनना शायद ही किसी को अखरता। लेकिन, कॉन्ग्रेस पार्टी का शायद यह दुर्भाग्य ही था कि राजर्षि का अध्यक्ष बनना ‘किसी’ को रास नहीं आया और उन ‘किसी’ का नाम था- जवाहरलाल नेहरू। भारतीय राजनीतिक इतिहास की यह घटना उस समय की है जब नेहरू कॉन्ग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता थे और जनता के बीच उनकी छवि भी बहुत ही पूजनीय किस्म की थी। लेकिन, ऐसा तीसरी बार हुआ जब नेहरू ने लोकतान्त्रिक तरीके से चुने गए पार्टी अध्यक्ष के साथ सहयोग नहीं किया।

सोमवार (जुलाई 1, 2019) को देशरत्न पुरुषोत्तम दास टंडन की पुण्यतिथि है और इस अवसर पर यह याद करना ज़रूरी है कि कैसे नेहरू ने लोकतान्त्रिक तरीके से चुने गए व्यक्ति को राजनीतिक वनवास पर जाने को मजबूर कर दिया। इलाहाबाद- नेहरू और टंडन, दोनों इसी शहर से आते थे। इलाहाबाद की राजनीति में जिसका भी दखल होता, वो कॉन्ग्रेस पार्टी में ऊँचे मुकाम पर पहुँचता- चाहे वो नेहरू हों, टंडन हों या फिर दोनों के शिष्य लाल बहादुर शास्त्री। जी हाँ, शुरुआती दिनों में लाल बहादुर शास्त्री ने दोनों के बीच एक पुल का काम किया था। तब शास्त्री दोनों के बीच पत्रों का आदान-प्रदान करते थे और सबसे बड़ी बात तो यह कि ये पत्र ख़ुद शास्त्री ही लिखा करते थे।

जब टंडन शास्त्री को कोई पत्र लिखने को कहते और वह पत्र नेहरू को जाने वाला होता तो शास्त्री उसी भाषा में लिखते जो नेहरू को पसंद आए। इसी तरह वह नेहरू द्वारा टंडन को भेजे जाने वाले पत्रों के मामले में करते थे। राजर्षि टंडन के योगदानों की बात करने से पहले उस 1950 के चुनाव को याद करना ज़रूरी है, जब कॉन्ग्रेस को नेहरू की ज़िद के आगे झुकना पड़ा था। माना जाता है कि उस समय कॉन्ग्रेस में दो खेमे थे, एक का नेतृत्व नेहरू करते थे और दूसरे के नेता पटेल थे। जहाँ पटेल को दक्षिणपंथी विचारधारा का माना जाता है, वहीं नेहरू वामपंथी झुकाव वाले नेता थे।

Prof Rakesh Sinha

@RakeshSinha01

शब्द और कर्म का अंतर भी देखना चाहिए.नेहरु जी ने 1st लोकसभा विधानसभा चुनावों के साढ़े चार हज़ार प्रत्याशियों का निर्णय स्वयं करने का प्रस्ताव cwc में पास करवा लिया.मनपसंद अध्यक्ष नही होने पर पुरुषोत्तम दास टंडन को इस्तीफ़ा दिलवा दिया कितने उदाहरण चाहिए उनके दोहरापन का?i https://twitter.com/Ram_Guha/status/1089122742933155840 

Ramachandra Guha

@Ram_Guha

“I do not want India to be a country in which millions of people say ‘yes’ to one man. I want a strong opposition”.
Thus Jawaharlal Nehru, speaking in 1950, the year the Republic was founded.

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1950 में कॉन्ग्रेस अध्यक्ष का चुनाव हुआ और जवाहरलाल नेहरू के समर्थन में जेपी कृपलानी मैदान में उतरे। जेपी कृपलानी आज़ादी के समय भी कॉन्ग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे। आचार्य कृपलानी को नेहरू का पूरा समर्थन मिला और नेहरू ने इस चुनाव को अपने स्वाभिमान पर लिया। कारण- जिस व्यक्ति को देश का सबसे ‘लोकप्रिय’ नेता कहा जाता था, उसके उम्मीदवार की पार्टी में ही हार होने से तरह-तरह की चर्चाओं को बल मिल सकता था। लोग सोचते कि जो व्यक्ति अपनी पार्टी में ही लोकप्रिय नहीं है, वह पूरे देश में प्रचंड लोकप्रियता का दावा कैसे कर सकता है! लेकिन हुआ वही जो ‘किसी’ की इच्छा के अनुरूप नहीं था।

उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल के समर्थन और गाँव-गाँव में अपनी मजबूत छवि के कारण टंडन इस चुनाव को जीतने में कामयाब रहे। बेदाग़ चरित्र और विवादों से दूर रहने वाले टंडन हिंदुत्व की तरफ़ झुकाव वाले नेता थे। इस चुनाव परिणाम को नेहरू ने अपने स्वाभिमान पर धक्का के रूप में लिया और यही वह समय था जब देश के प्रधानमंत्री ने अपना असली ‘खेल’ दिखाया। इससे पहले वह ऐसे ‘खेल’ दो बार और दिखा चुके थे। टंडन के साथ खेला गया ‘खेल’ आगे लेकिन उससे पहले जरा उन दोनों घटनाओं को याद कर लेते हैं। 1946 में कॉन्ग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के लिए नेहरू और पटेल नामांकन की दौर में थे। गाँधीजी का पूरा समर्थन नेहरू के साथ था, ऐसा उन्होंने जता दिया था। इसके बावजूद 15 में से 12 स्टेट कमिटियों ने पटेल को अपना नेता चुना।

अब आप जानना चाहेंगे कि 15 में से नेहरू कितने स्टेट कमिटियों की पसंद थे? इसका जवाब है- एक भी नहीं। पटेल को 12 और नेहरू को शून्य स्टेट कमिटियों का समर्थन मिला। जो कॉन्ग्रेस अध्यक्ष चुना जाता, उसका प्रधानमंत्री बनना भी लगभग तय था। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जैसे दिग्गज की आपत्ति के बावजूद गाँधीजी ने पटेल को अपना नामांकन वापस लेने को कहा। नेहरू ने अपने पक्ष में एक भी स्टेट कमिटी को न पाकर चुप्पी साध ली थी लेकिन अपने अनुयायी के दुःख को गाँधीजी कैसे सह सकते थे! विचार-विमर्श का दौर चला और अंततः राष्ट्र के लिए सोचने वाले पटेल ने जनहित में गाँधीजी की भावनाओं का ख्याल रखा और अपना इस्तीफा सौंप दिया। यह दूसरा ऐसा मौका था जब नेहरू के कारण लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को ताक पर रखा गया।

Prof Rakesh Sinha

@RakeshSinha01

पुरुषोत्तम दास टंडन 1950 में @INCIndia के अध्यक्ष चुने गए,उन्होंने नेहरु जी के पसंद के उम्मीदवार को हराया . नेहरु जी ने लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने पार्टी अध्यक्ष को असहयोग , आलोचना,अपमान कर इस्तीफ़ा देने के लिए वाध्य कर दिया . वे कितने लोकतांत्रिक थे आप निर्णय कीजिये .

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पहली वाली घटना लगभग सबको पता है। जब सुभाष चंद्र बोस कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष बने, तब नेहरू ने उनके साथ सहयोग करना बंद कर दिया और गाँधी-नेहरू का सहयोग न मिलने के कारण बोस को इस्तीफा देना पड़ा। अब वापस 1950 में आते हैं। पुरुषोत्तम दास टंडन के मामले में इतिहास ने अपने आपको तीसरी बार दोहराया। टंडन चुनाव जीत चुके थे। लेकिन गुस्साए नेहरू ने पार्टी को साफ़-साफ़ बता दिया कि अगर अध्यक्ष उनकी पसंद का न हो तो उनके लिए काम करना मुश्किल है। यहाँ तक कि नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की भी धमकी दे डाली। कॉन्ग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को पता था कि उन्हें चुनाव जितने के लिए नेहरू की लोकप्रियता की आवश्यकता है। नेहरू ने इसी कमजोरी का फायदा उठाया।

जवाहरलाल नेहरू ने पार्टी के मामलों में कॉन्ग्रेस अध्यक्ष टंडन का सहयोग करना बंद कर दिया। अड़ियल रवैया वाले नेहरू ने संगठन की विभिन्न निर्णय लेने वाली समितियों को अपने पक्ष में करने के लिए एक राजनीतिक द्वंद्व छेड़ दिया। उन्होंने ‘धर्मनिरपेक्षता’ के मुद्दे पर टंडन का विरोध किया और अपनी यह सोच ज़ाहिर की कि इससे कोई समझौता नहीं हो सकता। आख़िर ऐसा हो भी क्यों न! टंडन उन विरले नेताओं में से थे, जिन्होंने धर्मान्तरण के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा था। यहाँ तक कि संविधान सभा में भी बहस करते हुए टंडन ने सभा को धर्मान्तरण की निंदा करने को कहा था। शायद नेहरू को टंडन में एक सॉफ्ट हिंदुत्व वाला नेता दिखता था और इसीलिए वह उनसे ख़फ़ा रहते थे।

जिस तरह गाँधीजी ने बोस के साथ किया था, नेहरू उससे भी दो क़दम आगे बढ़ गए। देश के प्रधानमंत्री ने देश की सबसे बड़ी और सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था। गाँधी-बोस एपिसोड और नेहरू-पटेल एपिसोड एक बार फिर से ख़ुद को दोहरा रहा था। भले ही इस बार नेहरू के सहयोग के लिए हमेशा की तरह गाँधीजी नहीं थे लेकिन नेहरू ने इतना तो अब तक सीख ही लिया था कि ऐसे मसलों को कैसे हैंडल करना है। 1952 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर कॉन्ग्रेस पार्टी के भीतर एक भय का माहौल था। यूपी में कॉन्ग्रेस की जड़ों को गहरे तक स्थापित करने वाले टंडन अपनी लोकप्रियता से पूरे भारत में शायद चुनाव नहीं जिता सकते थे, ऐसा पार्टी के अन्य नेताओं को लगता था।

2016 में आज़ादी की 70वीं वर्षगाँठ पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने राजर्षि टंडन के योगदानों को याद किया

इन राजनीतिक उठा-पटक के बीच पुरुषोत्तम दास टंडन ने ठीक वैसा ही त्याग किया, जैसा 1938 में बोस और 1946 में पटेल ने किया था। पार्टी के हित में और देश के भविष्य की सोचते हुए टंडन ने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। अफ़सोस यह कि राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को शायद इतिहास ने वो स्थान नहीं दिया, जो उन्हें मिलना चाहिए था। इसके बाद नेहरू कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बने। नेहरू ने देश और कॉन्ग्रेस, दोनों पर ही राज किया। पटेल की मृत्यु के बाद कॉन्ग्रेस में नेहरू का कोई प्रतिद्वंद्वी भी नहीं रहा और पार्टी और देश, दोनों के ही सत्ता के सिरमौर वही रहे। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को अपनी ज़िंदगी कॉन्ग्रेस के लिए खपाने का इनाम राजनीतिक वनवास के रूप में मिला।

हालाँकि, 1952 और 1956 में उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया लेकिन उनकी सक्रियता कम होती चली गई। अहिंसावादी टंडन स्वास्थ्य कारणों से भी राजनीति से दूर रहने लगे थे। उनके बारे में कहा जाता है कि वह रबर का चप्पल पहना करते थे क्योंकि हिंसा के विरुद्ध चमड़े की चीजों से उन्होने दूरी बना ली थी। उनके बारे में एक कहानी बड़ी प्रचलित है। एक बार जब वह संसद में अपना वेतन लेने पहुँचे, तो उन्होंने अधिकारियों को वो रुपए तत्काल पब्लिक सर्विस फंड में ट्रांसफर करने को कहा। हतप्रभ अधिकारियों व नेताओं ने उनसे पूछा कि आपको 400 रुपए ही मिलते हैं और वो भी आप देशसेवा में दे देना चाहते हैं? इस पर राजर्षि ने कहा कि उनके सातों बेटे नौकरी कर रहे हैं और वे सभी उन्हें 100-100 रुपए हर महीने भेजते हैं।

उन्होंने कहा कि उसमें से वे 300-400 रुपए ख़र्च करते हैं और बाकी के समाज सेवा में लगा देते हैं। उन्होंने अपने संसदीय वेतन के बारे में कहा कि यह मेरी अतिरिक्त कमाई है और इसकी मुझे कोई ज़रूरत नहीं है, इसलिए यह समाज सेवा में जाएगा। टंडन के निःस्वार्थ जीवन को देखते हुए महात्मा गाँधी उन्हें ‘राजर्षि’ कह कर पुकारा करते थे। देश का शायद यह दुर्भाग्य रहा कि उनके जैसे नेता की सेवा कुछ और दिन नहीं मिल पाई। अगर उन्हें कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद त्यागने को मजबूर न किया गया होता तो शायद देश और कॉन्ग्रेस को उनके अनुभव और ज्ञान से और लाभ मिलता। लेकिन अफ़सोस, जिस नेहरू ने कहा था कि टंडन की जीत को वह अपने ख़िलाफ़ ‘अविश्वास प्रस्ताव’ मान कर पीएम पद से इस्तीफा दे देंगे, अपनी इस धमकी से वह तो अपने पद पर बने रहे और पार्टी अध्यक्ष भी बने लेकिन लोकतान्त्रिक तरीके से जीते टंडन को राजनीतिक वनवास पर जाना पड़ा।

(अनुपम कुमार सिंह:- चम्पारण से. हमेशा राईट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.)