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एंटोनिया माइनो की राष्ट्रीयता नहीं बल्कि मंशा पर प्रश्न रहा है, ‘The Print’ अक्षय कुमार की नागरिकता से करना चाहता है मूल्यांकन

आशीष नौटियाल

पालघर में साधुओं की हत्या और अर्नब गोस्वामी पर कॉन्ग्रेसी गुंडों द्वारा हमले के बाद एंटोनिया माइनो (Antonia Maino) की अत्याधुनिक डिजिटल सेना ने अपनी-अपनी पोजीशन ले ली हैं। कुतर्कों के धनी शेखर गुप्ता एवं पार्टी ने अब सोनिया गाँधी की वकालत में एक कुतर्क को स्थापित करने का प्रयास किया है जो कि दुराग्रहों और स्वामी-भक्ति की चासनी में निचोड़कर तैयार किया गया है। निसंदेह शेखर गुप्ता इस काम में बेहद निपुण रहे हैं, यही वजह है कि उनका दल भी अब इस कला में महारत हासिल करने लगा है।

एंटोनिया माइनो

मामला कॉन्ग्रेस नेता एंटोनिया माइनो यानी सोनिया गाँधी की नागरिकता को लेकर है। लेकिन ‘दी प्रिंट’ यह भूल गया कि जब सारा देश सोनिया गाँधी के सिर्फ नाम पर चर्चा कर रहा था तो फिर ‘दी प्रिंट‘ ने उनकी राष्ट्रीयता पर क्यों बहस छेड़ दी? सोनिया गाँधी को यह नाम किसने और कब दिया इस बारे में स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की सोनिया गाँधी पर लिखी किताब ‘द रेड साड़ी’ में बेहद सुंदर शब्दों में जिक्र किया गया है।

यह वही जीवनी थी, जिसे वर्ष 2010 में कॉन्ग्रेस पार्टी और कार्यकर्ताओं के विरोध के बाद बाजार से हटा लिया गया था और करीब नौ वर्षों के अनौपचारिक प्रतिबंध के बाद सत्ता परिवर्तन के बाद यह वापस बाजारों में उपलब्ध हो सकी थी। किताब का पहला संस्करण 2008 में स्पेन में छपा था। लेखक जेवियर मोरी का कहना था कि यह किताब कॉन्ग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की छवि को नुकसान पहुँचा सकती थी, इसी वजह से यूपीए सरकार के कार्यकाल में उन्हें प्रकाशन से रोका गया।

इस किताब (The Red Sari) का जिक्र दो वजहों से आवश्यक था- पहला उन ‘विचारकों’ के लिए जिन्हें अचानक से 2014 के बाद लगने लगा कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है और दूसरा इसलिए कि एंटोनिया माइनो नाम सोनिया को आखिर किसने दिया?

The Red Sari में बताया गया है कि सोनिया गाँधी के जन्म के समय चर्च के एक पादरी ने ‘एड्विग एंटोनिया अल्बीना माइनो’ रखा था। यह नाम सोनिया को उनकी नानी के नाम पर दिया गया था। साथ ही इस पुस्तक में यह भी जिक्र है कि किस प्रकार सोनिया के पिता स्टेफिनो ने मुसोलिनी के फासिस्ज्म से प्रभावित होकर दूसरे विश्वयुद्ध में अपना नाम एक सैनिक टुकड़ी में लिखवा लिया था।

सोनिया गाँधी की राष्ट्रीयता की वकालत के लिए शेखर गुप्ता के ‘दी प्रिंट’ की पत्रकार ज्योति यादव ने अक्षय कुमार को जरिया बनाया है। उनका कहना है कि ‘राष्ट्रवादी’ जब कनाडा की नागरिकता वाले अक्षय कुमार को भारतीय मानते हैं तो फिर सोनिया गाँधी को इटली का क्यों माना जाता है?

अपने दुराग्रह को सही साबित करने के लिए ‘दी प्रिंट’ यह भूल गया कि वास्तविक मुद्दा सोनिया गाँधी का इटली से सम्बन्ध कभी नहीं रहा, बल्कि विषय यह रहा कि एंटोनिया माइनो जिस क्षेत्र में हैं, वहाँ वह खुद को कितना भारतीय मान पाई हैं या फिर वह सार्वजनिक रूप से जब भी उनकी या उनके परिवार की नागरिकता को बहस का विषय बनाया गया, उनमें से कितनी बार उन्होंने मुखर होकर लोगों के दावों का खंडन करने का प्रयास किया?

जबकि सोनिया गाँधी के विपरीत अक्षय कुमार ने शायद ही कोई ऐसा मौका छोड़ा हो, जब उन्होंने अपने क्षेत्र में रहकर या फिर उसकी सीमाओं से परे जाकर देशवासियों का दिल जीता है। साथ ही वह कई बार अपनी नागरिकता के बारे में भी खुलकर कहते हुए देखे गए हैं, जिस कारण उनकी नागरिकता पर चुटकुले बनाने वालों की बेरोजगारी में असामान्य रूप से बढ़ोत्तरी देखी गई।

इसका सबसे ताजा उदाहरण तो कोरोना वायरस की वैश्विक आपदा के दौरान अक्षय कुमार द्वारा PM-CARE में की गई आर्थिक मदद ही है। अपनी कुल संपत्ति का इतना बड़ा प्रतिशत दान देते समय अक्षय कुमार ने कहा कि उनकी पत्नी ट्विंकल खन्ना ने उन्हें एक बार फिर सोचने के लिए भी कहा लेकिन वह ये कहकर आगे बढ़े कि उन्होंने जब अपना सफर शुरू किया ही था, तब वह शून्य थे इसलिए अगर वह इतनी आर्थिक मदद कर भी रहे हैं तो यह कोई बड़ी बात नहीं।

अक्षय कुमार ने यहाँ तक कहा कि हम अपने देश को भारत माता कहते हैं और ये योगदान असल में मेरा नहीं है बल्कि ये मेरी माँ की तरफ से भारत माता के लिए है। क्या सोनिया गाँधी भी अक्षय कुमार की तरह ही भारत को माता के प्रतीक रूप में स्वीकार कर सकती हैं या ऐसा करने से पहले उन्हें मुस्लिम वोट बैंक और अपनी सलाहकार एजेंसियों की मदद लेनी होगी?

अब यदि अक्षय कुमार के इस बयान को देश का ‘वामपंथी-उदारवादी’ वर्ग महज बयानबाजी साबित करने का प्रयास भी करता है तो क्या उसे सोनिया गाँधी और इसी राजपरिवार से आर्थिक मदद तो दूर की बात, कम से कम ऐसी बयानबाजी की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए जो देशवासियों का हौंसला बढ़ाए या संकट के समय उन्हें यह एहसास दिला सके कि वह उनके साथ खड़े हैं?

बजाए हौंसला बढ़ाने के, यह ‘राजमाता एंटोनिया माइनो‘ ने अपनी फितरत का नमूना पेश करते हुए अपनी असल चिंता व्यक्त की और कहा कि PM-CARE रिलीफ़ फंड में जमा धन को बहस का मुद्दा बना दिया। वास्तविकता यह है कि देश के ‘विचारक वर्ग’ ने अपने अन्नदाता इस राजपरिवार और इसकी राजमाताओं से कभी बहुत ज्यादा अपेक्षा भी नहीं रखीं। यदि वह ऐसा करते तो आज वह बौखलाहट में किसी रेंडम नागरिक के महज नाम मात्र पर उनकी वकालत में निबंध नहीं लिख रहे होते।

दी प्रिंट की इस रिपोर्ट में ऐसी कई दलीलें दी गईं हैं जो कि सोनिया गाँधी का पक्ष मजबूत करने के बजाए और भी कमजोर करते हैं। जैसे- दी प्रिंट की लेखक ज्योति यादव इसमें सोनिया गाँधी की ‘भारतीयता’ को उनके साड़ी पहनने और हिंदी बोलने की कोशिश से तौलती हैं। लेकिन क्या महज साड़ी पहनना भारतीयता का प्रतीक है? ऑड दिन पर हिंदी भाषा को भारतीयता न मानना और इवन दिनों में सोनिया की भारतीयता को साबित करने के लिए उनके हिंदी बोलने की कोशिशों को भारतीयता का प्रमाण पत्र बनाना दी प्रिंट की पत्रकारिता का एक नमूना है।

भाजपा विरोधियों ने अक्सर इस बात पर जोर दिया है कि भाजपा सोनिया गाँधी को इटली का मानती आई है, जबकि हर दूसरे देशवासी की तरह ही भाजपा के लिए भी सोनिया गाँधी की नागरिकता और राष्ट्रीयता शायद ही कभी वजह रही हो। प्रश्न हमेशा एंटोनिया माइनो की मंशा पर ही उठे हैं, ना कि राष्ट्रीयता पर। अर्नब गोस्वामी ने भी सोनिया गाँधी की मंशा पर ही सवाल उठाए हैं। और यह सवाल किए भी क्यों न जाएँ?

अक्षय कुमार और एंटोनिया माइनो की राष्ट्रीयता

ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासियों के धर्मान्तरण को रोकने का प्रयास करने वालों पर बौखलाने वाली सोनिया गाँधी, उन्हें अपनी नफरत का शिकार बनाने वाली सोनिया गाँधी तब क्यों चुप रह जाती हैं जब हिन्दुओं को मॉब लिंचिंग का शिकार बनाया जाता है या फिर जब हिन्दुओं पर अत्याचार किए जाते हैं? क्रिश्चियनों का जिक्र आते ही सोनिया गाँधी को माता पुकारने वाले एक पत्रकार पर हमला बोल देते हैं। क्या इसका सम्बन्ध भी अक्षय कुमार के कनाडा के नागरिक होने से लगाया जाना चाहिए?

दी प्रिंट के इस लेख में तुलना भी एक बॉलीवुड के कलाकार की एक ऐसी महिला से की जाती है, जो किसी भी प्रकार का जोड़-तोड़ कर के कभी भी सत्ता के शीर्ष पर बैठ सकती है। उससे भी बड़ी बात यह कि जिस परिवार से एंटोनिया माइनो जुड़कर भारत आई हैं, उसके पास भारत की सत्ता सबसे अधिक समय तक रही।

वहीं, अक्षय कुमार के अतीत पर यदि नजर डाली जाए तो वह अपनी प्रतिभा के दम पर स्वयं को स्थापित करने वाले एक शानदार कलाकार बनकर उभरने वाले नायक है। सोनिया गाँधी ने भी अपनी प्रतिभा के साथ अवश्य ही इमानदारी की होगी, इसकी तुलना ‘दी प्रिंट’ के स्तम्भकारों पर छोड़ दी जानी चाहिए। इसके साथ ही उनके पास अपनी अभिव्यक्ति और अपने हित चुनने की आजादी भी रही है, और सोनिया गाँधी को अक्षय कुमार से यह सभी विशेषाधिकार अक्षय कुमार से कहीं ज्यादा प्राप्त रहे इसमें कोई विवाद नहीं है।

सोनिया गाँधी की जीवनी में पढ़कर विचार जरुर करें कि अक्षय कुमार और उनके विशेषाधिकारों में कितना अंतर था –

आखिर में यदि देखा जाए, तो यदि नागरिकता के सवाल और इसके द्वारा की जाने वाली तुलनाओं में कुछ देर के लिए भूमिका बदल दी जाए, तो ‘दी प्रिंट’ के ही कुतर्क के अनुसार, यदि सोनिया गाँधी के भारतीय होने से उनकी प्राथमिकताओं का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए, तो फिर अक्षय कुमार के कनाडा का नागरिक होने से उनकी प्राथमिकताओं का भी मूल्यांकन करना आखिर किस प्रकार की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अंतर्गत पत्रकारिता बताया गया है? नागरिकता का सवाल उठाने वाले अर्नब गोस्वामी को गुनेहगार बताने वाले ‘दी प्रिंट’ अगर अक्षय कुमार की नागरिकता पर सवाल  उठाकर तुलना करता है तो बेहतर यह है कि देशभक्ति के सर्टिफ़िकेट बाँटने की जगह पर दी प्रिंट को इतना समय स्वयं के मूल्यांकन पर खर्च करना चाहिए