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आरटीआई : न्यू इंडिया की बात करने वाली सरकार लौट रही पुराने युग में

राजेश श्रीवास्तव
देश की मोदी-2.० सरकार ने बीते दिनों बड़ी चालाकी से आरटीआई में संशोधन करके बिल लोकसभा से पारित कर दिया। इस बिल में विपक्ष कई सवाल उठा रहा है। सवाल यूं ही नहीं उठाये जा रहे उसके पीछे कई अहम कारण हंै। मसलन जब वर्ष 2००6 में यूपीए सरकार फ़ाइल नोटिग को आरटीआई से हटाने का प्रस्ताव लायी थी तो इसे सार्वजनिक किया गया था। लोगों ने अपनी बात रखी थी। प्रवर समिति ने अपनी रिपोर्ट दी और प्रस्ताव हमेशा के लिए वापस लिया गया। पर इस बार वर्तमान की मोदी सरकार सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया।
समिति को समीक्षा तक लिए नहीं भेजा गया। मालुम हो कि ये कानून 2००5 में देश को मिला है, जाहिर है इतनी देर में मिला कानून ऐसे ही जल्दी और हड़बड़ी में नहीं बनाया गया होगा। इस कानून को बनाने से पहले पहली बार आम जनता के बीच से नुमाइंदों को शामिल किया गया था। अरविद केजरीवाल समेत कई बड़े एक्टिविस्ट बाकायदा आरटीआई के गठन समिति में शामिल हुए थे, राय ली गयी थी, तब जाकर यह कानून मिल सका। जिसमें कोई लूप होल नहीं था। अकेले आरटीआई ही नहीं देश मे कई जर्जर कानून हैं जिन्हें बदलने की जरूरत है। मॉब लिन्चिंग पर लगातार कानून बनाने की मांग हो रही है लेकिन सरकार को यही एक कानून सबसे ज्यादा खराब लगा और इसे बदल दिया।
मोदी सरकार करोड़ों लोगों का फैसला जल्दबाजी में ले रही है। एक-एक बिल का प्रभाव देश के एक-एक नागरिक पर पड़ना है, लेकिन फिर भी उसे पास करने से पहले संसद की सेलेक्ट और स्टैंडिग कमेटी का विश्वास नहीं लिया गया। लोकसभा में पास करीब 16 बिलों की लगभग यही स्थिति है। मोदी सरकार ने 19 जुलाई को लोकसभा में सूचना अधिकार (आरटीआई) संशोधन विधेयक-2०19 पेश किया जिसे सदन ने चर्चा के बाद पारित कर दिया। नया कानून आने के बाद कई पुराने प्रावधान बदल जाएंगे।
आरटीआई एक्ट, 2००5 का धारा 13 और 16 के तहत केंद्रीय सूचना आयुक्तों को चुनाव आयोग का दर्ज़ा और राज्य सूचना आयुक्तों को प्रमुख सचिव का दर्ज़ा दिया गया है, ताकि वे स्वतंत्र और प्रभावी तरीके से कार्य कर सकें। जाहिर है आरटीआई एक्ट में संशोधन के बाद सुचना आयोग की स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी। विपक्षी दलों का तर्क है कि इस संशोधन विधेयक से पारदर्शिता कानून को कमजोर करेगी और सूचना आयोग की आजादी बाधित होगी। विपक्ष चाहता है कि इससे पहले कि बिल को राज्यसभा में पेश किया जाए, इस पर चर्चा की जाए और एक संसदीय समिति द्बारा इसकी छानबीन की जाए। विपक्ष का आरोप है कि केंद्र सरकार पर्सन-टू-पर्सन मामले को देखते हुए उनके वेतन भत्ते, कार्यकाल और सेवा शर्तें तय करेगी। इससे सूचना का अधिकार कानून की मूल भावना से खिलवाड़ होगा।
हालांकि राज्यसभा में बिल पारित करने के लिए गुटनिरपेक्ष दलों की मदद के बिना सरकार के पास अब भी संख्या की कमी है। एनडीए के राज्यसभा में 116 सदस्य हैं, जो बहुमत के निशान से पांच कम है। उनके मानने की संभावना नहीं है। सरकार नहीं चाहती कि वह लोगों के प्रति जवाबदेह हो। सरकार लोगों को सूचना नहीं देना चाह रही है और इसलिए इस क़ानून को कमज़ोर करने के लिए सरकार इसमें बदलाव करना चाहती है। अगर यह सच है तो पारदर्शी कारोबार करने का नारा देकर सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ने वाली मोदी सरकार जनता से क्या छिपाना चाहती है? मनमोहन सिह और कांग्रेस की सरकार को भ्रष्ट बोलने वाले नरेन्द्र मोदी इस क़ानून में बदलाव लाकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? आरटीआई क़ानून के इस्तेमाल से नागरिकों को जानकारी के आधार पर फ़ैसले करने का मौक़ा मिला। लोकतंत्र की जड़ें और गहरी हुईं। यही नहीं, सत्ता की निरंकुशता पर भी कुछ हद तक रोक लगी थी। हमारी व्यवस्था को पारदर्शिता से कितना ख़तरा है, यह इसी बात से साबित होता है कि देश में आारटीआई का इस्तेमाल करने वाले 45 से ज़्यादा लोगों की हत्या हो चुकी है। अब सरकार ‘न्यू इंडिया’ के निर्माण की बात करती है और शासन की पारदर्शिता को फिर से पुराने युग में ले जाने को प्रयासरत है ताकि आप यह भी पता नहीं कर सकें कि आपके गाँव को जाने वाली जो सड़क बनी है उसकी लागत कितनी है, या उसका टेंडर किन मापदंडों के आधार पर ठेकेदार को दिया गया है? क़रीब 15 साल के लम्बे संघर्ष के बाद आरटीआई क़ानून देश की जनता को मिला भी लेकिन उसकी धार को कुंद करने में सरकार ने 15 साल भी नहीं लगाए। हमारे देश में आरटीआई क़ानून भी कुछ इसी तरह का रहा है जिसने क़रीब आधी सदी से ज़्यादा का वक़्त लगा दिया एक लोकतांत्रिक देश के लोगों को अपनी सरकार के कामकाज के बारे में जानकारी हासिल करने का अधिकार दिलाने में। लेकिन क्या अब एक बार फिर जनता को उसके इसी अधिकार से दूर रखने के प्रयास किये जा रहे हैं? यह सवाल केंद्र सरकार द्बारा शुक्रवार को लोकसभा में आरटीआई क़ानून को लेकर पास किये गये संशोधन बिल के बाद खड़े होने लगे हैं।