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आईसीयू में जाना गुनाह तब है जब वह वाकई आईसीयू हो

शशि शेखर

जिसे तुम आईसीयू बोल रहे हो वो अगर आईसीयू है तो मैं भारत का प्रधानमंत्री हूं और तुम्हे ये मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए. ठीक वैसे ही जैसे पटना एम्स को अगर तुम एम्स मानते हो तो मैं तुम्हे बोलिविया का प्रेसीडेंट मान लेता हूं.

पत्रकार का एथिकली आईसीयू नाम के लाक्षागृह में जाना ठीक नहीं है. लेकिन, जो समाज (बेशर्म बिहारी) खुद के पीने के लिए पानी और अस्पताल दवाई तक के लिए आवाज तक नहीं उठा सकता, वो पत्रकारों को एथिक्स का पाठ पढा रहा है, इससे बडा अनएथिकल अगर कुछ हो, तो मैं हिमालय जाने के लिए तैयार हूं. दरअसल, हम बेशर्म बिहारी समाज (सरकार समेत) अपने कोढ को दिखाए जाने से इतना दुखी है कि अब उसके बचाव के लिए सिर्फ जर्नलिज्म एथिक्स को कोसना ही एक ढाल के तौर पर बचा है.
सुनो, बेशर्म बिहारियों, दुनिया का कोई भी एथिक्स सच को सामने लाने से नहीं रोकता. आज जो कुछ भी तुम अस्पताल में मुस्तैदी देख रहे हो, वो इसी अनएथिकल जर्नलिज्म का असर है. इसी अनएथिकल जर्नलिज्म ने सत्ता की कुंभकर्णी नीन्द तोडी है.

बिहार के एक मशहूर दैनिक के मुजफ्फरपुर एडीशन के स्थानीय संपादक से 16 जून को बात हुई. बहुत ही साफगोई और ईमानदारी से उन्होंने बताया कि सरकार-सत्ताधारी दल से जुडी खबर की एक-एक लाइन लिखने के लिए हमें सावधानी बरतनी पडती है. इसलिए कि अब सुशासन बाबू ने जिलों से जारी होने वाले एडवर्टिजमेंट भी पटना मंगा लिए है. हर 10-15 दिनों पर एक बैठक होती है और अखबारों की जांच होती है. कितना स्क्वायर सेंटीमीटर सरकार के खिलाफ लिखा गया, कितना समर्थन में. उसी आधार पर एडवर्टिजमेंट जारी होते है. अब, इस हालात में मुजफ्फरपुर और एसकेएमसीएच की खबर राष्ट्रीय खबर बनती, ऐसी उम्मीद अगर तुम्हें है, तो तुम शुतरमुर्ग हो.

Ajit Anjum हो या अंजना कश्यप या कोई भी रिपोर्टर. आईसीएयू (तथाकथित), जहां डॉक्टरों, नर्सों, वार्ड ब्यॉय तक के चेहरे पर मास्क नहीं दिख रहे थे, में जाकर रिपोर्टिंग करना अनएथिकल हो सकता है. लेकिन बच्चों की मौत का सच सामने लाने से बडा एथिकल काम कुछ नहीं हो सकता. और हां, इसी अनएथिकल रिपोर्टिंग ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया है.

बच्चे तो 3 जून से मर रहे थे. 10 जून तक 100 बच्चे मर गए थे. तब तो वहां कोई अनएथिकल जर्नलिज्म नहीं करने गया था. क्यों नहीं बचा पाए थे बच्चे को? इसलिए कि न बिहार सरकार की कूव्वत है, न डॉक्तर इतने दक्ष है और न ही दवाइयों का इंतजाम था.
अपने शरीर के छुपे कोढ को दिखाए जाने से नाराज बेशर्म बिहारी समाज-सरकार को आज एथिकल जर्नलिज्म की याद आ रही है तो इसका अर्थ सिर्फ यही है कि हम इतने बेशर्म हो चुके है कि हमें बच्चों की मौत नहीं, अपने निक्कमेपन, अपनी काहिली, अपनी मजबूरी, अपनी जहालत के एक्सपोज हो जाने का भय सता रहा था….
तो, जाओ, जा कर पहले उस आईसीयू को वाकई आईसीयू बनाओ फिर अनएथिकल और एथिकल जर्नलिज्म की दुहाई देना…मैं जानता हूं, तुम ये भी नहीं कर पाओगे.
हम बेशर्म बिहारी…

(शशि शेखर के फेसबुक वॉल से साभार)