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अरविंद केजरीवाल का धरना: आखिर कांग्रेस के दिल में क्या है?

राकेश कायस्थ

देश की राजधानी दिल्ली में अचानक विपक्षी एकता का जबरदस्त प्रदर्शन देखने को मिला. नीति आयोग की बैठक में आए 4 राज्यों (पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल) के मुख्यमंत्रियों ने उपराज्यपाल-दिल्ली सरकार विवाद में अरविंद केजरीवाल का साथ देने का खुला एलान कर दिया. इन मुख्यमंत्रियों ने पहले उपराज्यपाल के दफ्तर में धरने पर बैठे केजरीवाल से मिलने की इजाजत मांगी. उपराज्यपाल ने इसकी इजाजत नहीं दी, इसके बाद इन मुख्यमंत्रियों ने lप्रधानमंत्री और गृह मंत्री से मामला सुलझाने की अपील की.

मामला यही नहीं थमा. इन चारों राज्यों के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर जाकर उनकी पत्नी से मिले और उसके बाद साझा प्रेस कांफ्रेंस की. इसमें केंद्र सरकार पर उपराज्यपाल का इस्तेमाल कर के दिल्ली सरकार को अस्थिर करने का इल्जाम लगाया गया. पिछले 4 साल में यह पहला मौका है, जब एक साथ कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस तरह किसी एक मामले में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की है.

एकजुटता दिखाने वाले सभी मुख्यमंत्री राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्यों के मुखिया हैं. आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल को मिलाएं तो इन राज्यों से लोकसभा की 115 सीटें आती हैं. इसलिए केजरीवाल के समर्थन में लिया गया मुख्यमंत्रियों का स्टैंड विपक्षी एकता के लिए गहरे राजनीतिक मायने रखता है.

लेकिन ममता बनर्जी, एच.डी कुमारस्वामी, पी. विजयन और चंद्रबाबू नायडू के शक्ति प्रदर्शन के बीच एक सवाल लगातार हवा में तैरता रहा. आखिर कांग्रेस पार्टी परिदृश्य से गायब क्यों थी? क्या विपक्षी एकता की धुरी होने के नाते कांग्रेस को इस शक्ति प्रदर्शन के केंद्र में नहीं होना चाहिए था?

Kejriwal @ LG Office

                                                 अरविंद केजरीवाल अपने 3 सहयोगियों के साथ अपनी 3 मागों को लेकर बीते एक सप्ताह से एलजी के दफ्तर में धरने पर बैठे हुए हैं

जमीन बचाने और एकता बनाने के द्वंद में फंसी कांग्रेस

लगभग महीना भर पहले यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी इन्हीं नेताओं के साथ एक मंच पर थे, जब जेडीएस के साथ चुनाव के बाद हुए समझौते के आधार पर कर्नाटक में नई सरकार बनाई जा रही थी. उस वक्त कांग्रेस ने इस बात का साफ संकेत दिए थे कि विपक्षी एकता कायम करने के लिए वह हर मुमकिन कुर्बानी देने को तैयार है.

कर्नाटक में कांग्रेस ने इसका सबूत भी दिया था, जब अपने मुकाबले आधी सीटें लानेवाली जेडीएस को उसने गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री का पद दिया ताकि बीजेपी को सरकार बनाने से रोका जा सके. ऐसे में सवाल उठना स्वभाविक है कि कर्नाटक में इतनी दरियादिली दिखाने वाली कांग्रेस आखिर दिल्ली में इतना काइंयापन क्यों बरत रही है?

अरविंद केजरीवाल मोदी सरकार पर इस देश के संघीय ढांचे को तोड़ने-मरोड़ने और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने के इल्जाम लगाते आए हैं. कांग्रेस भी केंद्र सरकार पर लगभग इसी तरह के इल्जाम लगाती है. ऐसे में जब केजरीवाल ने केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी है तो कांग्रेस ने इन सवालों से पल्ला क्यों झाड़ लिया? समर्थन देना तो दूर दिल्ली कांग्रेस के कई नेताओं ने केजरीवाल को नौटंकीबाज करार दिया और पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उन्हे नियम-कायदों के हिसाब से चलने की घुट्टी पिलाई.

कई लोग यह मान रहे हैं कि अगर कांग्रेस का यही रवैया रहा तो 2019 के चुनाव के लिए जिस विपक्षी एकता की बात की जा रही है, वह बनने से पहले ही टूट जाएगी. इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता है. लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि विपक्षी एकता का रास्ता अतर्विरोध के तंग गलियारों से होकर निकलता है. इस मामले को बेहतर ढंग से समझने के लिए पहले दिल्ली और फिर पूरे देश में कांग्रेस की स्थिति पर नजर डालना जरूरी है.

अरविंद केजरीवाल के धरने को लेकर दिल्ली कांग्रेस के नेता हमलावर मुद्रा में हैं

                                                  अरविंद केजरीवाल के धरने को लेकर दिल्ली कांग्रेस के नेता हमलावर मुद्रा में हैं

दिल्ली में नंबर तीन की स्थिति स्वीकार करना आत्मघाती

बेशक दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला लेकिन यहां उसकी अपनी राजनीतिक जमीन बहुत मजबूत रही है. आम आदमी पार्टी के उदय से पहले कांग्रेस दिल्ली में लगातार 3 बार विधानसभा चुनाव जीत चुकी थी. 2014 तक दिल्ली की सभी 7 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस का कब्जा था.

2014 के आम चुनाव में इन सातों सीटों पर कांग्रेस को मिली करारी हार के लिए मोदी लहर के साथ आम आदमी पार्टी (आप) भी जिम्मेदार रही. झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली बड़ी आबादी, मुसलमान और पूर्वांचल के लोगो के एकमुश्त वोट कांग्रेस को जाते थे. मगर आप ने कांग्रेस का यह वोट बैंक लगभग निगल लिया और नतीजा यह हुआ कि पार्टी हर जगह तीसरे नंबर पर फिसल गई.

लेकिन इतना होते हुए भी 2014 में कांग्रेस को दिल्ली में करीब 15 फीसदी वोट मिले थे. किसी भी सीट पर उसे 1 लाख से कम वोट नहीं मिले थे. जाहिर है, दिल्ली में कमजोर स्थिति में होते हुए भी कांग्रेस की हालत यूपी-बिहार वाली नहीं है. कांग्रेस यह उम्मीद कर सकती है कि अगर आम आदमी पार्टी कमजोर होगी तो उसके कोर वोटर वापस लौटेंगे. 2019 के चुनाव में अभी वक्त है. ऐसे में कांग्रेस किसी भी हालत में यह संदेश नहीं देना चाहती कि वह आम आदमी पार्टी की पिछलग्गू बनने को तैयार है. यही कारण है कि एनडीए विरोधी गोलबंदी की संभावित घटक होने के बावजूद `आप’ के खिलाफ कांग्रेस लगातार आक्रामक है.

कांग्रेस पार्टी मौजूदा केंद्र सरकार को लोकतंत्र के लिए खतरा मानती है. ऐसे में अगर वह प्रधानमंत्री के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रहे केजरीवाल के खिलाफ कोई स्टैंड लेती है, तो क्या इससे उन वोटरों में गलत संदेश नहीं जाएगा, जो विकल्प की तलाश में हैं? यकीनन ऐसा संदेश जा सकता है. तो फिर सवाल यह है कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी को लेकर अपना रुख कब साफ करेगी? कांग्रेस यह कब बताएगी कि 2019 के लिए `आप’ के साथ उसका कोई तालमेल संभव है या नहीं?

दिल्ली समेत कई राज्यों में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच 2019 चुनाव को लेकर गठबंधन को लेकर कयासों का बाजार गर्म है

                                                  दिल्ली समेत कई राज्यों में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच 2019 चुनाव को लेकर गठबंधन को लेकर अटकलों का बाजार गर्म है

आनेवाले विधानसभा चुनाव कर देंगे तस्वीर साफ

कांग्रेस से जुड़े तमाम नेता बार-बार एक ही बात कह रहे हैं- कुछ महीने इंतजार कीजिए, हवा का रुख बदल जाएगा. इशारा राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों की तरफ है. इन तीनों राज्यों में सत्तारूढ़ बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस सीधी लड़ाई में है. सरकार बीजेपी की है तो जाहिर है, एंटी इनकंबेंसी भी होगी.

चुनाव पूर्व सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में बीजेपी अब भी मजबूत है. लेकिन मध्य-प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की स्थिति बहुत बेहतर है. इसके संकेत लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में भी मिले हैं, जहां कांग्रेस ने ज्यादातर सीटें जीती हैं. अगर कांग्रेस ने पूरी तैयारी के साथ चुनाव लड़ा तो इन राज्यों में उसकी सत्ता में वापसी हो सकती है. अगर ऐसा हुआ तो राष्ट्रीय राजनीति एक झटके में बदल जाएगी.

बेजान कांग्रेस में एक नई जान आ जाएगी, जीत का सेहरा राहुल गांधी के सिर बंधेगा. सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस सभी गठबंधन साझीदारों के साथ मोल-भाव की स्थिति में होगी. इसलिए कांग्रेस का पूरा जोर फिलहाल आनेवाले विधानसभा चुनावों पर है. वो बीजेपी विरोधी पार्टियों से संवाद बनाए रखना तो चाहती है लेकिन फिलहाल खुलकर किसी फॉर्मूले की तरफ बढ़ने से बच रही है.

लेकिन इस कहानी में अभी बहुत अगर-मगर हैं. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव कब होते हैं, इन इलेक्शन और 2019 के आम चुनाव के बीच कितना फासला रहता है और नतीजे क्या आते हैं, इन बातों से देश की भावी राजनीति तय होगी. यह भी कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव तय सीमा से पहले भी कराए जा सकते हैं. असाधारण चुनावी मशीनरी और अमित शाह जैसे सिपाहसलार से लैस बीजेपी रणनीति बनाने और मुश्किल बाजी पलटने में माहिर है. ऐसे में क्या यह मुनासिब होगा कि कांग्रेस अपने पत्ते खोलने के लिए विधानसभा चुनावों तक का इंतजार करे?

मोदी के साथ

                                                 नीति आयोग की बैठक में देश के 4 राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने केजरीवाल मुद्दे पर मोदी से दखल देने की अपील की

साल भर पहले तक यह माना जा रहा था कि 2019 का चुनाव एक तरह से एनडीए के लिए केक वॉक होगा. लेकिन हालात बहुत तेजी से बदले हैं. बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब भी बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन उनके पॉपुलैरिटी ग्राफ में गिरावट आई है. गुजरात चुनाव की तगड़ी लड़ाई के बाद से कांग्रेस एक अलग तेवर में है. कर्नाटक में उसने जिस तरह का राजनीतिक दांव खेलकर हार को जीत में बदल दिया उससे कार्यकर्ताओं में नया जोश आया है.

उधर क्षत्रपों ने भी ताकत दिखाई है. एसपी-बीएसपी के लगभग 3 दशक बाद हाथ मिलाने से उत्तर प्रदेश का गणित अब बदल चुका है. बिहार में आरजेडी मजबूत नजर आ रही है. दूसरी तरफ एनडीए कुनबे में लगातार बिखराव दिखाई दे रहा है.

कांग्रेस कप्तान और बारहवां खिलाड़ी एक साथ

इन हालात ने यह उम्मीद जगाई है कि विपक्ष 2019 में मोदी को ना सिर्फ कड़ी टक्कर दे सकता है बल्कि कुछ अप्रत्याशित नतीजे भी ला सकता है. इन संभावनाओं ने क्षेत्रीय पार्टियों के मन में बड़े सपने भी जगा दिए हैं. ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे का आइडिया आगे बढ़ा रही हैं. हर क्षत्रप को लगता है कि अनिश्चिता भरी स्थितियों के बीच उसके प्रधानमंत्री बनने का सपना उसी तरह पूरा हो सकता है, जिस तरह 1996 में एच.डी देवगौड़ा का पूरा हुआ था. राहुल गांधी भी यह कह चुके हैं कि अगर कांग्रेस गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है तो वो प्रधानमंत्री बन सकते हैं.

लेकिन ख्याली पुलावों के बीच राजनीतिक धरातल का सच यह है कि मोदी को टक्कर देने के लिए विपक्ष का एकजुट होना अभी बाकी है. कांग्रेस के अगुआई वाले यूपीए और तीसरे मोर्चे का ख्वाब देख रहे क्षेत्रीय पार्टियों को एक साथ आना ही पड़ेगा. इस संभावना के साकार होने में कई पेंच हैं. कांग्रेस पार्टी को इस कोशिश में कप्तान की भूमिका भी निभानी है और जरूरत पड़ने पर बारहवां खिलाड़ी भी बनना है. यूपी में कांग्रेस को हाशिए पर रहना होगा लेकिन जरूरत पड़ने पर एसपी-बीएसपी के बीच रेफरी की भूमिका निभानी होगी.

कांग्रेस को अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करनी है और साझीदारों के प्रति इतनी दरियादिली भी दिखानी है कि वो उसके साथ चलने को तैयार हो सकें. यह सब करने के लिए असाधारण राजनीतिक कौशल की जरूरत है. 2004 में सोनिया गांधी ने यह कारनामा कर दिखाया था. मगर क्या 14 साल बाद उनके बेटे राहुल गांधी फिर से ऐसा कोई करिश्मा दोहरा पाएंगे?

Bengaluru: Congress leader Sonia Gandhi greets West Bengal Chief Minister Mamta Banerjee, as Bahujan Samaj Party (BSP) leader Mayawati walks past during the swearing-in ceremony, in Bengaluru, on Wednesday. (PTI Photo/Shailendra Bhojak)(PTI5_23_2018_000143B)

                                                2004 में सोनिया गांधी ने विपक्षी पार्टियों का गठबंधन बनाकर देश में 10 साल तक यूपीए की सरकार चलाई थी (फोटो: पीटीआई)

राहुल वक्त के साथ राजनीतिक रूप से थोड़े परिपक्व हुए हैं, लेकिन वो सोनिया गांधी जैसी सूझबूझ दिखा पाएंगे, यह मान लेना फिलहाल संभव नहीं है. केजरीवाल प्रकरण में कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता जिस तरह उजागर की, उससे लगता है कि रास्ता मुश्किल है. जब सारी विपक्षी पार्टियां केजरीवाल के साथ खड़ी हैं, वहां कांग्रेस यह कह सकती थी कि वो दिल्ली सरकार के कामकाज से खुश नहीं है, लेकिन केंद्र का रवैया संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाने वाला है. लेकिन कांग्रेस आश्चर्यजनक ढंग से बीजेपी के पाले में खड़ी नजर आई, भले ही उसकी नीयत ऐसा करने की ना रही हो.