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सिंहासन 2019: राजकुमारों की भीड़ में कहां खड़े हैं राहुल गांधी?

आलोक कुमार 

साल भर में फाइनल है. उससे पहले राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के चुनाव हैं. रवायती सवाल पूछने का वक्त है. कौन होगा अगला प्रधानमंत्री? फिर जवाब का विश्लेषण किया जाए. पहला सवाल, क्या कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चुनौती बनकर उभरेंगे? सियासत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए मुश्किल पैदा करेंगे? राहुल को लेकर जो धारणा बनाई गई है, उसके दायरे में सोचेंगे, तो इसे मजाक मानकर हंसी उड़ा देंगे. लेकिन राजनीति को अनिश्चित संभावनाओं का खेल माना जाता है.

सोनिया गांधी की तरह कांग्रेस से सदाशयता रखने वाले घनघोर समर्थक का भी जवाब है कि मौके के बावजूद राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए सीधी चुनौती नहीं हैं. बल्कि राहुल गांधी खुद चुनौतियों से घिरे पड़े हैं. उनको असली चुनौती सियासत में उनकी तरह ही उभरे राजकुमारों से है.

दावेदारी के लिए राजकुमारों की पूरी फौज खड़ी है

कौन जाने भविष्य के गर्भ में क्या है? अगर गोरखपुर, फुलपुर और कैराना की तरह नरेंद्र मोदी को जनता निपटाती है, तो राहुल गांधी की तरह ही सत्ता पर दावेदारी के लिए राजकुमारों की पूरी फौज खड़ी है.

राहुल गांधी सीधे तौर पर सत्ता बनाने में खरे नहीं उतरे, तो पिछले दरवाजे का रास्ता चुन लिया. इसमें सफलता मिलने लगी. कर्नाटक में कुमारास्वामी की सरकार इसी सफलता की मिसाल है. सियासत में उदारता सफलता की कुंजी मानी जाती है, राहुल गांधी ये बताने में सफल रहे कि वह कइयों के बनिस्बत ज्यादा उदार हैं.

सत्ता की सीढ़ी नापने के इस नए नुस्खे की सफलता को अन्य राज्यों में कैसे अख्तियार किया जाए, अब इस पर कांग्रेस में गहन मंथन चल रहा है. छोटे को बड़ा हिस्सेदार बनाने का यह अप्रतिम नुस्खे की सफलता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्लान बी पर उतरने के लिए मजबूर कर सकता है. भारत को भगवामय बनाने की तरतीब और तैयारी को बदलकर, ‘कहीं का ईंट कहीं का कुनबा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा’ के लिए बदनाम गठबंधन की राजनीति में भरोसे को बढ़ाना पड़ सकता है.

सत्तर साल हो गए. शताब्दी बदले अठाहर साल बीत गए. फिर भी लोकतंत्र के परिपक्व होने का इंतजार है. पांच साल बाद आजादी की हीरक जयंती मनेगी. तब भी तय है कि सियासत पर राजतंत्र का जलबा बरकरार रहेगा. राजकुमारों ने चारों ओर से दमदार दावेदारी ठोक रखी है. नजर उठाकर देखिए, तो राहुल गांधी अकेले नहीं बल्कि राजकुमारों की पूरी फौज नजर आएगी. राजकुमारों के बीच ही सियासत के सिमटते कारोबार का नजारा मिलेगा. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक शायद ही कोई ऐसा कोना है जहां राजनेताओं की अगली पीढ़ी के राजकुमार सत्ता पर दमदार दावेदारी नहीं पेश कर रहे हैं.

लगभग हर राज्य में है वंशवाद की पॉलिटिक्स

राहुल-वरुण-प्रियंका गांधी ही नहीं, बिहार में लोगों की उम्मीद तेजस्वी-तेजप्रताप से बन रही है. नीतीश कुमार का सियासी झटका सियासत लालू के बच्चों को राजनीति में स्थापित कराने के लिए है या, झारखंड में हेमंत, पश्चिम बंगाल में अभिषेक, ओडिशा में नवीन पटनायक, उत्तर प्रदेश में अखिलेश– जयंत-आनंद, हिमाचल प्रदेश में अनुराग, मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य, राजस्थान में सचिन, छत्तीसगढ़ में अमित जोगी- अभय-अजय-दुष्यंत, इसमें राहुल गांधी अकेले नहीं है, बल्कि आने वाले दिनों में उनको असली चुनौती राजकुमारों के फौज से ही मिलने वाली है. जिनमें जम्मू कश्मीर से कर्नाटक, उत्तर प्रदेश से राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के उदाहरण भरे पड़े हैं.

उमर अब्दुल्ला हों या, मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, हिमाचल प्रदेश में धूमल के राजकुमार अनुराग ठाकुर से मुश्किल से कुर्सी हथिया पाए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर. पंजाब में राजा अमरिंदर सिंह को राजकुमार सुखबीर बादल से ही कड़ी चुनौती है. वरना कांग्रेस के बजाय शिरोमणि अकाली दल में ही पड़े मिलते. हरियाणा में देवीलाल के राजकुमारों के बीच जारी संघर्ष का लाभ बीजेपी को मिला है. उपचुनाव के नतीजों में तीन राजकुमारों के सिक्कों की चमक के धमक का पता लगा. उत्तर प्रदेश में फीके पड़ गए जयंत चौधरी कैराना में राष्ट्रीय लोकदल की जीत से चमक उठे हैं, तो अखिलेश यादव ने नूरपुर जीतकर गोरखपुर और फूलपुर से कायम धमक को बरकरार रखा है.

झारखंड में तो हेमंत सोरेन ने 2-0 से मैच जीतकर कमाल ही कर दिया. वो पिता शिबू सोरेन से ज्यादा सफल साबित हो रहे हैं. बिहार में सिंहासन पर पिता का खड़ाऊं रख राजनीति कर रहे राजकुमार तेजस्वी यादव का प्रदर्शन शानदार है. कर्नाटक में तो घर बैठे राजकुमार कुमारस्वामी के पास कांग्रेस कुर्सी लेकर पहुंच गई. आइए, महाराज सुशोभित कीजिए. राजाओं की दूसरी या तीसरी पीढ़ी. सियासत की काबिलियत गिरवी है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)