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कर्नाटक: बीजेपी को खतरा गठबंधन से नहीं, अपने खिसकते वोट बैंक से है

नई दिल्ली। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस और जनता दल सेकुलर (जेडीएस) ने एक साथ आकर बीजेपी को बड़ी आसानी से सत्ता से बेदखल कर दिया. उसके बाद से यह धारणा बलवती हुई है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन बीजेपी को उसी तरह का नुकसान पहुंचा सकता है, जिस तरह के नुकसान का अंदेशा सपा-बसपा के गठबंधन से उत्तर प्रदेश में है.

लेकिन 2014 में हुए लोकसभा चुनाव परिणाम का विश्लेषण करें, तो कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन विरोधाभासी असर डालता नजर आएगा. एक तरफ यह गठबंधन के वोट बैंक में खासी बढ़ोतरी दिखाएगा, तो दूसरी तरफ सीटों का इजाफा न के बराबर होगा.

क्या है कर्नाटक का लोकसभा का गणित
लोकसभा में कर्नाटक से 28 सीटें आती हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां बीजेपी को 17, कांग्रेस को 9 और जेडीएस को 2 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. तब बीजेपी को 43.37 फीसदी, कांग्रेस को 41.15 फीसदी और जेडीएस को 11.07 फीसदी वोट मिले थे. अगर कांग्रेस और जेडीएस के वोट जोड़ लें तो यह 52 फीसदी से अधिक हो जाता है. वहीं यूपी में सपा-बसपा का कुल वोट 44 फीसदी ही होता है.

अब जरा बीजेपी का वोट देखें तो वह यूपी और कर्नाटक में लगभग एक-सा, यानी 43 फीसदी से कुछ अधिक है. लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव का परिणाम देखें, तो पता चलता है कि कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से सिर्फ मैसूर इकलौती लोकसभा सीट है, जहां अगर जेडीएस और कांग्रेस साथ आते तो बीजेपी के हाथ से यह सीट निकल जाती. जबकि यूपी में सपा-बसपा गठबंधन की सूरत में बीजेपी पिछले लोकसभा चुनाव के 73 सीटों के आंकड़े से सीधे 37 सीट पर लुढ़कती दिखती है.

जेडीएस की इलाकाई ताकत बनी गठबंधन की कमजोरी
देखने में यह अजीब लग सकता है कि 52 फीसदी वोट पाने वाला गठबंधन बीजेपी को इतना कम नुकसान कैसे पहुंचा रहा है. इसे आंकड़ों से समझने से पहले जरा एक उदाहरण से समझें. अगर यूपी का ही उदाहरण लें तो कर्नाटक में जेडीएस की स्थिति कुछ-कुछ अजित सिंह के लोकदल जैसी है. यूपी में अजित सिंह की पार्टी सिर्फ पश्चिमी यूपी तक सीमित है और उसका कोर वोटर जाट है. इसी तरह कर्नाटक में जेडीएस मुख्य रूप से मैसूर और आसपास के इलाके की पार्टी है और उसका कोर वोटर वोक्कालिगा है. यह दोनों पाटियां अपने कोर वोटर के साथ मुस्लिम वोटर को मिलाकर जीत हासिल करती हैं. जब इनका मुस्लिम वोटर कहीं और चला जाता है तो यह धरातल पर आ जाती हैं. जिस तरह पश्चिमी यूपी के बाहर लोकदल का कोई जनाधार नहीं है, कुछ सीटों को छोड़कर कर्नाटक में यही हाल जेडीएस का है.

जेडीएस बीजेपी से लड़ती ही नहीं तो हराएगी कैसे
जेडीएस के साथ सबसे बड़ी बात यह है कि वह अपने प्रभाव वाले इलाके में कांग्रेस से ही मुकाबला करती है. दिलचस्प बात यह है कि इन इलाकों में बीजेपी का खास असर नहीं है. यानी अगर गठबंधन न हो तो इन इलाकों की सीटें कांग्रेस और जेडीएस के बीच बंटेंगी. वहीं गठबंधन हो गया तो दोनों पार्टियां राजीखुशी यही सीटें आपस में बांट लेंगी. चूंकि बीजेपी इस इलाके में है ही नहीं इसलिए उसे नुकसान होने का खास सवाल नहीं उठता.

उधर, जहां बीजेपी मजबूत है, वहां जेडीएस का मामूली असर है. इन इलाकों में जेडीएस के पास निर्णायक वोट नहीं है. ऐसे में गठबंधन होने के बावजूद वह बीजेपी से लड़ने में कांग्रेस की मदद नहीं कर सकती. यहां जो करना है कांग्रेस को अपने दम पर करना है.

9 लोकसभा सीट पर जेडीएस का असर, सीधी लड़ाई कांग्रेस से
पिछले लोकसभा चुनाव में कर्नाटक की 28 में से जो 17 सीटें बीजेपी ने जीतीं, उनमें मैसूर सीट पर बीजेपी को 43.45 फीसदी, कांग्रेस को 40.73 फीसदी और जेडीएस को 11.95 फीसदी वोट मिले थे. यहां कांग्रेस और जेडीएस के वोट मिला लें तो कांग्रेस यह सीट बीजेपी से छीन सकती है. अगर बीजेपी की जीती बाकी सीटें देखें तो शिमोगा में जेडीएस को 21.49 फीसदी वोट मिले थे. यहां भी कांग्रेस और जेडीएस के कुल वोट मिलाकर बीजेपी के बीएस येदियुरप्पा के वोटों का मुकाबला नहीं कर पाते. बीजेपी की जीती बाकी सीटों में जेडीएस कहीं भी इतने वोट नहीं पा सकी, कि उन्हें कांग्रेस के वोटों में जोड़ दिया जाए तो कांग्रेस जीत जाए.

जेडीएस ने जिन सीटों पर अच्छे वोट पाए वे थीं- चित्रदुर्ग, तुमकुर, बेंगलुरू रूरल, चिक्कबालपुर और कोलार. लेकिन ये सारी सीटें पिछले चुनाव में कांग्रेस ने ही जीती थीं. यानी इस सीटों पर गठबंधन का वोट तो बहुत बढ़ जाएगा, लेकिन सीटों की संख्या वहीं रहेगी. पिछले चुनाव में जेडीएस ने दो सीटें जीती थीं- हासन और मांड्या, लेकिन इन सीटों पर भी उसने बीजेपी नहीं, कांग्रेस को हराया था. इन सीटों पर बीजेपी का वोट इतना कम है कि वह कहीं रेस में ही नहीं है. इस तरह देखा जाए तो जेडीएस के प्रभाव वाली 9 में से 8 सीटें पहले ही गठबंधन के पास हैं. ले-देकर मैसूर ही बचती है, जिसका परिणाम गठबंधन बदलेगा.

खिसकता वोट बैंक है बीजेपी की असली चिंता
अब तक के विश्लेषण से इतना साफ है कि गठबंधन से वोट तो खूब बढ़ेंगे, लेकिन सीटें नहीं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बीजेपी को लोकसभा में कर्नाटक से झटका लगने की कोई आशंका नहीं है. दरअसल 2014 लोकसभा चुनाव में 43.37 फीसदी वोट पाने वाली बीजेपी 2018 के विधानसभा चुनाव में महज 36 फीसदी वोट पा सकी. इस तरह चार साल में बीजेपी ने 7 फीसदी से अधिक वोट गंवा दिया है.

बीजेपी के लिए सबसे बड़ी तकलीफ यह है कि यह वोट उसने कांग्रेस के हाथों गंवाया है. यानी बीजेपी के प्रभाव वाले इलाकों में जब कांग्रेस बीजेपी आमने-सामने आएंगी तो कांग्रेस 2014 की तुलना में बेहतर स्थिति में होगी. दूसरी तरफ कांग्रेस का वोट भी लोकसभा 2014 के 41.15 फीसदी से घटकर 2018 में 38 फीसदी रह गया है. लेकिन कांग्रेस के लिए राहत की बात यह है कि उसने अपना वोट बीजेपी नहीं, जेडीएस के हाथ गंवाया है.

जेडीएस को लोकसभा में 11 फीसदी वोट मिला था जो इस चुनाव में बढ़कर 18 फीसदी हो गया है. यानी कांग्रेस जो गंवाएगी वह अपनी दोस्त जेडीएस के लिए गंवाएगी यानी कुल मिलाकर कोई घाटा नहीं है. जेडीएस के साथ एक बात और है कि क्षेत्रीय पार्टी होने के कारण हर बार विधानसभा में उसका वोट बढ़ जाता है और लोकसभा में घट जाता है. इसीलिए विधानसभा में वह 40 सीट तक पहुंच जाती है, जबकि लोकसभा में दो सीट से ऊपर नहीं बढ़ पाती. यानी गठबंधन की सूरत में पार्टी को लोकसभा में कांग्रेस के लिए ज्यादा सीटें छोड़नी पड़ सकती हैं. लेकिन इन हालात में भी जेडीएस के असर वाले इलाके में बीजेपी को कुछ मिलने की उम्मीद कम ही है.

ऐसे में जब लोकसभा चुनाव के लिए कुछ ही महीने बचे हैं, बीजेपी को कर्नाटक के लिए नई रणनीति बनानी होगी. पार्टी को यह तो समझना ही होगा कि आखिर वह कौन-सा 7 फीसदी वोटर है जो उसने पिछले चार साल में खो दिया. कहीं यह वोटर लिंगायत तबके से तो नहीं है, जिसकी खातिर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पूरी ताकत झोंक दी थी.

पिछले लोकसभा चुनाव में दलितों की कुछ जातियों ने भी नरेंद्र मोदी के लिए वोट किया था. लेकिन उसके बाद से पूरे भारत में दलित उत्पीड़न का मुद्दा जोर-शोर से उठा और कर्नाटक भी उससे अछूता नहीं रहा. हो, सकता है पार्टी को दलित वोटर की ओर से चोट लगी हो. एक संभावना यह भी है कि यह वह वोटर हो जिसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे के लिए 2014 में बीजेपी को पहली बार वोट दिया हो और चार साल बाद बीजेपी से विमुख हो रहा हो. वजह कोई भी हो, लेकिन 2019 में कर्नाटक बचाने के लिए बीजेपी को गठबंधन का हौवा देखने के बजाय अपना खिसकता हुआ जनाधार बचाना होगा.