अरुण तिवारी
‘शाहजहां का लाल किला अब डालमिया ग्रुप का लाल किला होगा’
बीते शनिवार को इस खबर के आने के थोड़ी देर बाद ही तृणमूल कांग्रेस पार्टी के नेता डेरेक ओ ब्रायन ने कह दिया लाल किले को प्राइवेट हाथों में बेचा जाना ठीक नहीं है. लेकिन कम लोगों को पता है डेरेक ओ ब्रायन ने शुरुआती चरण में एडॉप्ट अ हेरिटेज स्कीम की तारीफ की थी. पिछले साल ट्रांसपोर्ट, टूरिज्म और कल्चर पर बनी स्टैंडिंग कमेटी के हेड के तौर पर उन्होंने कहा था ये सरकार का स्वागत योग्य कदम है. सिर्फ इतना ही नहीं कमेटी की रिपोर्ट नंबर 59 में ये भी लिखा था कि सरकार को कॉरपोरेट हाउसेज पर दबाव डालना चाहिए कि वो किसी राष्ट्रीय धरोहर को जरूर गोद लें. लेकिन अब डेरेक ओ ब्रायन कह रहे हैं लाक किले को ‘बेचा’ जाना गलत है. और ये बेचा जाना वही है जिसकी उन्होंने वकालत की थी. मजेदार ये है कि जिस स्कीम की तब डेरेक ने तारीफ की थी उसमें कोई भी परिवर्तन सरकार द्वारा नहीं किया गया है.
मोदी सरकार की रीपैकेजिंग
करीब 8 महीने पहले केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा एक स्कीम की लॉन्चिंग की गई जिसका नाम था अडॉप्ट अ हेरिटेज स्कीम. इस स्कीम के तहत देशभर के 100 ऐसे ऐतिहासिक स्थानों को चिन्हित किया गया जिसे किसी के द्वारा रखरखाव के लिए अडॉप्ट किया जाए. इस प्रक्रिया में कोई भी शरीक हो सकता है. इसके लिए सरकार की तरफ से ‘मॉन्यूमेंट मित्र’ का नाम लिया गया. इस लिस्ट में न केवल लाल किला और ताजमहल बल्कि फतेहपुर सीकरी आगरा और कोणार्क का सूर्य मंदिर जैसे न जाने कितने धरोहर शामिल हैं.
लाल किले के बिकने की खबर पर हो हल्ला मचने के बाद पर्यटन मंत्री महेश शर्मा ने स्पष्ट बयान दिया, ‘मुझे नहीं पता ये आंकड़ा कहां से आया क्योंकि पूरे समझौते में पैसों की कोई बात है ही नहीं. 25 करोड़ तो दूर की बात है, 25 रुपये क्या इसमें 5 रुपये तक की भी बात नहीं है. ना कंपनी सरकार को पैसे देगी ना ही सरकार कंपनी को कुछ दे रही है. जैसे पहले पुरातत्व विभाग टिकट देता था व्यवस्था वैसी ही रहेगी और बस पर्यटकों के लिए सुविधाएं बढ़ जाएंगी.’
पर्यटन मंत्रालय की तरफ से मीडिया में चल रही खबरों पर विज्ञप्ति भी जारी की गई. उसमें लिखा गया कि जो एमओयू साइन हुआ वो सिर्फ विकास कार्यों, लाल किले के इर्द गिर्द सुविधाएं बढ़ाने के लिए हुआ है. इसमें मॉन्यूमेंट के हैंड ओवर जैसी कोई बात ही नहीं है.
संभव है कि सरकारी तंत्र की तरफ से कुछ बातें इसके लिए गढ़ी जा रही हों लेकिन जब हमने इसके एडॉप्ट ए हेरिटेज स्कीम की वेबसाइट खंगाली तो वहां पर लीज पर देने या बेचने जैसी कोई बात सामने नहीं आई. इसके लिए इस स्कीम की गाइडलाइंस देखी जा सकती हैं. इसके भीतर सारे प्रावधान रखरखाव से संबंधित ही हैं. हां कंपनी को अपने प्रचार के लिए अपने ऐड लगाने की अनुमति जरूर नियमों में वर्णित है.
देश में पहली बार लागू हुई है ऐसी कोई स्कीम?
इस खबर के प्रकाशित होने के साथ ही ऐसा प्रदर्शित किया गया कि देश में ऐसा पहली बार हो रहा है और लोकतांत्रिक मूल्यों के किले ढहने शुरू हो गए. लेकिन ऐसा नहीं है कि इस तरह की कोई स्कीम पहली बार मोदी सरकार में ही आई है. वेबसाइट स्क्रॉल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 2007 में महाराष्ट्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने एडॉप्ट अ मॉन्यूमेंट स्कीम के तहत प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को पांच साल के ऐतिहासिक धरोहरों को गोद लेने की स्कीम शुरू की थी. बाद में 2014 में जब पृथ्वीराज चव्हाण राज्य के मुख्यमंत्री थे तब इस स्कीम को बढ़ाकर कांग्रेस की ही सरकार ने दस साल के लिए कर दिया था. इसका कारण था कि कंपनियों की तरफ से ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया गया.
इस स्कीम के तहत महाराष्ट्र के ओस्मानाबाद जिले के नालदुर्ग किले को यूनी मल्टीकॉन्स कंपनी ने अडॉप्ट किया था. इसके एवज में कंपनी को सरकार की तरफ से इस किले के नजदीक एक जमीन का एक टुकड़ा भी उपलब्ध कराया गया था जिस पर वह सैलानियों के रेजॉर्ट तैयार कर सके. कंपनी ने किले को बेहतर बनाने के लिए काम भी किए हैं जिनमें किले की सफाई, लॉन और सड़कों के काम शामिल हैं.
लेकिन अगर आप इस वक्त आप कांग्रेस के विरोध को सुनें तो वो बिल्कुल उल्टे प्रतीत होते हैं. केंद्र सरकार पर देश की धरोहर गिरवी रखने तक के आरोप लगा रहे हैं. विपक्ष का सरकार को आड़े हाथों लेना लोकतंत्र की सांसें चलते रहने के लिए बेहद जरूरी है लेकिन ऐसी आलोचना! जहां केंद्र में आपकी सरकार रहते आपकी ही पार्टी के एक मुख्यमंत्री ने वर्षों तक ये योजना चलाई?
यही नहीं 27 फरवरी 2014 को जब यूपीए सरकार के आखिरी दिन चल रहे थे तब कॉरपोरेट मामलों के मंत्री सचिन पायलट के मंत्रालय से जारी विज्ञप्ति को देखिए. इस विज्ञप्ति कंपनियों के कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिटी कार्यक्रम के नियम तय किए गए हैं. इस विज्ञप्ति की हेडिंग में यह भी लिखा गया है कि ये काफी मशक्कत के बाद तैयार किया गया है. क्या इसके नियम नंबर (e) में राष्ट्रीय धरोहरों के जीर्णोद्धार और रखरखाव की बात नहीं है?
और जब ऐसा है तो कांग्रेस और डेरेक ओ ब्रायन जैसे नेता किसको बरगलाना चाहते हैं? क्या ये लोग सोशल मीडिया एक्टिविस्ट हैं ? क्या अगर 2014 में एनडीए की बजाए एक बार फिर यूपीए की ही सरकार होती तो क्या सीएसआर नियम लागू नहीं होते? और क्यों न होते उनकी ही पार्टी के शासन वाले एक राज्य में आखिर ये स्कीम 7 सालों से चल रही थी.
यही नहीं यूपीए सरकार के दौरान ही 2013 में ओएनजीसी ने ताज महल को गोद लिया था. इसके अलावा ओएनजीसी द्वारा अजंता और एलोरा, हैदराबाद का गोलकोंडा किला, तमिलनाडु का महाबलिपुरम और सबसे अहम दिल्ली का लाल किला गोद लेने की योजना थी. जी हां, दिल्ली का लाल किला जिस पर फिलवक्त कांग्रेस पार्टी बेहद दुखी है.
1996 में बना था नेशनल कल्चरल फंड
दरअसल राष्ट्रीय धरोहरों के संरक्षण और रखरखाव में प्राइवेट प्लेयर्स और पब्लिक सेक्टर की कंपनियों के लिए दरवाजे खुलने का मामला 1996 में बनी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार से शुरू होता है. जब कल्चर मिनिस्ट्री नेशनल कल्चरल फंड की स्थापना की थी. इसका मूल उद्देश्य राष्ट्रीय धरोहरों की देखभाल के लिए पीपीपी मॉडल स्थापित करने का था. इसके लिए लिए चैरिटेबल एंडाउमेंट्स एक्ट, 1890के तहत कंपनियों को कर में छूट देने की बात शामिल की गई.
इस बात को 22 साल बीत गए इस बीच न एनडीए और न ही यूपीए दोनों को ही इससे कोई परेशानी नहीं रही. 10 साला यूपीए सरकार के दौरान सरकार और प्राइवेट शक्तियों के बीच कई एमओयू साइन हुए लेकिन कभी कोई हल्ला नहीं मचा.
2008 में दो इंटरनेशनल फंडिंग एजेंसीज नॉर्थ केरोलिना की ग्लोबल हेरिटेज फंड और यूनेस्को मॉन्यूमेंट फंड ने जिंदल साउथ वेस्ट फाउंडेशन के साथ मिलकर दुनिया भर में मशहूर कर्नाटक में हम्पी के खंडहरों में तीन मंदिरों का निर्माण कराया.
इसके अलावा हुमायूं के मकबरे का जीर्णोद्धार भी इसमें शामिल है. यूपीए के समय ही शुरू और पूरा हुआ ये काम आगा खान फाउंडेशन ने पूरा किया. इस काम में टाटा कंपनी का भी पैसा लगा. आगा खान फाउंडेशन का हेडक्वार्टर जेनेवा में है.
इतिहासकारों का विरोध
सैलानियों की संख्या बढ़ाने और जीर्णोद्धार में प्राइवेट प्लेयर्स की मदद के खिलाफ बोलते हुए मध्यकालीन इतिहासकार इरफान हबीब ने लाल किले का रखरखाव डालमिया ग्रुप के हवाले किए जाने का विरोध किया है. उन्होंने हुमायूं के मकबरे का जीर्णोद्धार भी आगा खां फाउंडेशन के जरिए कराए जाने का विरोध किया है.
सोशल मीडिया पर ‘बेसमझ’ बहस
अलग-अगल मीडिया वेबसाइटों पर खबर चली तो एकबारगी लोगों के लिए चौंकाने वाली बात थी. इस खबर के अलग-अगल लिंक लोगों द्वारा सोशल साइट्स पर खूब शेयर होने लगे और इस संदेह के साथ कि भविष्य में ताजमहल भी बिकेगा!
आप समझ सकते हैं कि ताजमहल और लालकिले के बिकने की अफवाहें भी किस तरह लोगों के बीच अपना असर बना सकती हैं. जैसा कि अक्सर होता है कि उल्टे-सीधे रिएक्शन से लेकर देश को ब्रिटिश हुकूमत के सामने गिरवी रख देने के तर्क के साथ ही न जाने कितने कमेंट्स और पोस्ट्स की बाढ़ आ गई. लोगों ने एक मुंह होकर सरकार को गाली बकना शुरू कर दिया.
लेकिन सोशल मीडिया रिएक्शन्स से इतर होकर जब हम चौकन्ने होते हैं और इस खबर की वास्तविक पड़ताल करने में जुटते हैं तो पता चलता है कि ऐसा सालों से चल रहा है वो भी सरकारी स्कीमों को तहत न कि किसी दबे-छिपे अंदाज में.