पूरे उत्तर भारत की हवाएं इस वक्त खराब हैं। दिल्ली-एनसीआर में सांसों पर आपातकाल लगा हुआ है। लेकिन देश की बड़ी आबादी स्वच्छ व सेहतमंद हवा में सांस ले रही हैं। दक्षिण भारत की हवाएं तुलनात्मक रूप से साफ हैं। इनमें से कई शहरों में प्रदूषण का नामोनिशान नहीं है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने वीकेंड पर शनिवार जिन 200 शहरों का वायु गुणवत्ता सूचकांक जारी किया, उनमें से 26 शहरों का सूचकांक 50 से नीचे है। जबकि 28 शहरों में आंकड़ा 300 से पार है। नौ शहरों में तो संकट सांसों पर आ गया है। यहां का सूचकांक 400 से ऊपर है। इसमें दिल्ली समेत नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद व फरीदाबाद शामिल हैं।
सीपीसीबी के आंकड़ों के मुताबिक, ग्रेटर नोएडा शनिवार को सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर रहा। इसका वायु गुणवत्ता सूचकांक 490 दर्ज किया गया। हवा की गुणवत्ता के दूसरे छोर पर सबसे अच्छी हवा तमिलनाडु के अलियलूर की रही। शहर का वायु गुणवत्ता सूचकांक महज 12 था। इस मामले में दूसरा नंबर तमिलनाडु के रामनाथपुरम का है। यहां की हवा की गुणवत्ता 14 दर्ज की गई। हवा की गुणवत्ता के मामले में उत्तर व दक्षिण भारत के बीच साफ-साफ विभाजक रेखा दिखती है।
खराब से बेहद खराब श्रेणी के ज्यादातर शहर उत्तर भारत के हैं और अच्छी से संतोषजनक स्तर की हवाओं वाले ज्यादातर शहर दक्षिण भारत के। दिल्ली-एनसीआर के वायु प्रदूषण के शोधार्थी और सेंट्रल युनिवर्सिटी, राजस्थान के प्रोफेसर डॉ. जय प्रकाश बताते हैं कि इसमें भूगोल के साथ मौसमी दशाओं की बड़ी भूमिका है। सिंधु-गंगा के मैदान में धूल के महीने कणों का हवाएं दूर तक ले जाती हैं। पंजाब से पराली का धुंआ, राजस्थान की रेतीली हवाएं दिल्ली-एनसीआर पर असर डालती है। जबकि दक्षिण में नमी ज्यादा होने से धूल धरती पर बैठ जाती है। इसमें घनी बसावट का भी अपना योगदान है।
धूल के महीन कण हैं सबसे बड़े प्रदूषक
विशेषज्ञ बताते हैं कि उत्तर व दक्षिण के प्रदूषण में भारी अंतर के पीछे की वजह मौसमी दशाएं और भौगोलिक बनावट व बसावट है। सिंधु-गंगा मैदान के बड़े प्रदूषक धूल के महीने कण पीएम-10 व पीएम-2.5 हैं। सर्दियों की हवा में नमी कम होने धूल के महीने कण जमीन पर नहीं बैठ पाते। वहीं, मैदानी क्षेत्र में उत्तर पश्चिमी, उत्तर-उत्तर-पश्चिमी व उत्तर पूर्वी से चलने वाली तेज हवाएं दूर तक प्रदूषकों को ले जाती हैं। पराली का धुंआ पंजाब व हरियाणा से दिल्ली-एनसीआर तक पहुंच जाता है। इससे इन दिनों की तरह हर सर्दी घनी बसावट का यह इलाका स्मॉग की मोटी चादर से ढंक रहता है। इसके विपरीत अरब सागर, बंगाल की खाली और हिंद महासागर से घिरे दक्षिण भारत में तेजी से मौसमी बदलाव नहीं होते। फिर, नमी ज्यादा होने से धूल के कण धरती पर बैठ जाते हैं। जो भी प्रदूषण होता है, वह स्थानीय होता है। वैश्विक मॉडल का अध्ययन करने की जगह सरकारों को अपने देश का ही अध्ययन कर वायु प्रदूषण की स्थिति से निपटने की कोशिश करनी चाहिए।
दिल्ली और एनसीआर की हवाओं के बड़े खलनायक
भौगाेलिक स्थिति दिल्ली हर तरफ से जमीन से घिरी है। हवाओं के मामले में इसकी स्थिति कीप जैसी है। पड़ोसी राज्यों की मौसमी हलचल का सीधा असर दिल्ली-एनसीआर में पड़ता है। चारों तरफ से आने वाली हवाएं कीप सरीखे दिल्ली-एनसीआर में फंस जाती हैं। नतीजा गंभीर स्तर के प्रदूषण के तौर पर दिखता है।
मिक्सिंग हाइट व वेंटिलेशन इंडेक्स में गिरावट
सर्दी में मिक्सिंग हाइट (जमीन की सतह से वह ऊंचाई, जहां तक आबोहवा का विस्तार होता है) कम होती है। गर्मियों के औसत चार किमी के विपरीत सर्दियों में यह एक किमी से भी कम रहता है। वहीं, वेंटिलेशन इंडेक्स (मिक्सिंग हाइट और हवा की चाल का अनुपात) भी संकरा हो जाता है। इससे प्रदूषक ऊंचाई के साथ क्षैतिज दिशा में भी दूर-दूर तक नहीं फैल पाते। पूरा इलाका ऐसे हो जाता है, जैसे कंबल से उसे ढंक दिया गया हो। शनिवार को हवा की मिक्सिंग हाइट 3्र्र,000 मीटर रही। जबकि वेंटिलेशन इंडेक्स 9000 वर्ग मीटर प्रति सेकेंड रहा।
हवाओं का रुख बदला रफ्तार पड़ी धीमी
गर्मी के उलट सर्दी में दिल्ली पहुंचने वाली हवाएं उत्तर, उत्तर-पश्चिम, उत्तर-उत्तर-पश्चिम और पश्चिम से दिल्ली-एनसीआर में पहुंचती हैं। वातावरण की ऊपरी सतह पर चलने वाली यही हवाएं प्रदूषकों को दूसरे शहरों से दिल्ली लेकर पहुंचती हैं। जबकि धरती की सतह पर चलने वाली हवाओं की चाल धीमी होती है। शनिवार सतह पर चलने वाली हवाओं की दिशा उत्तर और उत्तर पश्चिमी रही। इसकी चाल हर घंटे औसतन छह किमी थी। जबकि हर घंटे 10 किमी होना चाहिए। इससे दूर से आने वाले प्रदूषकों का सतह की हवाओं के सुस्त पड़ने से दूर तक जाना संभव नहीं रहता।