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आशीष नौटियाल

हर गली-मोहल्ले-कस्बे में लगे हाशमी दवाखाना वालों के इश्तिहार देखकर लगता है कि इस देश की सबसे बड़ी समस्या वामपंथ, आतंकवाद या फिर गरीबी नहीं बल्कि मर्दाना कमजोरी है। लेकिन हाशमी दवाखाने के इश्तिहारों को अब गली मोहल्ले से अपना पता बदल लेना चाहिए। अब हाशमी दवाखाने का पता तो छोड़िए, उनका धंधा भी मंदा होने के कगार पर है, क्योंकि BBC जैसा टक्कर का प्रतिद्वंद्वी मैदान में उतर चुका है और वो सुनिश्चित कर रहा है कि देश से मर्दाना कमजोरी को जड़ से मिटा दिया जाए। BBC का छोटा भाई The Print भी कम नहीं है। वो भी अनुसरण करते हुए एक कदम आगे बढ़ चुका है।

इस समस्या (मर्दाना कमजोरी) की जिम्मेदारी BBC ने अपने कन्धों पर ले ली है। हालात ये हैं कि गिरती लोकप्रियता के कारण BBC हाशमी दवाखाना के विज्ञापनों की तरह ही अपने होमपेज पर सेक्स ही सेक्स लिखते हुए घूम रहा है। हाशमी दवाखाना वालों के मार्केट पर इससे जरूर गहरी चोट लग सकती है। BBC और The Print एक दिन में इतनी बार “सेक्स” बेच रहे हैं कि लोगों को यकीन नहीं हो रहा है कि Jio ने वाकई में पॉर्न वेबसाइट्स को बंद कर दिया है क्योंकि उनका मानना है कि BBC और The Print वेबसाइट्स तो आराम से चल जाती हैं।

BBC पर लोग क्या पढ़ने जाते हैं, इस चित्र के माध्यम से समझें –

अंग्रजों द्वारा त्यागी गई शौच से जन्मे इस संस्थान यानी, BBC ने इस दौड़ में देश के युवाओं की मदद भी की है। देश का युवा तड़प रहा था कि सरकार आए दिन अश्लील वेबसाइट्स को ब्लॉक कर दे रही है। इसके बाद सबसे बड़ा कुठाराघात देश के युवा की भावनाओं पर रिलायंस Jio ने ‘गन्दी वेबसाइट्स’ बंद कर के किया। देश के युवा की भावनाओं पर यह दोतरफा हमला इतना मजबूत था कि हर कोई निराश था।

लेकिन पत्रकारिता की परिभाषा रचने वाले BBC ने युवाओं का मान रखा और अपनी वेबसाइट के चप्पे-चप्पे को सेक्स ही सेक्स, भरपूर सेक्स से लबरेज कर दिया। मनोहर कहानियाँ पढ़ने के शौक़ीन लोगों को पहले पता रहता था कि उन्हें इससे सम्बंधित ‘सामग्री’ किस चौराहे, रेलवे स्टेशन और कबाड़ी मार्केट में जाकर खरीदनी है। लेकिन पत्रकारिता के नाम पर भी यही सब धड़ल्ले से कर पाने का हौंसला BBC और The Print ही जुटा पाए हैं।

BBC को अपनी सेक्स ही सेक्स से लबरेज ख़बरों का प्रिंट निकालकर उसे समोसा पैक करने वालों को गिफ्ट कर देना चाहिए क्योंकि “Why should TOI have all the fun” –

जिस तरह से सूर्यवंशम फिल्म में हीरा ठाकुर की बस की टिकट बेचने के लिए अनुपम खेर और कादर खान ने बस को ‘सुपर डीलक्स’ बस बना कर टिकट बेचा था, उसी तरह से BBC खबर बेचने के लिए सेक्स ही सेक्स बेच रहा है। ख़ास बात ये है कि पत्रकारिता के इस नेहरू-स्तम्भ यानी, BBC का मुकाबला अब मशहूर सॉफ्ट पॉर्न वेबसाइट लाइम्स ग्रुप के साथ नहीं बल्कि हाशमी दवाखाने के साथ है।

‘ट्रैफिक’ के लिए हीरा ठाकुर द्वारा अपनाई गई वह कालजयी तरकीब जिससे BBC को प्रेरणा मिली है –

BBC आज के समय में पत्रकारिता के नाम पर तैमूर के डायपर से लेकर हिटलर के लिंग की नाप-छाप करने वाले लोगों की ही सुपरलेटिव डिग्री से ज्यादा कुछ नहीं है। आखिर क्या कारण है कि अपने अन्न का पहला हिस्सा नेहरू के लिए रखने वाला जर्नलिज़्म का ये नाम आज ‘ट्रैफिक’ और TRP के लिए सेक्स बेचने को मजबूर हो गया है? इससे अच्छा तो रवीश कुमार का प्राइम टाइम शो है, जो सिर्फ पतंजलि के विज्ञापनों पर जिन्दा है। लेकिन मैं यह उम्मीद करते हुए चल रहा हूँ कि जल्द ही NDTV भी TRP के लिए ट्रोल्स की जगह सनी लियोनी पर आधरित ‘विशेष प्रोग्राम’ चलाना शुरू करेगा। क्योंकि देश में डर का माहौल तो वैसे भी है ही।

The Print और सेक्स का रिश्ता बहुत पुराना है –

द प्रिंट नामक कथित न्यूज़ वेबसाइट और सेक्स का सम्बन्ध वैसा ही है जैसे एक वामपंथी का क्रांति से होता है। यानी, अगर शब्दकोष से क्रांति शब्द को हटा दिया जाए तो वह बिना पानी की मछली जैसा विचलित होने लगता है। वो तड़पने लगता है। इसी तरह द प्रिंट लोकसभा चुनाव से पहले भी यह कारनामा करते हुए देखा गया था।
इस बार द प्रिंट ने सोशल मीडिया एप्प के कंधे पर बन्दूक रखकर अपनी मानसिकता का जहर उड़ेला है।

ट्रैफिक और कंटेंट की कमी से जूझ रहे द प्रिंट की रिपोर्ट कहती है कि लोगों की सेक्स लाइफ पर राजनीति का असर देखने को मिल रहा है। लगे हाथ द प्रिंट ने बताया कि दिल्ली के निवासी जो पेशे से वकील हैं, का कहना है कि “I don’t f**k fascists” यानी, “मैं किसी फासिस्ट के साथ संभोग नहीं करूँगा।”

इसके साथ ही द प्रिंट ने एक पूरी रिसर्च बिठाकर अलग-अलग नामों के जरिए लोगों के सेक्स करने की प्राथमिकताओं को ‘Culture’ यानी संस्कृति की कैटेगरी में रखा है। जबकि लोगों की सेक्स की प्राथमिकताएँ उनके लाइफस्टाइल का हिस्सा होती हैं।

इसी लेख में यह भी बताया गया है कि वामपंथियों को फ़ासिस्ट पसंद नहीं हैं, लेकिन यह नहीं लिखा गया है कि क्या फ़ासिस्ट वामपंथियों से सेक्स करने के लिए मरे जा रहे हैं? क्या फासिस्ट हर वामपंथी को ‘कुंडी मत खरकाओ राजा, सीधा अंदर आओ राजा’ के सन्देश देते फिर रहे हैं?

इसी आर्टिकल में द प्रिंट किसी वीर मिश्रा नामक युवक से, जिसे समलैंगिक (Gay) बताया गया है, का भी प्रकरण जोड़ते हुए बताया है कि वीर मिश्रा डेटिंग एप्स पर ‘गौ-रक्षकों’ को देखकर हैरान था। वीर मिश्रा बताता है कि गौ-रक्षकों ने डेटिंग एप्स पर अपने परिचय में अपने गौरक्षक होने की बात लिखी थी। द प्रिंट ने वीर मिश्रा के हवाले से लिखा है कि समलैंगिकों की डेटिंग साइट पर भाजपा समर्थक भी थे।

प्रिंट की इस रिसर्च की पोल इसी बात से खुल जाती है कि LGBTQIA या धारा 377 पर फैसला भाजपा सरकार के कार्यकाल में ही आया है। दूसरी बात, प्रिंट को मिश्रा की बातों पर ही नहीं रुकना चाहिए। अगर ‘रिसर्च’ आर्टिकल लिख रहे हैं तो टिंडर पर शेखर गुप्ता (प्रिंट के फाउंडर) को पेड प्रोफ़ाइल बना कर देखना चाहिए कि वास्तव में ऐसे प्रोफ़ाइलों का प्रतिशत कितना है। सिर्फ किसी XYZ मिश्रा ने कहा और आपने मान लिया यह बात ज्यादा हैरान कर देने वाली है। साथ ही, द प्रिंट को समलैंगिक मिश्रा को यह जरूर याद दिलाना चाहिए कि मन में पूर्वग्रह पालना समलैंगिकों को शोभा नहीं देता क्योंकि उनकी कम्यूनिटी से बेहतर ये बातें कोई नहीं जानता। जिस सरकार ने फ़ैसले को न तो चुनौती दी, न संसद से फ़ैसला पलटा, उन्हें ऐसा कहना कि वो समलैंगिकों को देश से बाहर निकालना चाहते हैं, बेकार का लॉजिक है।

किसी भी व्यक्ति की सेक्सुअल प्रीफ्रेंस एकदम निजी मामला होता है। अखबारों के ‘वर-वधू चाहिए’ वाले पन्नों में यह दिख ही जाता है कि किस व्यक्ति को कैसी बहू या पति चाहिए। लेकिन इसके लिए एक पूरा मनगढंत लेख छापकर फर्जी के आँकड़ों को दर्शा कर यह साबित करने का प्रयास करना कि कौन वामपंथियों से और कौन राइट विन्गर्स से सेक्स करना चाहता है, एकदम निम्नस्तरीय पत्रकारिता को ही दर्शाता है।

हमारी राय :

हमारी राय यह है कि The Print और BBC को कम से कम पत्रकारिता के नाम पर सेक्स की खेती करने से बचना चाहिए। मनगढ़ंत साहित्य लिखने की यदि फिर भी रुचि हो तो, रेलवे स्टेशन के बाहर ऐसा पढ़ने की इच्छा रखने वालों को बहुत सारा सामान बेहद सस्ते दामों पर मिल जाता है। सूर्यवंशम फिल्म में भी हीरा ठाकुर ने कहा था कि जिस बस के टिकट बेचने के लिए वो एक महिला का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह बस उसके बाबू जी के नाम पर है। हीरा ठाकुर से प्रेरणा लेते हुए BBC को भी यह स्मरण करना चाहिए कि इस BBC ने नेहरूघाटी सभ्यता का नमक खाया था और उसे इस तरह से सस्ती लोकप्रियता की आँधी में नहीं गँवा दिया जाना चाहिए। रीच आएँगी, जाएँगी लेकिन BBC को हाशमी दवाखाना का विकल्प बनने से बचना चाहिए।

सेक्स, सेक्स , सेक्स और सिर्फ सेक्स का मारक मजा उठाइए BBC पर –

उपरोक्त चित्र में BBC द्वारा पूछे गए सवाल के बाद ही शायद उसने खुद हाशमी दवाखाना बनने का निर्णय लिया है।