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प्रयागराज के महाकुंभ में नागा या अन्य अजब.गजब साधुओं की सेना आखिर बाहरी दुनिया में क्यों नहीं दिखती, यहां स्नान के लिए आने वाले लोगों के मन में उठता है ये सवाल

आगरा आखिर ये आकर्षण कैसा है…दूर-दूर तक संगम की पसरी रेत, साधुओं का रेला और डूबते सूरज की अरुणिमा में दीप्त चेहरे जो लंबे सफर के बाद क्लांत हो चले हैं। बड़े-छोटे, बच्चे, वृद्ध, धनाढ्य या केवल सिर पर गठरी लेकर बस एक कामना लेकर आने वाले की डुबकी तो लगानी ही है। गंगा-यमुना के संगम के साक्षी प्रयागराज में हर तरफ बस एक धुन गूंज रही है। महाकुंभ। मन में बहुत से सवाल उठते हैं, क्या यहां लोग मोक्ष की कामना लेकर आते हैं, या आते हैं अपने को पतित पाविनी गंगा और यमुना की धारा में फिर से निर्मल करने के लिए। या उनके मन में होता है उन साधुओं की एक झलक देखने का सपना, जिन्हें वे यहां के अलावा कहीं नहीं पाते। कभी आपने सोचा कि यहां सैकड़ों की संख्या में दिखने वाले नागा या अन्य अजब-गजब साधुओं की सेना कभी बाहर क्यों नहीं दिखती…या बस यहां हम खुद को खाली करने आते हैं। एक बार फिर उस निर्मल मन के साथ जीने के लिए जो जिंदगी की आपाधापी में कहीं न कहीं पापी बन बैठा।

देखा जाए तो ये बस सवाल हैं, इनका जवाब जानना है तो महाकुंभ की रेत पर दूर तक फैले संगम के विस्तार को समझना होगा। शताब्दियों से यहां हर छह या बारह साल में माघ के सर्द महीने में श्रद्धालु जुटते आए हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि यह सिलसिला बहुत पुराना है। कुंभ का दर्शन जटिल है तो बहुत सरल भी। बड़े हनुमान मंदिर के पास सिर पर जौ उगाए बाबा अमरजीत कहते हैं, विश्व का कल्याण हो यही हमारा उद्देश्य है। वे सोनभद्र ये यहां आए हैं और यहां कल्पवास यानी कुंभ की अवधि में संगम तट पर रहेंगे। वहीं जौनपुर से आए डीके श्रीवास्तव दूर संगम में दिख रही नाव पर नजर जमाकर कहते हैं, यहां आना यानी तर जाना। उनके लिए कुंभ आना किसी भी तीर्थयात्रा से बढ़कर है। यहां आकर जो भाव मिलता है वैसा और कहीं नहीं। संगम तट पर मंडराते पक्षियों को निर्निमेष देख रहे बाबा रामेश्वर दास की कहानी भी संन्यास से मोक्ष के मार्ग की है। दरभंगा में बस मेरा जन्म हुआ, अब ने राग है न विराग।…बस साधना है।