इसी मामले पर दो जजों की बेंच ने सेल्वारानी की याचिका को नकारते हुए मद्रास हाईकोर्ट का 24 जनवरी का फैसला बरकरार रखा। उच्च न्यायालय ने इस मामले में सेल्वारानी की अनुसूचित जाति से जुड़े प्रमाणपत्र की मांग वाली याचिका को खारिज कर दिया था।
जस्टिस महादेवन ने इस केस में बेंच की तरफ से 21 पन्नों का फैसला लिखा। इसमें उन्होंने दूसरे धर्म को अपनाने वालों को लेकर भी टिप्पणी की। जजों ने लिखा, “कई लोग धर्मों के सिद्धांत और मान्यताओं से प्रभावित होकर उन्हें अपना लेते हैं। हालांकि, अगर धर्मांतरण सिर्फ आरक्षण का फायदा लेने के लिए हो और इसमें आपकी कोई आस्था न हो, तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। क्योंकि इस तरह गलत उद्देश्य रखने वालों को आरक्षण का लाभ देकर आरक्षण की नीति और सामाजिक लोकाचार का मकसद ही खत्म हो जाएगा।”
कोर्ट ने इसी के साथ ईसाई धर्म को मानने वाली महिला को अनुसूचित जाति का दर्जा देने से इनकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि ऐसा करना संविधान के साथ धोखा करने जैसा होगा।
कोर्ट ने पाया कि उसके सामने जो सबूत पेश किए गए, वह साफ तौर पर दिखाते हैं कि याचिकाकर्ता ईसाई धर्म का पालन करती है और नियमित तौर पर चर्च भी जाती है। इसके बावजूद वह सिर्फ नौकरी पाने के मकसद से हिंदू होने का दावा करती है और एससी समुदाय के सर्टिफिकेट की मांग करती है। इस तरह के दोहरे दावों का समर्थन नहीं किया जा सकता और वह खुद की पहचान हिंदू के तौर पर नहीं बता सकती।
कोर्ट ने कहा कि दस्तावेजों से साफ होता है कि महिला अभी भी ईसाई धर्म ही मानती है और लोग भी उसे चर्च जाते देखने का दावा कर चुके हैं। बेंच ने कहा कि ईसाई धर्म मान चुके लोग अपनी जातीय पहचान खो देते हैं। ऐसे में उन्हें आरक्षण से जुड़े फायदे उठाने के लिए धर्म में वापस लौटने और मूल जाति में स्वीकारे जाने से जुड़े सबूत पेश करने होंगे। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता की तरफ से ऐसे सबूत भी नहीं मिले, जिसमें उसके हिंदू धर्म में वापस लौटने या वल्लुवन जाति की तरफ से स्वीकारे जाने की बात हो।