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त्रिपुरा : मानिक की बाँझ ईमानदारी बनाम मोदी पर भरोसा

एन के सिंह @nawalkishore.singh.90

इसे “भारत में भी मार्क्सवाद मर गया” कहें या यह कि “लाइफ सपोर्ट सिस्टम से एक और मशीन हटा ली गयी ताकि इसका दिल धडके लेकिन दिमाग काम न कर रहा हो”. विगत ३ मार्च, २०१८ को मार्क्सवाद का दिमाग भी जाता भी रहा जब उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के एक अन्य प्रमुख राज्य त्रिपुरा से भी “वाम” शासन का अंत हो गया. और वह भी किसके द्वारा — “दक्षिण ध्रुव” की भारतीय जनता पार्टी के द्वारा. चुनाव के मार्फ़त न कि किसी खूनी क्रांति से जन -मत में आये इस बड़े बदलाव को सामान्य राजनीतिक विश्लेषण की परिधि में समझना गलत होगा. इस बदलाव के बाद की लेनिन का मूर्ति -भंजन की घटनाएँ भी इस गुपचुप लेकिन क्रांतिकारी बदलाव का विस्तार मात्र है. सभ्य समाज में व्यक्ति की तरह विचारधारा अंतिम सांसें लेते हुए मरणासन्न होती है या मरणासन्न होती हैं तो उसकी विदाई की प्रक्रिया भी शालीन रखने की परम्परा है लेकिन १०१ साल पहले हुए “रूसी क्रांति” की कोख से जन्मी इस शासन व्यवस्था में हर उत्तराधिकारी अपने या तो पूर्ववर्ती को मरवाता रहा या उसकी मूर्तियाँ खंडित करता रहा या फिर उसके योगदान को नकारने वाला इतिहास फिर से लिखवाता रहा. शोषण के खिलाफ समाज के एक लम्पट तबके को कार्यकर्ता के रूप में खडा करना और संवैधानिक -कानूनी शासन प्रक्रिया और संस्थाओं को इन लम्पटों के हाथों की कठपुतली बना कर “वैज्ञानिक चुनावी धाधली कर शासन में बने रहना” इन साम्यवादियों का शगल बन गया. समाज का कमजोर तबका इनके डर के मारे पोलिंग बूथ पर या तो जाता हीं नहीं था या फिर इन्हें दिखा कर वोट करता रहा. इनके खिलाफ खडी होने वाली पार्टियों के कार्यकरता को ये लम्पट वर्ग मारते रहे क्योंकि वैधानिक संस्थाओं और कानून को जेब में रख कर थाना-पुलिस इनके इशारे पर चलती थी.

पश्चिम बंगाल, केरला और त्रिपुरा में कई दशकों में साम्यवाद ने सर्वहारा क्रांति तो नहीं की बल्कि राज्य शक्ति को लम्पटता के साथ मिलकर एक नया शासन -तंत्र विकसित किया. समाज एक घुटन महसूस करने लगा. इनका शमन लोकतान्त्रिक तरीके से करने के हर रास्ते बंद हो गए थे. ऐसे में ममता बनर्जी के रूप में एक प्रति-लम्पट वर्ग को पैदा करना हीं एक मात्र रास्ता था. ममता ने जब उसी भाषा में जवाब दिया तो यह जनता के लिए भी और मार्क्सवादियों के लिए भी यह चौंकाने वाला प्रयास लगा. अभी तक तो वे यह समझते तो कि यह काम केवल उन्हीं की विरासत है. जैसे हीं जनता को लगा कि कोई नयी पार्टी उनके घुटन के खिलाफ मोर्चा ले सकती है और यह कि चुनाव में मार्क्सवादियों के खिलाफ वोट दे कर सुरक्षित रहा जा सकता है तो उन्होंने दशकों से पैठी मन की भड़ास निकल दी. ममत शासन में आयीं.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या उसके राजनीतिक विंग –भारतीय जनता पार्टी – के लिए इस तरह की राजनीति का काट संभव नहीं था. लेकिन उन्हें भी एक वर्ग ऐसा खड़ा करना पड़ रहा है जो इस सत्ता-लम्पटता के गठजोड़ को निष्प्रभ कर सके. केरल और त्रिपुरा में शुरू से हीं संघ के कार्यकर्ताओं की बेरहमी से लगातार हो रही हत्याओं के खिलाफ आज एक प्रति -रणनीति अपनानी पडी और आज संघ के लोग भी मजबूरन उसी भाषा में जवाब देने लगे हैं. शिकायत अब मार्क्सवादियों की तरफ से हो रही है कि उनके लोग भी मारे जा रहे हैं.

त्रिपुरा में चुनाव जीतने के लेनिन की मूर्ती तोडना इस क्रम का विस्तार है. यह गैर-मार्क्सवादी ताकतों की मजबूरी थी. यह वहां की जनता को इस बात का भरोसा दिलाने जैसे था कि तुमने सरकार बदल कर अपना काम तो कर दिया लेकिन डरने की कोई जरूरत नहीं है. सी पी एम् के दफ्तरों पर हमला करना भले हीं कानूनी रूप से और नैतिक रूप से गलत हो उससे तरह जैसे लेनिन की प्रतिमा तोड़ना लेकिन कई बार समाज में भरोसा दिलाने के लिए यह प्रयास अपरिहार्य होते हैं. यह मात्र प्रारंभिक प्रतिक्रया होती है और वह उन कार्यकर्ताओं द्वारा जो दशकों से कम्युनिस्टों के सत्ता-लम्पट कॉकटेल वर्ग का शिकार रह चुकीं हैं.त्रिपुरा को हीं लें. २५ साल का शासन जिसमें २० साल एक ऐसे मार्क्सवादी मुख्यमंत्री के हाथ में बागडोर जो स्वयं बेहद ईमानदार रहा. मानिक सरकार को हाथ में झोला लेकर सब्जी खरीदते तस्वीर लोगों की जेहन में अक्स बना चुकी थीं. लेकिन सत्ता केवल व्यक्तिगत ईमानदारी के बूते जनमत अगर हासिल करती तो मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्रित्व कभी ख़त्म नहीं होता. दरअसल कई बार यह ईमानदारी “बाँझ” होती है और निष्क्रियता की ओर उन्मुख करती है. त्रिपुरा में बेरोजगारी १९.९ प्रतिशत है याने हर घर का एक युवक बेरोजगार है. उद्योग लगे नहीं जिससे राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जी एस डी पी) में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान मात्र ९ प्रतिशत रहा जबकि राष्ट्रीय औसत ज़माने से २८ प्रतिशत के आस पास बना रहा है. कृषि आधारित अर्थ-व्यवस्था में पूँजी विकास नहीं होता नतीजतन लोग सत्ता के प्रति एक नाराज़गी पाले रहते है और जब भी कोई विकल्प मिलता है वे उसे थाम लेते हैं. यही कारण है कि इस राज्य की प्रति-व्यक्ति आय भी नागालैंड और मेघालय से भी कम रही. १४ प्रतिशत और राष्ट्रीय औसत से ३० प्रतिशत कम रही.

चुनाव नतीजों से साफ़ है कि सी पी एम का वोट भले हीं पिछले चुनाव के मुकाबले मात्र छः प्रतिशत हीं कम हुआ हो लेकिन द्वि-ध्रुवीय चुनाव में यह बड़ा मायने रखता है. यह भी सही है कि भाजपा और सी पी एम् के मत में अंतर भी मात्र ०.७ प्रतिशत का रहा लेकिन एफ पी टी पी (फर्स्ट -पास्ट-द-पोस्ट) चुनाव पद्धति में यह बड़ा अंतर इसलिए लाया कि लगभग हर चुनाव क्षेत्र में भाजपा को बढ़त हासिल हुई. फिर कांग्रेस सहित तमाम छोटी पार्टियों की जगह लोगों ने मोदी पर अपना विश्वास रखा. मोदी जिस तरह दौरा कर रहे थे और उत्तर -पूर्वी राज्यों को प्राथमिकता देने की बात कह रहे थे वह लोगों में घर कर गया. राजनीति में वादा तो हर पार्टी करती है पर किसी वादे पर जनता भरोसा करती है वह ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पोअर यह भरोसा इस क्षेत्र की जनता का बढ़ा है.सन १८४८ में कार्ल मार्क्स द्वारा लिखे और साम्यवादियों के “बाइबिल” के रूप में जाने जाने वाले “कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो” की शरुआत में कहा गया है “ साम्यवाद का भूत पूरे यूरोप में छाया हुआ है और पुराने यूरोप की सभी ताकतें –सत्ता में बैठी या सत्ता के बाहर विपक्ष के रूप में खडी – इस भूत से छुटकारा पाने में लग गयी हैं और यही इसका सबूत है कि साम्यवाद एक बड़ी ताकत बन गया है”. इस दस्तावेज के अंत में भविष्यवाणी है कि पूरी दुनिया में एक क्रांति होगी और साम्यवाद दुनिया के सभी प्रकार के साम्यवादी सर्वहारा क्रांति के स्वरूपों के साथ गठजोड़ करेगा. “दुनिया के मजदूरों एक हो” के नारे के साथ यह दस्तावेज ख़त्म होता है. लगभग १५० साल दुनिया में यह विचारधारा सिर्फ किताबों में शोध के लिए सिमट कर रह गयी लेकिन ताज्जुब होता है कि भारत के मार्क्सवादी यही मानते रहे कि सर्वहारा क्रांति आयेगी. २६ अगस्त, सन २००० को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता प्रकाश करात ने एक वार्षिक बैठक में इस बात पर गर्व किया कि भारत में आज भी (तब भी) उनकी पार्टी तीसरी ताकत है और आने वाले दिनों में यह विस्तार लेगी.

विगत ३ मार्च, २०१८ को मार्क्स गलत साबित हुए. दुनिया के सभी मार्क्सवादी भी और भारत में प्रकाश करात भी और उनके साम्यवादी साथी भी. साम्यवाद जो अपने हीं वैचारिक जिद्दीपन और ताज्ज़नित अहंकार से पैदा लम्पटवाद से पनपे कैंसर से घिर गया एक ऐसे रोगी की तरह जो मेटास्टेसिस (कैंसर का एक स्टेज जिसमें यह शरीर के अन्य अंगों में फ़ैलने लगता है. वजन कम होता गया. जब कोई विचारधारा मरती है तो उसे दफनाने का काम शालीनता से होना चाहिए. भारत में विगत ३ मार्च, २०१८ को साम्यवाद लगभग मर गया. केरल में इसके अवशेष बच रहे हैं वह भी इसलिए कि लम्पट और दुस्साहसी आतंक को कई बार जातिवादी और कांग्रेस जैसी ताकतों से भी खाद-पानी मिलता रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने लोगों की कुर्बानी दे कर भी अगर असम में अपने अथक परिश्रम से सत्ता भाजपा को एक थाली में सजा कर दे सकता है तो केरल में भी यह स्थिति जल्द आ सकती है. तब एक बार फिर मार्क्स के उस कथन पर शक हो सकता है कि भारत साम्यवाद के पनपने के लिए बेहतरीन जमीन है.

(वरिष्ठ पत्रकार एन के सिंह के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)