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राहुल के लिए सबसे बड़ी बाधा है सोनिया गांधी का कांग्रेस और राजनीति में सक्रिय होना

रशीद किदवई, वरिष्ठ पत्रकार 

तीन राज्यों में हार का ठीकरा फिर राहुल गांधी पर फोड़ा जा रहा है और सोशल मीडिया में एक बार फिर वह अपनी विदेश यात्रा और नाकामी की वजह से हंसी का पात्र बन गए हैं. इस बीच सवाल यह उठता है कि क्या राहुल कुछ अलग कर सकते थे और उनके पास आगे का रोड मैप क्या है ? दिल्ली में 84वां कांग्रेस महाधिवेशन राहुल के लिए एक मौका होगा जब नए कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वह अपनी पार्टी और समर्थकों में एक नई सोच व ऊर्जा का संचार कर सकें. लेकिन राहुल के लिए सबसे बड़ी बाधा सोनिया गांधी का कांग्रेस और राजनीति में सक्रिय होना है और इसका समाधान केवल 10 जनपथ से ही निकल सकता है.

गौरतलब है कि त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड चुनाव की रणनीति सोनिया गांधी के कार्यकाल में उनकी टीम ने ही तैयार की थीं. सोनिया का यह आंकलन कि त्रिपुरा में कांग्रेस का आक्रमक रुख वामपंथियों को नुकसान पहुंचाएगा, कांग्रेस के लिए आत्मघाती व महंगा साबित हुआ. कांग्रेस महामंत्री सी पी जोशी बंगाल, अण्डमान, असम, बिहार के अलावा त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड, मिज़ोरम, अरुणाचल, सिक्किम व मणिपुर के भी कर्ताधर्ता हैं. इतना ही नहीं जोशी की गृह राज्य राजस्थान की राजनीति में गहरी रुचि है और पिछले एक साल में उनका पूर्वोत्तर राज्यों में कुल दस दिनों से अधिक प्रवास नहीं हुआ. सोनिया ने मणिपुर के चुनाव से कोई सुध नहीं ली और जोशी को 11 राज्यों का इंचार्ज बनाए रखा.

कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति जानने वाले बताते हैं के एक मां व पूर्व अध्यक्षा होने के नाते सोनिया का राहुल पर पूरा दबाव है कि जोशी, मोहन प्रकाश, जनार्दन द्विवेदी जैसे रूटलेस वंडर्स को पार्टी में न सिर्फ रखा जाये बल्कि उनको महत्वपूर्ण पद भी दिए जाएं. ऐसे में सवाल है कि क्या राहुल की कांग्रेस में एक व्यक्ति को एक राज्य की जिम्मेदारी नहीं दी जा सकती है? 29 राज्यों में 29 व्यक्ति पूर्ण व सुचारू रूप से पार्टी के काम काज पर नज़र रख सकेंगे और हर राज्य की विशेष राजनीतिक परिस्थियों को समझ सकेंगे. लेकिन इसके लिए कांग्रेस जन विशेष रूप से पार्टी महामंत्रियों को राज्यसभा सदस्य बनने का चस्का छोड़ना होगा. मीरा कुमार, जनार्दन द्विवेदी व शिवराज पाटिल जैसे नेताओं को कर्नाटक व गुजरात जैसे राज्यों से राज्यसभा में लाने के विचार तो भी त्यागना होगा.

पूर्वोत्तर की वर्तमान राजनीति की जिम्मेदार कांग्रेस ही है. इंदिरा गांधी के दौर में मेघालय व अन्य पूर्वोत्तर के राज्यों की श्रेत्रीय पार्टियों की दुर्गति बनाने व साधनों के बल पर राजनीतिक निष्ठा प्राप्त करने पर एक किताब या अध्याय लिखा जा सकता है. फिलहाल तो केवल “लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पायी” से काम चलाया जा सकता है. यदि नरेंद्र मोदी व बीजेपी, इंदिरा युग में लोकतंत्र से मज़ाक व राज भवन के दुरूपयोग को एक राजनैतिक रणनीति के रूप में दोहराना चाहते हैं को राहुल कांग्रेस को उससे विचलित नहीं होना चाहिए बल्कि एक अवसर के रूप में देखना चाहिए.

इस लेख का अंतिम विषय कांग्रेस की अपनी राजनीतिक सोच व गठबंधन से सम्बंधित है. वाम विचारधारा से राहुल गांधी कांग्रेस की दूरी कितनी जल्दी बना सकते हैं? सोनिया काल में वाम दलों की जो भूमिका रही भले ही उससे कांग्रेस को उस समय लाभ मिला हो, लेकिन आज वाम दल कांग्रेस को केवल नुकसान पहुंचा सकते हैं. राहुल चाहें तो कांग्रेस महाधिवेशन में अपने पार्टी कार्यकर्ताओं की राय भी ले सकते हैं और वह राय ही उनकी भावी रणनीति की बुनियाद होनी चाहिए. राजनीति में दो और दो चार नहीं होते हैं. गठबंधन कागज़ पर नहीं ज़मीनी स्तर पर होना चाहिए, उदहारण कांग्रेस का 1996 बसपा से समझौता, 2016 का कांग्रेस -वाम दल समझौता व 2017 में समाजवादी पार्टी से गठबंधन है जो पार्टी कार्यकर्ताओं पर थोपा गया और पूर्ण रूप से फ्लॉप साबित हुआ.

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