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मुझे मजा आता है जब मनोज बाजपेयी गायब हो जाए, मैं किरदार का इंतजार नहीं करता

ओटीटी के आने के बाद से जिस एक सितारे के अभिनय के नए नए आयाम हिंदी फिल्म दर्शकों को देखने को मिले हैं, वह हैं मनोज बाजपेयी। बीते साल मनोज ने ‘गुलमोहर’, ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ और ‘जोरम’ में अपने अभिनय के विविध आयाम दिखाए। इन किरदारों के लिए उन्हें इनाम भी खूब मिले। अब नए साल की अपनी पहली वेब सीरीज ‘किलर सूप’ में बिल्कुल अलहदा अवतार में दिखने को तैयार मनोज बाजपेयी से ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल की एक खास बातचीत।

बीते साल आपने ‘गुलमोहर’, ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ और ‘जोरम’ में बिल्कुल भिन्न भिन्न किरदार निभाए। इतने विरोधाभासी चरित्र निभाना कितना मुश्किल होता होगा?
मेरा मानना है कि अभिनय या कोई दूसरी कला आसान नहीं है। मैं किरदार का इंतजार नहीं करता हूं कि वह मेरे पास आए मैं किरदार के पास जाना पसंद करता हूं। मेरा तरीका थोड़ा अलग है। मेरा ये प्रयास रहता है कि मैं जब अपने आप को देखूं तो मैं वह किरदार ही लगूं। मुझे मजा आता है इसमें। मुझे मजा आता है जब मनोज बाजपेयी गायब हो जाए।
यह पूरा वीडियो इंटरव्यू आप यहां देख सकते हैं…

और, कई बार ऐसा करते करते आप वाकई खो भी जाते हैं, फिर आपको नींद की गोलियां खानी पड़ती हैं..
क्या करें, ये तो एक अभिनेता होने का श्राप है। ‘गली गुलियां’ के बारे में तो अब सबको पता ही है लेकिन उससे पहले मुझे किसी किरदार को करने के बाद अगर मानसिक समस्या हुई थी तो वह हुई थी फिल्म ‘शूल’ के बाद। मुझे नींद नहीं आती थी। जैसे ही सोने जाता था, मुझे अजीब अजीब से ख्याल आते थे। बहुत ही हिंसक विचार आने शुरू हो जाते थे। मेरी तबियत खराब रहने लगी थी। अब सोचता हूं तो लगता है कि ऐसा भी क्या था, कि मैंने क्यूं ऐसा किया..

और, अभिनय से पहले रिहर्सल को कितना जरूरी मानते हैं आप?
बहुत जरूरी है। खासतौर से अगर आपकी मातृभाषा वह नहीं है जिसमें आप अभिनय कर रहे हैं। इसका सबसे अच्छा तरीका है कि आप उस किरदार को अपने सिस्टम का हिस्सा बना लो। आप उसकी शख्सीयत को ओढ़ लो। मैं बहुत सारे ऐसे कलाकारों के साथ काम करता हूं जिनकी मुख्यभाषा हिंदी नहीं है। उनको मैं कोंकणा सेन शर्मा का उदाहरण देता हूं, संवादों की रिहर्सल में समय लगाने का, मेहनत करने का।

बात चूंकि नेटफ्लिक्स की सीरीज ‘किलर सूप’ के सिलसिले में हो रही है तो खाने के मामले में आप कितने शौकीन है, आपकी फिटनेस देखकर तो लगता नहीं कि आपको ऐसा कोई शौक होगा?
अरे, मैं बहुत शौकीन हूं खाने का। मुझे खाना खाने का शौक हमेशा से रहा है। बिहारी आदमी हूं। बिहारियों को अमूमन खाना बहुत अच्छा लगता है। सुबह का नाश्ता कर रहे होते हैं तो दोपहर के भोजन में क्या बनेगा, इस पर चर्चा हो रही होती है..! लेकिन, बनाने का शौक मुझे बहुत नया हुआ है। अभी पांच साल पहले से मैंने खाना बनाना शुरू किया है। मैंने अपने पिता की मटन बनाने की रेसिपी बनाई है। यखनी पुलाव बनाया। भुना गोश्त बनाया और शाकाहारी लोगों के लिए मैंने आलू परवल और आलू गोभी भी बनाई। मछली भी बनाता हूं, सरसों वाली। बिहार और बंगाल की खाने और भाषा की संस्कृति भी बहुत करीब की है।

लंबे संघर्ष के बाद मुंबई के किसी पंचसितारा होटल में जब जाने का मौका मिला होगा तो उस दिन का अनुभव याद है?
पहले के दिनों में फाइव स्टोर होटलों में एक खास कदकाठी के गेटकीपर होते थे। लंबी लंबी मूंछे, रौबदार चेहरा और…, हम तो थियेटर कर रहे होते थे। स्ट्रगलर कहलाते थे। जेब में पैसे होते नहीं थे। मुझे हमेशा उस मूंछ वाले से डर लगता था कि इसको पता चल जाएगा, इसके पास पैसे नहीं हैं और ये मुझे नहीं जाने देगा अंदर। जब भी कोई ऑडिशन किसी होटल में हो रहा होता था या ऐसे किसी होटल के किसी कमरे में हो रहा होता था, तो मैं बहुत डर जाता था कि पता नहीं अंदर तक पहुंच पाऊंगा भी कि नहीं।

नए निर्देशकों के साथ आप खुद को कितना सहज महसूस करते हैं और आपके घर के दरवाजे क्या ऐसे सभी निर्देशकों के लिए खुले हैं जो आपके साथ पहली फिल्म बनाना चाहते हैं..
बिल्कुल खुले रहते हैं। ‘गुलमोहर’ के निर्देशक राहुल चिटेला को मैं तब से जानता हूं जब वह मीरा (नायर) के साथ थे। मैंने खुद उनको कहा था कि अपनी पहली फिल्म तुम मेरे साथ ही करना। वैसे ही अपूर्व सिंह कार्की की एक सीरीज मैंने यूट्यूब पर देखी थी। मुझे तभी उनकी काबिलियत समझ आ गई। इसके बाद जैसे ही मेरे पास ‘सिर्फ एक बंदा है’ की कहानी आई और उन्होंने कहा कि निर्देशक मेरी पसंद का हो सकता है तो मैंने तुरंत अपूर्व को फोन लगाया और पूछा कि भाई, फिल्म करोगे मेरे साथ? नए निर्देशकों के साथ सबसे अच्छी खासियत ये होती है कि वे ये भूल जाते हैं कि मैं तीन दशकों से काम कर रहा हूं, वह मुझसे अभिनय में वैसी ही प्रतिक्रिया चाहते हैं, जैसी उनके मन में आ रही होती है।