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हार के डर से दो खांटी दुश्मन हो गए एक

राज्यसभा के लिए भी सीट पक्की करना चाहती हैं मायावती

राजेश श्रीवास्तव

कहते हैं कि राजनीति में कोई दुश्मन और कोई दोस्त नहीं होता है। इसी बात पर अमल करते हुए सपा-बसपा ने एक बार फिर एक-दूसरे की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है।

9० के दशक में जब कांशीराम और मुलायम ने यह मोर्चा मिलकर साथ बनाया था तब लोगों को लगता था कि इस जोड़ी को हराना मुश्किल होगा। सोशल इंजीनियरिंग का वह ऐसा ताना-बाना था जिसे तोड़ना बेहद कठिन था।

लेकिन समय के चक्र ने इसे ऐसा तोड़ा कि दोनों एक-दूसरे से कोसो दूर हो गये। समय ने न केवल एक-दूसरे से दूर कर दिया बल्कि एक-दृसरे का विरोधी भी बना दिया। स्टेट गेस्ट हाऊस कांड राजनीति में ऐसा ग्रहण बन कर आया जिसने मुलायम और कांशीराम के एका को ही नहीं बल्कि सोशल इंजीनियरिंग के उस खांचे को ही तोड़ दिया जिसमें दलित और पिछड़ों का समीकरण टूट गया।

तभी से 27 फीसद और 15 फीसद के वोटों के गणित को अलग-अलग लेकर दोनों एक-दूसरे के विरोध में खड़े होकर एक-दूसरे के सामने की दीवार बड़ी करने लग गऐ। पिछले लोकसभा चुनाव में भी दोनों ने एक-दूसरे के विरोध खूब तंज कसे। बुआ और बबुआ के रिश्तों में मीडिया भी इस कदर उलझ गया कि दोेनों का ही नुकसान हुआ और इसका फायदा उठाया केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने।

यही कारण रहा कि भाजपा 325 सीटों के ऐतिहासिक मुकाम पर पहुंच गयी और सपा -बसपा व कांग्रेस को विपक्ष कहलाने लायक सीटें भी नहीं नसीब हुईं। इसे वक्त का तकाजा ही कहेंगे कि अब जब गोरखपुर और फूलपुर में उपचुनाव होने हैं तोे दोनों दलोें ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए एक-दूसरे के प्रति नरमी दिखायी है।

यह बात जरूर है कि अगर इस बात का ऐलान खुद बसपा सुप्रीमो मायावती करतीं तो बात कुछ और होती लेकिन मायावती ने इसका ऐलान जिला स्तरीय नेताओं से कराकर दूर की कौड़ी ख्ोली है। वह इसके पृष्ठभूमि का खाका जरूर तैयार कर रही हैं लेकिन खुद इसके ऐलान में न शामिल होकर एक ऐसी गणित व सूझबूझ के साथ आगे बढ़ रही हैं कि अगर यह समीकरण भविष्य में काम न आ सके तो इससे किनारा करने में उन्हें जरा भी हिचक न हो।

गोरखपुर और फूलपुर दोंनो ऐसी लोकसभा सीटें हैं जिन सीटों पर हार-जीत के मायने कुछ अलग ही होंगे। शायद यही कारण है कि विपक्ष खूब सूझ-बूझ से काम ले रहा है। गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट है तो फूलपुर डिप्टी सीएम व पूूर्व प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य की ।

इसीलिए सपा ने निषाद पार्टी के साथ भी समझौता करने में जरा भी संकोच नहीं किया। अगर कांग्रेस पार्टी भी उम्मीदवारों का ऐलान न करती और पूरा विपक्ष मिलकर चुनाव लड़ता और भाजपा के विरोध में खड़े होते तो शायद कुछ मुकाबला करने की स्थिति में होते। बात यह नहीं कि सब मिलकर एक हुए हैं। मायने यह भी हैं कि दोनों सीटों पर भाजपा ने पूरी ताकत लगा रखी है।

इन दो सीटों पर प्रचार के लिए भाजपा के पास अमित शाह जैसा चाणक्य तो नरेंद्र मोदी जैसा पीएम वाला ओजपूर्ण भाषण देने वाला वक्ता भी है। खुद मुख्यमंत्री और दो-दो डिप्टी सीएम और 325 विधायक व जम्बोजेट मंत्रिमंडल हैं।

इन सबका मुकाबला अकेले अखिलेश यादव व कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को करना है। इन नेताओं के मुकाबिल होने से ही इस लड़ाई का परिणाम अभी से साफ दिख रहा है। इसलिए बसपा इसे फूक-फूक कर कदम उठा रही है। इसके इस मौके पर सफल होने में कुछ अंदेशा भी दिख रहा है।

अगर यह फेल हुआ तो सपा-बसपा के मिलजुल कर चलने में बहुत लंबी रेस चल पाना बेहद मुश्किल होगा। इसीलिए सपा-बसपा को बहुत सोेच-समझकर चलना होगा। ऐसे में सपा-बसपा के लिए जहां यह दोनों सीटें जीवन-मरण का प्रश्न है तो भाजपा के लिए अपनी सीट वापस पाने की चुनौती।

हालांकि भाजपा इसे कोई चुनौती नहीं मान रही है। मुख्यमंत्री ने रविवार को भाजपा मुख्यालय में आयोजित प्रेसवार्ता में कहा भी कि हम बहुमत से चुनाव जीतेंगे। यही नहीं, उन्होंने सपा-बसपा के मिलन पर तंज भी कसा कि केर-बेर का संग कैसे निभ्ोगा। हालांकि उन्होंने यह साफ नहीं किया कि कौन केर है और कौन बेर। शायद इसका जवाब समय देगा।