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शिवपाल सिंह यादव को तरजीह क्यों

shivpal-akhileshलखनऊ। समाजवादी पार्टी में खींचतान के पूरे घटनाक्रम में यह साफ दिखा कि मुलायम सिंह यादव ने पुत्र अखिलेश के मुकाबले भाई शिवपाल सिंह यादव को ज्यादा महत्व दिया। सार्वजनिक तौर पर यह कहने से गुरेज भी नहीं किया कि जब अखिलेश स्कूल जाते थे और उन्हें राजनीति से कोई सरोकार नहीं था, उस समय से शिवपाल पार्टी खड़ी करने में पसीना बहा रहे थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली हार का ठीकरा भी उन्होंने अखिलेश के सिर पर फोड़ा।

अखिलेश के करीबी युवा नेताओं को पार्टी से बाहर दिखाने के शिवपाल यादव के प्रस्ताव पर भी मुलायम सिंह यादव ने न नहीं किया।
ऐसे में एक ऐसा सवाल उठ रहा है, जिसका जवाब सभी चाह रहे हैं कि अखिलेश के मुकाबले शिवपाल को तरजीह देने की वजह क्या है? यादव परिवार के करीबी लोगों का कहना है कि 2012 में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद परिवार में जो कटुता आई थी, खास तौर से शिवपाल यादव ने इसे अपने लिए नाइंसाफी के रूप में लिया था, उसे ‘नेता जी’ अब अखिलेश को डांट-डपट कर खत्म करा देना चाहते हैं।
‘नेता जी’ को लगता है कि अखिलेश यादव के इर्द-गिर्द जमा युवा मंडली, जिसे वह अब चापलूसों की मंडली कहने लगे हैं, चुनाव नहीं जिता सकती। चुनाव जिताने के लिए जिस तरह का ‘होम वर्क’ करना होता है, वह करने की कूव्वत अखिलेश में नहीं, बल्कि शिवपाल यादव में ही है।
शिवपाल यादव ‘होम वर्क’ क्यों करेंगे, जब उन्हें यह अहसास होता रहेगा कि उन्हें कोई तरजीह तो नहीं मिल रही है।

‘नेता जी’ शिवपाल यादव को उनकी अहमियत का अहसास दिलाना चाहते हैं। ‘नेता जी’ की पहली प्राथमिकता यह है कि समाजवादी पार्टी की सरकार दोबारा सत्ता में लौटे, मुख्यमंत्री कौन होगा, यह बाद की बात है। लोकसभा चुनाव में सिर्फ पांच सांसद जिता पाने वाली समाजवादी पार्टी अगर यूपी की भी सत्ता गंवा बैठती है तो इससे उन्हें अपने राजनीतिक दबदबे में कमी आने की संभावना दिख रही है।

एक बात और भी, (जैसा उनके करीबी लोग दावा कर रहे हैं) ‘नेता जी’ का कहना है कि अखिलेश यादव को यह बात समझने की कोशिश करनी चाहिए कि अगर समाजवादी पार्टी दोबारा सत्ता में आती है तो उसका श्रेय उनको ही मिलेगा। यानी कि मुलायम सिंह यादव की इस पूरे कवायद में कहीं न कहीं अखिलेश यादव की छवि बचाने की फिक्र भी छिपी हुई है।

परिवार के अंदर जो घमासान मचा है, उससे परिवार और पार्टी दोनों की प्रतिष्ठा पर आंच आई है। सवाल उठ रहा है कि इससे होने वाले नुकसान का अहसास क्या मुलायम सिंह यादव जैसे अनुभवी नेता को नहीं है? यादव परिवार के नजदीकी लोगों का कहना है कि ‘नेता जी’ को नुकसान का अहसास बहुत अच्छी तरह से है, लेकिन इसे इस उदाहरण से समझना चाहिए कि अगर कोई मर्ज इस हद तक बढ़ गया है कि ऑपरेशन जरूरी है, लेकिन जान की जोखिम को देखते हुए अगर ऑपरेशन टाला जाता है तो यह अकलमंदी नहीं है।

जान का जोखिम तो ऑपरेशन न करने से भी बढ़ता रहेगा। ऑपरेशन में तो एक संभावना यह रहती है कि अगर वह कामयाब हो गया तो मरीज को नया जीवन मिल जाता है। ‘नेता जी’ ने एक अनुभवी डाक्टर के रूप में ‘मर्ज’ के ‘आपरेशन’ का फैसला लिया है।

अखिलेश यादव के नजदीकी युवा नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाए जाने और अमर सिंह को जिस तरह की इज्जत बख्शते हुए पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव के पद पर नवाजा गया, उसके बाद से यह सवाल उठ रहा है कि क्या अखिलेश यादव ने हथियार डाल दिए हैं या उन्हें आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया गया है? यादव परिवार के नजदीकी लोगों का कहना है बतौर पिता मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश यादव को समझाया है कि एक पिता के रूप में वह अपने बेटे का अहित किसी भी सूरत में नहीं चाह सकते, इसलिए वह जो कुछ भी कर रहे हैं, उनके हित और भविष्य को ध्यान में रखकर कर रहे हैं।

अखिलेश की चुप्पी का सबब भी अपने पिता की तरफ से दिलाया गया यह भरोसा ही है, लेकिन इतना तय है कि टिकट बंटवारे के समय फिर घमासान होगा। चाचा और भतीजे में ज्यादा से ज्यादा अपने लोगों को टिकट दिलाने की होड़ होगी क्योंकि जिसके जितने ज्यादा लोगों को टिकट मिलेंगे, उसी अनुपात में उनके अपने विधायक बन कर आएंगे और अगर पार्टी के लिए दोबारा सरकार बनाने की नौबत आती है तो इस बार ये विधायक ही मुख्यमंत्री चुनने में अहम भूमिका निभाएंगे। यानी जिसके विधायक ज्यादा होगे, मुख्यमंत्री बनने का दावा उसका उतना ही मजबूत होगा।

टिकट बंटवारे के वक्त अपने कम लोगों को टिकट दिए जाने के बावजूद अगर अखिलेश यादव इसी तरह की चुप्पी (जैसी पिता की सलाह पर अपनी टीम के सात लोगों को निकाले जाने और अमर सिंह को राष्ट्रीय महासचिव बनाए जाने पर साधी थी) साध ली तो यह चुप्पी उनके राजनीतिक जीवन के लिए सबसे बड़ा खतरा होगी। यह माना जा रहा है कि वह यह खतरा कतई नहीं उठाना चाहेंगे।

उधर शिवपाल यादव भी अपने साथ ‘हकतलफी’ (हक छीन कर दूसरे को देना) बर्दाश्त नहीं करेंगे। उनके लोगों को अगर अखिलेश के मुकाबले कम टिकट मिले या उनके दावे स्वीकार न हुए तो फिर वह तलवार लेकर मैदान में होंगे। यह वह घड़ी होगी, जब मुलायम को तय करना होगा कि वह अपने बेटे के साथ खड़े हों या फिर भाई के साथ। शायद यही वह परिदृश्य है, जिसको अभी से देख रहे उनके परिवार के नजदीकी लोग कह रहे हैं कि निर्णायक घड़ी वही होगी, उसी वक्त यह होगा कि पार्टी एक रहेगी या विभाजित होगी।