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मोदी के ‘राम’ के आगे संघ खाली हाथ………….

नई दिल्ली। जैसे ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने रामनाथ कोविंद को एनडीए का राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया, विपक्ष से ज्यादा उनकी ही पार्टी और खासकर संघ के लोग चौंक उठे। पता किया जाना लगा कि क्या कोविंद का कभी संघ से जमीनी स्तर पर जुड़ाव रहा है। आखिर में पता चला कि कोविद संघ और भाजपा से वैचारिक स्तर पर तो जुड़े हैं, मगर कभी खाकी नेकर और सफेद शर्ट पहनकर संघ की शाखाओं में नहीं गए।

जिस कानपुर जिले से वे आते हैं, वहां के संघ के पुराने जिला कार्यवाह रहे पदाधिकारियों को भी नहीं पता कि कभी कोविद ने किसी शाखा में हिस्सा लिया हो। चूंकि संघ ने इस बार दलित के साथ स्वयंसेवक होने की शर्त लगा रखी थी। ऐसे में सिर्फ एक मानक पूरा करने वाले शख्स का ही नाम प्रस्तावित किए जाने पर संघ के लोग ज्यादा चौंक रहे।

खुद पार्टी में ही कहा जा रहा है कि  मोदी और शाह ने 2019 की सोशल इंजीनियरिंग के तहत राष्ट्रपति के लिए दलित चेहरा तो खोज लिया, मगर संघ की मुराद पूरी होती नहीं दिख रही। सवाल उठता है कि क्या स्थापना के सौ साल पूरा करने की ओर बढ़ रहे संघ की अब भी वो हसरत पूरी होते-होते रह जा रही, जो कि संघ ने  राष्ट्रपति जैसे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर अपने खांटी स्वयंसेवक को बैठाने का सपना अतीत में देखा।

दरअसल बाजपेयी हों या मोदी। अब तक दो प्रचारक प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो चुके हैं। भैरो सिंह शेखावत जैसे प्रचारक उपराष्ट्रपति पद पर पहुंच चुके हैं। मगर देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद ही अब तक अछूता रहा किसी स्वयंसेवक के लिए।

दरअसल इस वक्त मोदी और शाह की जोड़ी हिट है। हर चुनाव जीते जा रहे हैं। ऐसे में मोदी और शाह के हर फैसले पर अंगुली उठाने से संघ बचने की कोशिश कर रहा। क्योंकि संघ को भी लगता है कि उसका एजेंडा तभी पूरा हो सकता है, जब कि भाजपा की सरकार 2019 में भी सत्ता हासिल करे। मोदी का चेहरा और शाह की रणनीति चूंकि हर चुनाव में खूब गुल खिला रही है। इस नाते उनकी पसंद को नजरअंदाज करने से अगर कोई नुकसान होता है तो यह भाजपा और संघ दोनों की सेहत के लिए हानिकारक होगा।

दूसरी बात कि अमित शाह ने मोदी के साथ बैठकर दलित वोटबैंक के मद्देनजर रामनाथ कोविंद का नाम फाइनल किया। कोविंद के नाम से भाजपा को आगामी चुनावी लाभ के बारे मेंपार्टी और संघ के बीच सेतु का काम करने वाले कृष्णगोपाल को पहले ही अमित शाह ने अवगत करा दिया था। यही वजह था कि संघ ने दिल पर पत्थर रखकर मोदी-शाह की पसंद को मंजूरी दे दी।

कोशिश संघ प्रमुख मोहन भागवत का मानना है कि देश की हर संवैधानिक संस्था पर स्वयंसेवक की मौजूदगी जरूरी है। प्रधानमंत्री पद पर बाजपेयी और मोदी के रूप में दो स्वयंसेवक पहुंच चुके हैं। उपराष्ट्रपति पद पर भैरो सिंह शेखावत पहुंचे तो लोकसभा स्पीकर पद भी स्वयंसेवक की आदम दर्ज हो चुकी है। अब देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति बचा है। चूंकि मौजूदा भाजपानीत केंद्र सरकार के पास बहुमत है, इस नाते संघ अब यह हसरत पूरी होते देखना चाहता है।

हेडगेवार भवन नागपुर में जब पिछले पखवाड़े अमित शाह ने संघ प्रमुख से मुलाकात की थी तो भागवत ने एक ही बात कही थी कि इस बार खांटी स्वयंसेवक और वो भी दलित या जनजातीय व्यक्ति को ही राष्ट्रपति बनना चाहिए। ताकि संघ का दलित अजेंडा और असरदार दिखे। संघ का मानना है कि  प्रधानमंत्री से लेकर उपराष्ट्रपति की कुर्सी पर प्रचारक बैठ चुके हैं। अब केवल देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद ही अछूता रहा है।

लिहाजा जब भाजपा की बहुमत से सरकार है तो फिर इस सपने को क्यों न साकार कर लिया जाए। अब जाकर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने रामनाथ कोविद को एनडीए का राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया है। सवाल यह है कि शाह के इस फैसले से संघ कितना खुश है।

संघ की विचारधारा का समर्थन करना या इस खांचे में फिट बैठना अलग बात है और खांटी संघी होना अलग बात है। वही खांटी संघी माना जाता है, जो संघ के प्रशिक्षण शिविर(ओटीसी) में सहभागिता किया हो। इंडिया संवाद ने संघ के कई नेताओं से बात कर रामनाथ कोविद के संघ से जुड़ाव के बारे में पता लगाने की कोशिश की, मगर सभी ने अनभिज्ञता जाहिर की। संघ व उससे जुड़े अनुषांगिक संगठनों के कई पदाधिकारियों ने बताया कि कोविद भाजपा से जुड़े रहे हैं, यह जरूर जानते हैं, मगर कभी प्रचारक जैसा काम किए, इसकी कोई जानकारी नहीं है

बता दें कि रामनाथ कोविंद मूलतः कानपुर के रहने वाले हैं। 1 अक्टूबर 1945 को जन्मे कोविद बीजेपी दलित मोर्चा के अध्यक्ष रह चुके हैं। पेशे से वकील कोविद दो बार यूपी से राज्यसभा सदस्य भी रहे। जिस कोली समाज से वे आते हैं, उसके संगठन ऑल इंडिया कोली समाज के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।  1994 में यूपी से पहली बार राज्यसभा सांसद चुने गए। 2006 तक सांसद रहे।  कई संसदीय कमेटियों के चेयरमैन भी रह चुके हैं।