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मोदी की इस योजना से सरकारी खजाना लबालब, अब नोटबंदी रचेगी इतिहास?

narendra-modi_geपुष्‍पेंद्र- कुमार

केंद्र सरकार द्वारा 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों को रद्द कर उनकी जगह नए नोटों के प्रचलन की घोषणा से अधिकांश लोग अचंभे में है। प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में सरकार की इस रणनीति के पीछे आतंकवाद को की जाने वाली फंडिंग, जाली करेंसी नोटों का भारत में बढ़ता कारोबार और कालाधन को निकाल बाहर करने के बड़े लक्ष्यों को बताया। जाहिर है इन मसलों पर देश चिंतित है, जनता के सरोकार हैं और वह चाहती रही है कि इस दिशा में कोई ठोस पहल सरकार की ओर से हो, लेकिन देश अचंभित हुआ तो इसके पीछे कारण तो है।

दरअसल, कालाधन निकाल बाहर करने के लिए अभी सितंबर को समाप्त हुई स्वैच्छिक आय घोषणा योजना में रिकॉर्ड 65 हजार करोड़ रुपये की अघोषित संपत्तियों की घोषणा की गई और इस प्रकार यह योजना अब तक की सबसे सफल योजना बन गई, जिसमें सरकार के अपने अनुमान से लगभग दो गुणा लक्ष्य हासिल किया जा सका।

हालांकि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कई अवसरों पर यह दोहराते रहे थे कि अघोषित आय की घोषणा के लिए उक्त योजना एक आखिरी मौका है, जिसके बाद ऐसे अघोषित संपत्तियों पर कठोर कार्रवाई की जाएगी, लेकिन इस प्रकार की लगभग एक दर्जन पुरानी योजनाओं के ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर यह मान लिया गया था कि योजना की सफलता कालाधन के खिलाफ मोदी सरकार की कार्रवाई को चुनावी लोकतंत्र में जनता को बताने-जताने के लिए पर्याप्त है, और सरकार अब आगे कोई नई कार्रवाई नहीं करेगी। जबकि हुआ इसके उलट और मोदी सरकार ने अपनी रणनीति के निर्धारित प्रारूप पर कालेधन के खिलाफ कार्रवाई को नई दिशा देने में कामयाब रही है।

यकीनन 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों को अमान्य करने और 1000 रुपये की जगह 2000 रुपये मूल्य के नए नोटों को लाए जाने से आम जनता को थोड़ी असुविधा तो निश्चित तौर पर हुई है, लेकिन इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि सरकार द्वारा कालाधन को निकाल बाहर करने के उपलब्ध विकल्पों में से यह एक महत्वपूर्ण विकल्प है और किसी भी दूसरे विकल्प में इसी प्रकार के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव होंगे। कुछ लोगों ने यहां तक कहा कि ऐसा करके मोदी सरकार ने छोटे कारोबारियों, आम जनता को नाखुश कर दिया है, लेकिन सवाल यह है कि क्या कालाधन के खिलाफ कार्रवाई का कोई ऐसा फॉर्मूला हो सकता है, जिसमें आम जनता को भागीदारी न करनी पड़े?

दरअसल, हमें बतौर नागरिक यह स्वीकारना होगा कि भारत में कालाधन और भ्रष्टाचार को हम नागरिकों के संज्ञानता में ही यह आकार-सत्कार हासिल हुआ है जिससे निपटने के लिए हमारे पास चुनाव रूपी लोकतांत्रिक विकल्प मौजूद रहे हैं, और जनता इस बुराई पर सकारात्मक जनादेश के जरिए बदलावों और सुधारों के लिए लोकतांत्रिक पहल कर सकती है।

लोकतंत्र में सरकार और नौकरशाही के दोषों के लिए जनता की गैरजिम्मेदारी को खारिज नहीं किया जा सकता है, भले उसकी सीमाएं हों। लेकिन कालाधन पर सरकार की मौजूदा पहल पर बीते दो दिनों में मेरा निजी अनुभव यही रहा है कि आम लेन-देन को लेकर भले ही थोड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हो, लेकिन आम आदमी यह समझ रहा है कि इस पहल से असर पड़ने वाला है। यह लोकतंत्र और जनमत में आ रहे गुणात्मक बदलावों का प्रमाण है और इस रूप में हम एक परिपक्व हो रहे लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं।

बहरहाल, यदि इस फैसले को राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल का आधा समय बीतने वाला है, और अगले साल से होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन लोकसभा चुनाव 2019 के लिए आधार बन सकता है। जाहिर है कि कालाधन को लेकर अपनी सरकार की सख्ती को साबित करने और बताने के लिए मोदी सरकार के पास इससे बेहतर समय नहीं हो सकता है। यदि चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल की सुनी-साबित कहानियों को लेकर हमारी चिंताएं जायज हैं, तो करेंसी नोटों में 86 प्रतिशत हिस्सा 500-1000 रुपये के नोटों का होने का असर चुनावों के प्रबंधन पर पड़ना लाजिमी है।

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इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि नोट-वापसी की इस नीति के कई आर्थिक प्रभाव और दूरगामी परिणाम होंगे। कैश बदले जाने की प्रक्रिया के तहत ढाई लाख रुपये नकद से अधिक को अपने खाते में जमा कराए जाने पर यदि आयकर घोषणा में विसंगति पाई जाएगी तो उन पर 30 प्रतिशत टैक्स के साथ 200 प्रतिशत की पेनाल्टी, यानी लगभग 90 प्रतिशत कर आरोपित किए जाने की घोषणा सरकार ने की है। यानी कालाधन के खिलाफ सरकार की घेराबंदी लगभग पुख्ता दीखती है और एक दिन में महज 4500 रुपये बदले जाने की मौजूदा सीमा से इतना तय हो चुका है कि अकूत नकदी रखने वालों के पास मौजूद कालेधन या अघोषित धन का बहुत खासा हिस्सा अप्रयोजनीय रह जाएगा।

क्रिसिल ने साल 2007 में ही देश की अर्थव्यवस्था में लगभग 23 प्रतिशत काले या अघोषित धन की मौजूदगी बताई थी। यदि इस प्रतिशत को ही स्वीकार कर लिया जाए तो भारत में मौजूदा समय 480 बिलियन डॉलर का अघोषित धन या परिसंपत्ति होने का अनुमान है। सरकार के नोटबंदी के इस कदम से अघोषित नकदी और कालाधन में से लगभग 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक राशि सरकारी बैंकों में आ जाने का अनुमान कई अर्थशास्त्रियों ने लगाया भी है।

हालांकि सरकार के नोट वापसी के कदम की आलोचना इस रूप में हो रही है कि यदि बड़े नोटों का कालेधन में अधिक हिस्सा है, तो फिर 1000 रुपये की जगह 2000 रुपये के नए नोटों से कालाधन किस प्रकार रुकेगा?। लेकिन यह अगले चरण का सवाल है जबकि नोटवापसी का कदम पूर्व में जमा हुए कालाधन की निकासी और आतंकवाद व जाली नोटों के प्रवाह पर नियंत्रण के लिए है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2000 रुपये के नए नोटों की उपलब्धता अब बाजार से नहीं, बल्कि बैंकों के जरिए, सत्यापन और प्रमाणन के दस्तावेजीकरण के बाद होगी। यानी ऐसे नए नोट कितनी मात्रा में किन तक पहुंच रहे हैं, यह सरकार और बैंकों की जानकारी में होगा। भविष्य में कालाधन किस प्रकार रुकेगा यह कई अन्य रणनीतियों पर निर्भर करता है, जिसमें इंटरनेट बैंकिंग की सुविधा के विस्तार, खुदरा खरीददारी के लिए प्रत्येक दुकानों तक पीओएस की पहुंच और डेबिट-क्रेडिट कार्ड समेत ऑनलाइन अंतरण में आर्थिक लाभ व प्रोत्साहन देने के उपायों पर सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास शामिल होंगे।

ये होंगे अर्थव्‍यवस्‍था पर प्रभाव :  खास बात यह है कि इस फैसले से अर्थव्‍यवस्‍था पर नये प्रभाव होंगे और इसका असर दिखना भी शुरू हो गया है। दरअसल, भारत में काला धन जिन दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेशित किया जाता है वे रियल स्टेट और सोने का कारोबार है। सोने और रियल स्टेट पर इस का प्रभाव अलग-अलग और एकदम विपरीत है, जिसमें सोने की कीमतों में अब तेजी देखी जाएगी जबकि रियल स्टेट सेक्टर अपनी मंदी से किस प्रकार उबरेगा, यह चिंता और अधिक लंबी व गहरी होने वाली है। रिजर्व बैंक जमीन की कीमतों के मूल्यांकन को लेकर नए मानदंड और मानक तैयार कर सकता है।

वहीं इधर सरकार के नोट-वापसी अभियान के बाद अगले एक साल में, कम से कम, असंगठित और छोटे रियल स्टेट कारोबारियों को अपनी परियोजनाओं में मकानों, प्लाट और दुकानों की कीमतों को सस्ता करने का अतिरिक्त दबाव पड़ेगा क्योंकि बाजार में संभावित खरीददारों के पास अतिरिक्त नकदी अब सिकुड़ जाएगी। बेनामी हस्तांतरण कानून के 1 नवंबर से लागू हो जाने के बाद रियल स्टेट सेक्टर की चुनौतियां और बढ़ सकती है, जो पहले ही बीस हजार रुपये से अधिक मूल्य के लेन-देन में पैन नंबर अनिवार्य होने, परियोजनाओं की समयबद्धता को लेकर मानक का पालन करने, अदालत में जा पहुंच रहे मामलों पर हो रहे निर्णयों से दबाव में है।

कई सेक्टरों में मांग में फौरी तौर पर कमी आएगी और हालात सामान्य होने में दो से तीन महीने लग सकते हैं। यानी इस दौरान बाजार में मांग कमजोर रहने की उम्मीद की जा सकती है और उद्योगों की उम्मीदें बैंकिंग प्रणाली से बाजार में मौजूद 86 प्रतिशत नकदी के तेजी से बदले जाने की प्रक्रिया पर टिकी है। नकदी नोटों के रद्दीकरण को लेकर क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने भी कहा है कि छोटी अवधि में बाजार में नकदी के चलन में कमी होगी। जाहिर है इससे मुद्रास्फीति पर असर पड़ेगा और वस्तुओं की कीमत कम होने की उम्मीद की जा सकती है।

मोदी सरकार का यह कदम अभूतपूर्व है, ऐसा इसलिए नहीं कि इसमें रुपये के बदले जाने की मात्रा और संख्या अप्रत्याशित है, बल्कि इसलिए कि यह आतंकवाद की फंडिंग, जाली-नोट और कालाधन, तीनों पर एक साथ हमला है। साल 1978 में मोरार जी देसाई सरकार ने जब 500, 1000 और 10000 रुपये के करेंसी नोटों को समाप्त या अमान्य करने का फैसला किया था, तब इन करेंसी की कुल करेंसी में हिस्सेदारी महज 10 प्रतिशत ही थी।

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आज 500 और 1000 रुपये के नोट की हिस्सेदारी 86 प्रतिशत है, लेकिन नफा-नुकसान के हिसाब से देखें तो नए नोटों के छपाई में यदि 15000 करोड़ रुपये खर्च होने के अनुमान को सही मान लिया जाए और सरकार के पास बाजार में मौजूद अनुमानित न्यूनतम 2 लाख करोड़ रुपये तक भी वापस बैंकिंग सिस्टम में आ जाएं, सरकार को लोगों के पास नकदी की वास्तविक जानकारी हो जाए (जिसका असर अगले वित्तवर्ष के आयकर उद्घोषणा पर हो) तो यह भारी बदलाव होगा। 125 करोड़ से अधिक आबादी के देश में महज तीन करोड़ से भी कम लोग आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, और उनमें से महज सवा करोड़ लोग ही आयकर देते हैं।

विपक्ष द्वारा मोदी सरकार के नोटवापसी को राजनीति और लोकप्रियतावादी बताना उनकी सियासी मजबूरी हो सकती है, लेकिन कांग्रेस और वामपंथी दलों के नेताओं-प्रवक्ताओं की प्रतिक्रियाओं से लगता है कि वे न सिर्फ आम जनता की परिपक्वता और चुनौती को झेलने की समझ से अनजान हैं, बल्कि राजनीतिक विरोध के लिए जनसामान्य की सीमित लाचारियों को जरूरत से ज्यादा बड़ा कर सरकार को घेरने का बेतुका प्रयास कर रहे हैं।

यकीनन, विरोध की तुलना में बेहतर तो यह होता कि वे बताते कि इस प्रकार की आर्थिक चुनौतियों के लिए उनके समाधान क्या हैं, क्योंकि कालाधन जनचिंता का मुद्दा है। भले ही यह बताना संभव न हो कि नोटवापसी ने उत्तरप्रदेश चुनाव की लागत कितनी कम कर दी है, लेकिन हलचल-कोलाहल तो है।

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