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मई में बनेगी नई पार्टी, मुलायम जेपी बनेंगे

संतोष भारतीय(प्रधान संपादक, चौथी दुनिया)

विपक्षी एकता को ग्रहण लगा हुआ है। एकता हो पाएगी, नहीं हो पाएगी, कौन करेगा, नहीं करेगा, किसके साथ करेंगे, किसके साथ नहीं करेंगे और इसके केंद्र में कौन होगा, ये सारे सवाल हैं। यह ग्रहण उत्तर प्रदेश की वजह से लगा है, उत्तर प्रदेश के नेताओं की वजह से लगा है, जिन्होंने सारे देश के विपक्षी नेताओं को भ्रम में डाल रखा है।

विपक्षी एकता के गुनहगार

बिहार विधानसभा चुनावों से छह महीने पहले की बात है। मुलायम सिंह यादव के घर में नीतीश कुमार, लालू यादव, अभय चौटाला, एचडी देवेगौड़ा और कमल मोरारका की बैठक हुई। इस बैठक में यह फैसला हुआ कि सभी दल मिलकर एक नई पार्टी बनाएं और उस पार्टी का अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को बनाया जाए। झंडा समाजवादी पार्टी का हो, पार्लियामेंट्री बोर्ड के अध्यक्ष भी मुलायम सिंह यादव हों और पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल ही हो। दरअसल, विपक्ष की एकता के लिए इससे बड़ा कोई क़दम नहीं उठाया जा सकता था और इस क़दम को उठाने में सभी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। बैठक के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में सभी लोगों ने मुलायम सिंह यादव को माला पहनाकर घोषणा कर दी और इसके लिए क़दम उठाने का अधिकार भी मुलायम सिंह यादव को दे दिया। उसके बाद बिहार चुनाव का दौर शुरू हुआ। नीतीश कुमार ने और लालू यादव ने प्रस्ताव रखा कि जल्द से जल्द विपक्षी एकता की बात को सिरे चढ़ाया जाए और एक नया दल बने, जिसके नाम और चुनाव चिन्ह पर बिहार में चुनाव लड़ा जाए। सारी टिकटें नए अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के दस्तखत से बांटी जाएं। लेकिन मुलायम सिंह ने संदेश दिया कि पहले बिहार में चुनाव हो जाए, उसके बाद हम एक दल बनाने की बात करेंगे।

इसकी जड़ में प्रोफेसर रामगोपाल यादव थे, जो शुरू से नहीं चाहते थे कि विपक्षी एकता हो। बाद में अखिलेश यादव ने इस चाहत को अपना समर्थन दिया। उन्होंने सोचा कि ये सारे नेता ऐसे हैं, जिनका उत्तर प्रदेश में कोई दख़ल नहीं है। अगर एक दल बन गया तो ये सब उत्तर प्रदेश में अपना हक़ मांगेंगे, अपने लिए सीटें मांगेंगे, परिणाम यह होगा कि समाजवादी पार्टी चुनाव जीतेगी तो, लेकिन उसमें बहुत सारे नेताओं का हिस्सा होगा। शायद, इसके पीछे प्रोफेसर रामगोपाल यादव की यह सोच थी कि ये नाम बड़े हैं, चाहे वो लालू यादव हों, नीतीश कुमार हों, देवेगौड़ा हों या चौटाला हों, इनके मुक़ाबले उनकी हैसियत पार्टी में कमजोर रहेगी। मुलायम सिंह यादव के इस फैसले ने बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव को परेशान कर दिया। दोनों ने मुलायम सिंह यादव से कहा कि वो इस फैसले पर पुनर्विचार करें। लेकिन मुलायम सिंह यादव ने पुनर्विचार करने से मना कर दिया। मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव इस फैसले के खिलाफ थे कि एक पार्टी बने और मुलायम सिंह यादव उसके अध्यक्ष रहें। शायद इसके पीछे उनके सलाहकार भी थे और प्रोफेसर रामगोपाल यादव भी थे। बाद में जब समाजवादी पार्टी का झगड़ा शुरू हुआ, तब यह बात शिवपाल यादव ने भी कार्यकर्ताओं के सामने रखी और मुलायम सिंह यादव ने भी रखी कि प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने अपने परिवार पर आई हुई एक विपत्ति को आधार बनाकर विपक्षी एकता नहीं होने दी और भारतीय जनता पार्टी इस आशा में इसे समर्थन देती रही कि अगर विपक्षी एकता नहीं हुई तो बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव चुनाव हार जाएंगे और भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीत जाएगी। ऐसा कुछ नहीं हुआ। बिहार का प्रयोग अप्रत्याशित रूप से बहुत सफल रहा और भारतीय जनता पार्टी बहुत नीचे आ गई। इसके बावजूद,  प्रोफेसर रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में इस प्रयोग को दोहराने के खिलाफ थे। उनका मानना था कि वो हर हालत में दो तिहाई सीटें फिर से उत्तर प्रदेश में जीतेंगे। जितने भी लोगों ने राय दी, सलाह दी, वो सलाह अखिलेश यादव को, रामगोपाल यादव को पसंद नहीं आई। उस युद्ध के दौरान ही यह पता चला कि मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव विपक्षी एकता के हामी थे, लेकिन उनके परिवार के दो प्रमुख सदस्य इसके हामी नहीं थे। अचानक अखिलेश यादव और कांग्रेस का समझौता हो गया, लेकिन उसमें से सभी विपक्षी दल बाहर रहे। मायावती से सम्पर्क करने की कोई कोशिश नहीं हुई और नीतीश कुमार को इससे दूर रखा गया। हालांकि, नीतीश कुमार की रणनीति थी कि उत्तर प्रदेश में कुर्मी समाज का वो हिस्सा, जो भारतीय जनता पार्टी के साथ परंपरागत रूप से था, उसे वहां से निकालकर विपक्षी एकता के ढांचे में महत्वपूर्ण स्थान देकर, भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में वही परिणाम दिलवाने की कोशिश की जाए, जैसा बिहार में हुआ।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और मुलायम सिंह यादव ने चुनाव प्रचार नहीं किया। शिवपाल यादव को चुनाव हराने की कोशिश हुई। अफवाह है कि प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने 15 करोड़ रुपए शिवपाल यादव को हराने में ख़र्च किए। दूसरी तरफ, अखिलेश यादव ने इटावा जाकर सार्वजनिक बयान दिया, जिसका मतलब लोगों ने निकाला कि वो शिवपाल यादव को हराने की अपील कर रहे हैं। शिवपाल यादव चुनाव जीते, अखिलेश यादव के 180 से ज़्यादा उम्मीदवार हार गए, सिर्फ़ 47 लोग चुनाव जीते। चुनाव परिणाम आने से पहले ही अखिलेश यादव ने बयान दिया कि वो मायावती के साथ भी सरकार बनाने के लिए बातचीत कर सकते हैं।

अब फिर विपक्षी एकता की कोशिशें शुरू हुई हैं। ये कोशिशें भी उत्तर प्रदेश से ही शुरू हुई हैं और इन कोशिशों में दो बयान सामने आए हैं। अखिलेश यादव का बयान और फिर मायावती का बयान। मायावती ने कहा कि अगर संभव हुआ तो बहुजन समाज पार्टी के साथ जो हाथ मिलाना चाहे, वो उसका स्वागत करेंगी। उन्होंने यह नहीं कहा कि वो किससे हाथ नहीं मिलाएंगी। उन्होंने यह कहा कि जो भी हाथ मिलाना चाहेगा, वो उससे हाथ मिलाएंगी। अखिलेश यादव ने ममता बनर्जी से जाकर बातचीत करने की कोशिश की। शरद पवार की किताब के उद्घाटन से एक दिन पहले होने वाले भोजन समारोह में वो शामिल हुए और उन्होंने यह छाप छोड़ने की कोशिश की, संदेश देने की कोशिश की कि वो विपक्षी एकता में रुचि रखते हैं। लेकिन अखिलेश यादव की राजनीतिक अपरिपक्वता यहीं नज़र आई, जब अगले दिन शरद पवार की किताब के उद्घाटन समारोह में वो मंच पर नहीं गए। अगर वो मंच पर जाते तो लोग इसका अर्थ निकालते कि उनमें राजनीतिक परिपक्वता आई है और वो सचमुच राजनीतिक एकता चाहते हैं।

मुलायम बनाएंगे नई पार्टी

लेकिन पर्दे के  पीछे घटनाएं दूसरे ढंग से घट रही हैं। मुलायम सिंह यादव ने यह तय कर लिया है कि वो एक नई राजनीतिक पार्टी बनाएंगे। उस राजनीतिक पार्टी के निर्माण के पीछे सिद्धांत और कार्यक्रम को लेकर भी उन्होंने चर्चाएं शुरू कर दी हैं। मुलायम सिंह यादव को समाजवादी पार्टी की यह हार इतनी बुरी लगी कि वो अभी तक उस सदमे से उबर नहीं पाए हैं।

मुलायम सिंह यादव ने योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में जाकर अखिलेश यादव को नरेंद्र मोदी से भी मिलवाया। इससे पहले एक और महत्वपूर्ण घटना हुई। जैसे ही परिणाम आया कि अखिलेश यादव 47 सीटें जीते हैं, वैसे ही मुलायम सिंह यादव स्वयं अखिलेश यादव के घर चले गए। वहां वे ये सोच कर गए थे कि अखिलेश बहुत दुखी होंगे। मुझे उसे ढांढस बंधाना चाहिए। दरअसल पुत्र के प्रति पिता का प्रेम हमेशा जोर मारता रहता है। लेकिन पता नहीं वो क्या कारण है कि पिता के प्रति पुत्र का प्रेम कहीं दिखाई नहीं देता। शायद मुलायम सिंह यादव को ये लगा होगा कि इस हार के बाद अखिलेश यादव उनसे कहेंगे कि वो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद फिर से संभाल लें। लेकिन अखिलेश यादव ने एक शब्द नहीं कहा। मुलायम सिंह वहां से ये इंप्रेशन लेकर के आए कि अखिलेश यादव अभी अपने मंसूबों की दुनिया में हैं और वे किसी भी कीमत पर मुलायम सिंह यादव को दोबारा राजनीति में ही नहीं देखना चाहते। इसके संकेत तब मिले जब अखिलेश यादव के नजदीकी लोगों ने राजनीतिक परिक्षेत्र में ये अफवाह फैलानी शुरू की या इस चर्चा को जन्म दिया कि मुलायम सिंह यादव को अब संन्यास लेकर अपने बेटे को सारे दायित्व सौंप देने चाहिए।

यहीं से मुलायम सिंह यादव ने नई पार्टी बनाने का फैसला कर लिया और मुलायम सिंह यादव ने अपने नजदीकी लोगों से इस बारे में बातचीत शुरू कर दी। हालांकि उन्होंने जिन लोगों से भी बातचीत की, उन्हें अभी मुलायम सिंह यादव पर सिर्फ 90 प्रतिशत भरोसा है, क्योंकि उन्हें लगता है कि जिस दिन अखिलेश यादव अपनी पत्नी के साथ मुलायम सिंह यादव के पास पहुंच गए, उस दिन मुलायम सिंह अपना ये फैसला बदल सकते हैं। लेकिन घटनाएं दूसरी तरह से घट रही हैं। मुलायम सिंह ने अपने भाई शिवपाल यादव को पूर्ण अधिकार दे दिया है कि वो देश के विपक्षी नेताओं से बात करें। हमारी जानकारी के हिसाब से शिवपाल यादव की उत्तर प्रदेश के नेताओं में अजित सिंह से बातचीत हो चुकी है और शायद मायावती जी के साथ भी उनका सम्पर्क हो गया है। मुलायम सिंह का संदेश देवेगौड़ा जी, चौटाला जी, नीतीश कुमार और लालू यादव के पास भी पहुंच चुका है। इन सभी लोगों को इस सत्य पर विश्वास है कि अभी भी उत्तर प्रदेश के गांवों में अगर किसी की राजनीतिक साख है, तो मुलायम सिंह यादव की है, क्योंकि मुलायम सिंह यादव का अखिलेश यादव के पक्ष में प्रचार न करने का परिणाम ही है कि 47 सीटें समाजवादी पार्टी को मिलीं।

मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के हर मंडल में एक दिन और एक रात गुजारना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश के हर मंडल के उन नेताओं के पास यह संदेश पहुंच चुका है, जो मुलायम सिंह यादव के पक्ष में हैं, कि मुलायम सिंह यादव वहां आकर कार्यकर्ताओं की बात सुनना चाहते हैं। शायद ये पहला कदम है। इसके बाद मुलायम सिंह पार्टी बनाने की औपचारिक घोषणा कर सकते हैं। मुलायम सिंह के पार्टी बनाने की घोषणा का समय भी मुलायम सिंह ने लगभग तय कर लिया है। मई के आखिरी सप्ताह में एक बड़े सम्मेलन में पार्टी बनाने की घोषणा होगी। पार्टी की घोषणा के साथ पार्टी के पहले अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव नहीं होंगे और न शिवपाल यादव होंगे। पार्टी के पहले अध्यक्ष समाजवादी पार्टी का एक सबसे वरिष्ठ नेता होगा, जिसका चेहरा सभी को स्वीकार्य है और जो उम्र में, अनुभव में, प्रशासनिक अनुभव में सबसे वरिष्ठ है। मुलायम सिंह यादव उस पार्टी के सम्मेलन में संरक्षक के रूप में रहेंगे और वो उत्तर प्रदेश में, पश्चिम बंगाल में, मध्यप्रदेश में होने वाले सम्मेलनों में पार्टी के संरक्षक की हैसियत से शामिल होंगे।

मुलायम सिंह की कमज़ोरी रहे हैं रामगोपाल यादव

दूसरी तरफ अखिलेश यादव और प्रोफेसर रामगोपाल यादव किसी भी कीमत पर मुलायम सिंह को सक्रिय नहीं होने देना चाहते हैं। मुलायम सिंह यादव की सख्त नाराजगी प्रोफेसर रामगोपाल यादव से है और अभी कुछ नेताओं का एक हिस्सा अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव को ये समझाने में लगा है कि अगर प्रोफेसर रामगोपाल यादव को राजनीति से थोड़ा अलग रखा जाए और मंच पर मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव और शिवपाल यादव आएं तो 2019 में बड़ा फायदा होगा। लेकिन अखिलेश यादव इस राय को नहीं मान रहे हैं। वो प्रोफेसर रामगोपाल यादव का अपने मुख्यमंत्री बनने के पीछे सबसे बड़ा हाथ मानते हैं और उस अहसान को वो भूल नहीं पा रहे हैं। जब समाजवादी पार्टी की पार्लियामेंट्री बोर्ड की मीटिंग हुई, जिसमें छह या सात लोग शामिल थे और जिसमें ये तय हुआ कि उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री चुना जाए, क्योंकि अखिलेश यादव ये घोषणा कर चुके थे कि नेताजी ही मुख्यमंत्री होंगे। जब ये सवाल उठा कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा तो सबसे पहले प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने ये कहा कि अखिलेश यादव ही बनेंगे और कौन बनेगा? मुलायम सिंह जी की उपस्थिति में सारे लोग अचानक सन्न रह गए और मुलायम सिंह के पुत्र का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित हुआ था, इसलिए कोई बोला ही नहीं। लेकिन शिवपाल यादव ने दबी जुबान से कहा कि फैसला सही है, लेकिन इस फैसले को साल भर के लिए टाल देना चाहिए। शुरू के पहले साल खुद मुलायम सिंह जी मुख्यमंत्री रहें, अखिलेश यादव उनके साथ मंत्री रहें, प्रशासन के तरीके सीखें, लोगों को समझें, लोगों को जानें, उसके बाद मुलायम सिंह जी इस्तीफा दे दें और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनें। मुलायम सिंह ने इस बात को यहीं रोक दिया और कहा कि हम इस पर दो दिन बाद फैसला करेंगे। दो दिनों में मुलायम सिंह यादव पर प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने बहुत दबाव डाला, तब मुलायम सिंह यादव ने शिवपाल यादव से कहा कि हमारे ऊपर बहुत दबाव पड़ रहा है, इसलिए अखिलेश को ही मुख्यमंत्री बना देते हैं।

दरअसल, प्रोफेसर रामगोपाल यादव मुलायम सिंह की शुरू से कमजोरी रहे हैं। प्रोफेसर रामगोपाल यादव मुलायम सिंह यादव के सगे भाई नहीं हैं, सगे चचेरे भाई हैं। लेकिन वो अपनी  बात करने की शैली से, अपने अभिजात्य से, लोगों से सम्पर्क करने की कला की वजह से मुलायम सिंह के अतिप्रिय रहे और दिल्ली की पूरी राजनीति में, पहले अमर सिंह को साधना, फिर अमर सिंह को दूर भगाना, दूसरे नेताओं से संपर्क, ये सारे काम प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने मुलायम सिंह के लिए किए। मुलायम सिंह यादव का इतना ज्यादा भरोसा रामगोपाल यादव के ऊपर था कि वो उनकी बात को बिना सोचे-समझे मान लेते थे। इसीलिए, भारत की राजनीति में पहली बार एक नेता को सबने एक साथ, सामूहिक रूप से पब्लिक के सामने माला पहनाई। एक नई पार्टी की घोषणा हो गई। नई पार्टी का अध्यक्ष मुलायम सिंह को बना दिया गया, लेकिन उसको भी तो़डने की बात जब प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने मुलायम सिंह यादव से कही, कारण चाहे जो रहे हों, मुलायम सिंह यादव ने उसे एक सेकेंड में मान लिया। आज मुलायम सिंह यादव और उनके साथी स्पष्ट  रूप से मानते हैं कि अगर वो पार्टी बनी होती तो किसी प्रदेश में कोई चुनाव ही नहीं था। बिहार में जो परिणाम आया, उससे भी अच्छा परिणाम आता और बाकि राज्यों में बिहार दुहराया जाता। तब वो नेता, जिनमें ममता बनर्जी हैं, नवीन पटनायक हैं, ये सारे लोग मुलायम सिंह के नेतृत्व में बनने वाले नए विपक्षी दल का सहयोगी हिस्सा होते।

मुलायम सिंह कब मायावती से मिलेंगे?

अभी, प्रोफेसर रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव विपक्षी एकता के सही नक्शे को अपने साथ नहीं रख पा रहे हैं। उनकी कोशिश है कि सिर्फ वो और मायावती मिल कर उत्तर प्रदेश में 2019 का चुनाव लड़ें, लेकिन मायावती को ये जानकारी है कि उत्तर प्रदेश में यादव वोट पर अखिलेश यादव का नहीं, मुलायम सिंह यादव का मानसिक राज है। जब मुलायम सिंह यादव ख़डे होंगे तभी यादव समाज पूरे तौर पर मायावती के साथ ख़डा होगा। इसका दूसरा परिणाम ये निकलेगा कि अति पिछड़ा वर्ग, जो मायावती और मुलायम सिंह यादव से भी दूर चले गए और भारतीय जनता पार्टी का हिस्सा बन गए, वो सब वापस मुलायम सिंह और मायावती के साथ चले आएंगे। प्रश्न ये है कि मुलायम सिंह यादव कब मायावती से फोन पर बात करेंगे या कब मायावती से मिलेंगे? इस सवाल का जवाब सिर्फ मुलायम सिंह और मायावती के पास है। लेकिन, ऐसा होना अगले दिसंबर तक अवश्यंभावी है। मायावती का हर वाक्य ये बता रहा है कि वो भी कोई रास्ता तलाश रही हैं, जिससे वे नए सिरे से अपने राजनीतिक आधार को वापस पा सकें।

मुलायम सिंह यादव अब न प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं न मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। मुलायम सिंह यादव अब जयप्रकाश नारायण बनना चाहते हैं। मुलायम सिंह चाहते हैं कि सारे लोग एक साथ आएं और भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करें। लेेकिन भारतीय जनता पार्टी के पास मुलायम सिंह, अखिलेश यादव और प्रोफेसर रामगोपाल यादव को डराने के कई हथियार हैं। ब़डे परिवारों के या जो सत्ता में परिवार हैं, उनके ल़डकों द्वारा किए गए कई ऐसे कार्य हैं, जिनकी जांच केंद्र सरकार सीबीआई के जरिए करा सकती है। सीबीआई का इस्तेमाल वो एक तरफ मायावती को किनारे रखने में और दूसरी तरफ मुलायम सिंह यादव को डराने में कर सकती है। प्रोफेसर रामगोपाल यादव के ऊपर ये आरोप लग चुका है कि उन्होंने सीबीआई से बचने के लिए मुलायम सिंह यादव को विपक्ष से अलग कर दिया। अखिलेश यादव के बनाए हुए कई काम, जिनमें गोमती रिवर फ्रंट, आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे जैसे काम प्रमुख हैं, जिनकी जांच उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री तेजी से करा सकते हैं।

विपक्षी एकता में क्या होगा, कैसे होगा, क्या अखिलेश यादव विपक्षी एकता के केंद्र बनेंगे या मुलायम सिंह दुबारा केंद्र बनेंगे, इस बात का फैसला होना बाकी है। प्रोफेसर रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव को किसी भी कीमत पर विपक्षी एकता का केंद्र नहीं बनने देंगे। लेेकिन, मुलायम सिंह यादव की ये कोशिश होगी कि अखिलेश यादव उस विपक्षी एकता के केंद्र में दोबारा रहें। हालांकि, मुलायम सिंह के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव, प्रतीक की पत्नी अपर्णा यादव और मुलायम की पत्नी साधना गुप्ता, उनके संकेत कुछ अलग तरह के हैं। इससे लोगों में ये भ्रम फैल रहा है कि ये लोग भारतीय जनता पार्टी के नजदीक जाने की जल्दी में हैं। हो सकता है कि ये सही भी हो या सही नहीं भी हो, क्योंकि बिना मुलायम सिंह के किसी भी कदम का कोई मतलब नहीं है। बिना मुलायम सिंह के न उनकी पत्नी की हैसियत है, न उनके बेटे की हैसियत है, न उनकी बहू की हैसियत है। जो हैसियत है, मुलायम सिंह की हैसियत है।

मजबूत विपक्ष न होने का दोषी भाजपा या खुद विपक्ष

इसलिए अभी ये लग रहा है कि उत्तर प्रदेश में एक नई राजनीतिक पार्टी का जन्म होगा, जिसकी बुनियाद में मुलायम सिंह यादव का विचार होगा। जनवरी आते-आते मायावती सहित उन सभी ताकतों का सहयोग इस पार्टी के साथ होगा, जो 2019 में नरेंद्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करना चाहती है। मुलायम सिंह यादव के ख़डे होने के बाद, निश्चित तौर पर लालू यादव, नीतीश कुमार, एचडी देवेगौ़डा, चौटाला और कमल मोरारका, ये सब भी कहीं न कहीं हिस्सा बनेंगे।

लेकिन, ये काम बहुत मुश्किल है। ये काम हिमालय पर्वत को काट कर रास्ता बनाने जैसा है। एक समय ये काम इतना आसान था कि सब नेता मुलायम सिंह के घर इकट्‌ठे हो गए थे और अगर उस समय प्रोफेसर रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव ने साथ दिया होता तो आज हिंदुस्तान की राजनीति का इतिहास दूसरा होता। लेकिन, समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश को तश्तरी में रख कर, मिठाई के साथ, जिस तरह भारतीय जनता पार्टी को सौंपा है, वो इतिहास की महान बुद्धिमानी का अमिट नमूना बन कर लोगों को हमेशा सीख देता रहेगा। लेेकिन, राजनीति में कहीं भी पूर्ण विराम नहीं होता है। हो सकता है कि मुलायम सिंह यादव की इस नई मुहिम के साथ अखिलेश यादव भी जु़डें और शिवपाल यादव की राजनीतिक कार्यकुशलता की वजह से एक नया इतिहास प्रारंभ हो।

लेकिन, इन सारी घटनाओं के बीच में किंतु-परंतु है, जिनमें भारतीय जनता पार्टी का नाम आ भी रहा है, लोग ले भी रहे हैं और आरोप भी लगा रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी बहुत कुछ नहीं होने दे रही है। प्रश्न ये है कि भारतीय जनता पार्टी के ऊपर आरोप क्यों लगाया जाए। भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है, भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आना चाहती है, भारतीय जनता पार्टी अन्य लोगों को सत्ता से दूर रखना चाहती है। ठीक उसी तरीके से, जैसे समाजवादी पार्टी या कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी को दूर रखना चाह रही है। अब होशियारी के इस शतरंज में अगर भारतीय जनता पार्टी सटीक ढंग से अपने पासे फेंक रही है और सामने वाले को बार-बार शह दे रही है तो दोष भारतीय जनता पार्टी को न देकर उसका मुकाबला करने वाले विपक्षी दलों को देना चाहिए, जो मात तो दूर शह देने के नजदीक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। ये अलग बात है कि भारत की जनता को इस बिसात पर भारतीय जनता पार्टी ज्यादा समझदार दिखाई दे रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि अब तक राज कर चुके समस्त विपक्षी दल अपनी साख इतनी नीचे ले गए हैं और किए गए वादे को पूरा करने में इतनी बुरी तरह असफल हुए हैं कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी की असफलताएं छोटी असफलताएं लगती हैं।

(साभार: चौथी दुनिया)